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| अभिमान गल गया प्रस्तुत प्रसंग अठारहवीं शताब्दी का है । जैन जगत् के ज्योतिर्धर विद्वान् उपाध्याय यशोविजयजी गुजरात में पादविहार करते हुए जन-जन के अन्तर्मानस में त्याग निष्ठा, संयम प्रतिष्ठा उत्पन्न कर रहे थे। वे एक बार विहार करते हुए खंभात पहुँचे। खंभात के भावुक भक्तों ने और श्रद्धालु श्रावकों ने उनका हृदय से स्वागत किया। उनके तेजस्वी व्यक्तित्व और ओजस्वी वक्तृत्व की सभी मुक्तकंठ से प्रशंसा करने लगे।
उत्तराध्ययन सूत्र के प्रथम अध्ययन की, प्रथम गाथा, के प्रथम पद 'संयोगा विप्पमुक्कस' इस पर वर्षावास के चार माह तक प्रवचन चलता रहा। उपाध्याय जी के सूक्ष्म विश्लेषण, मार्मिक विवेचन को सुनकर साक्षर और निरक्षर सभी मुग्ध हो गये। नास्तिक भी आस्तिक बन गये, प्रतिकूल भी अनुकूल होगये, रागी भी त्यागी हो गये।
वैदिक विद्वानों ने यशोविजय जी के पाण्डित्य की प्रशंसा सुनी। वे उनकी परीक्षा लेने के लिए एक शिष्ट
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