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________________ चोर नहीं, देवता १०५ कालूसिंह-धन की क्या कमी थी। मैं हीरे-पन्न माणक, मोतियों के आभूषणों से भरी हुई पेटी उठा रहा था कि इतने में घर की सेठाणी नींद में ही बड़ बड़ाई कि कौन है भाई ! जब उसने गहरी नींद में भी मुझे भाई कहा-तब मैं बहिन की सम्पत्ति किस प्रकार चोरी कर सकता था। मैंने पेटी वहीं रखदी और चला आया । चलो अब हम किसी दूसरे सेठ के वहां पर जाकर चोरी करें। कालूसिंह ने किसी सेठ की उच्च अट्टालिका में प्रवेश किया। दस पन्द्रह मिनिट बाद पुनः वह खाली हाथ लौट आया : चोर वेशधारी राजा विक्रम ने पूछा-आप तो इस समय भी खाली हाथ लौटे हैं, ऐसो कौन सो घटना घट गई जिससे आप चोरी न कर सके। कालूसिंह-मैं अफियों की पेटो लेकर आही रहा था कि मिश्री का ढेर समझ कर एक डली मुह में डालदी कि प्यास न सताएगी। पर वह मिश्री नहीं, नमक था। भूल से मैंने उसे मिश्री समझ ली थी। जिस घर का मैंने नमक खाया उस घर पर चोरी कैसे कर सकता ? मैं चोर हूं, नमक हरामनहीं। दोनों ही राजा विक्रम के खजाने को चोरी करने पहुँचे। चोर कालुसिंह चार रत्नों के डिब्बे लेकर खजाने से बाहर आया। उसने दो डिब्बे चोर वेशधारी विक्रम के हाथ में देना चाहा, इतने में उसके कानों में चिड़िया Jain Education InternationaFor Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003196
Book TitleFool aur Parag
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1970
Total Pages134
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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