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फूल और पराग तुम जाति से ब्राह्मण हो, तुम्हारी वस्तुएं ले करके मैं क्या करूँ। ये तुम्हारी तीनों वस्तुएँ लो और अपने घर जाओ। रानी ने सत्यघोष को विदा किया और राजा को बुलाकर वह रत्नों की डिबिया बताते हुए कहा"मैंने इस प्रकार कला कर सत्यघोष के घर से रत्न मंगवाये हैं।"
राजा-"रानी जी! मुझे विश्वास नहीं है। राज खजाने से ही निकाले हों तो क्या पता ?"
रानी-"राजन् । हाथ कंगन को आरसी क्या ? क्यों नहीं, सुमित्र को बुलाकर दिखा दिये जायें।"
राजा ने राज खजाने से कुछ रत्न निकलवाये, और जौहरियों को दिखाकर उन रत्नों के साथ वे पांचों रत्न भी मिला दिये। और सुमित्र को बुलाया सुमित्र ने उस रत्न राशि में से अपने पाँचों रत्न छांट लिये "राजन् ! ये ही पाँच रत्न मेरे हैं।" राजा अवाक रह गया। में जिसे पागल और झूठा समझता था वह तो सत्यवादी निकला। सत्यघोष के आचरण से राजा को बहुत ही घृणा हो गई। उसे मालूम हुआ वह बगुला था, हंस नहीं।
सत्यघोष घर पर पहुँचा, पत्नी के द्वारा सारी स्थिति का पता लगाने पर उसे अत्यंत दुःख हुआ कि उसके पाप का घड़ा फूट गया है। उसने जिन रत्नों को इतने समय तक छिपाकर रखा था वे प्रकट हो गए। वह भय से काँप उठा। वह वहाँ से भगना चाहता था कि राजा
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