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अनीति का धन
प्रकृति के प्राङ्गण में ऋतुराज वसन्त का आगमन हो चुका था । चारों ओर नये जीवन, नई सुषमा का संचार हो रहा था। राजा उग्रसेन के अन्तर्मानस में वसन्त की रमणीय छटा को निहार कर एक विचार उद्बुद्ध हुआ कि "मैं ऐसा कोई कार्य करू, जो मेरे नाम को हजारों वर्षों तक उजागर करता रहे।" उसने एक नव्य भव्य भवन बनाने की योजना बनाई । योजना को मूर्त रूप देने के लिए राजा ने एक प्रसिद्ध पण्डित को बुलाया और कहा - " पण्डित प्रवर ! ऐसा शुभ मुहूर्त देखो, कि मेरा भवन बिना बाधा के शीघ्र पूर्ण हो जाय ।"
पण्डित ने पञ्चाङ्ग को टटोल कर कहा - "राजन् ! कल का दिन ही सर्वश्रेष्ठ है । शुभ कार्य के लिए 'शुभस्य शीघ्रम्' ही उचित है, किन्तु यह बात है कि सर्व प्रथम भवन की नींव में न्याय और नीति से प्राप्त दो मोहरें डाली जाय। उन मोहरों के प्रबल प्रभाव से भवन को कोई भी
शत्रु नष्ट नहीं कर सकेगा । पर प्रश्न है कि उन मोहरों को कहाँ से प्राप्त करना ?"
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