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अनीति का धन
राजा ने अपने अनुचर को आदेश देते हुए कहा"जाओ, शीघ्र सेठ धर्मपाल को बुला लाओ।"
सेठ धर्मपाल आया। राजा ने अपने महल की योजना उसके सामने रखी और कहा-"महल की नींव में डालने के लिए न्याय नोति से अजित दो मोहरें मुझे चाहिए।"
धर्मपाल ने नम्र निवेदन करते हुए कहा -"महाराज! आपको जितनी आवश्यकता हो उतनी मोहरें में दे सकता है। पर अन्याय के कार्य के लिए नहीं। मेरी मोहरें अन्याय के कार्य में खर्च नहीं हो सकतीं।"
राजा ने भोंहे तानकर कहा-"क्या कहा तुमने ? क्या भवन निर्माण का कार्य अनैतिक कार्य है ?" ___"हाँ राजन् ! विलासिता के पोषण के लिए, अपने मिथ्या अहंकार की अभिवृद्धि के लिए, अपने नाम की भूख के लिए आप भवन बनाना चाहते हैं ?" सेठ ने निर्भयता पूर्वक कहा-"आपको कहां भवन की आवश्यकता है ? आपके पास पूर्वजों के बनाए हुए इतने भवन हैं कि सैकड़ों व्यक्ति उसमें आनन्द से रह सकते हैं। पर वे भवन आपके नाम की भूख को मिटा नहीं सकते. एतदर्थ हो आप नया भवन बनाना चाहते हैं ? किन्तु यह धन का सदुपयोग नहीं, दुरुपयोग है।" ।
राजा ने आदेश के स्वर में कहा-"मैं तुम्हारे से अधिक वाद-विवाद नहीं करना चाहता। बताओ ! तुम मोहरें सहर्ष अर्पित करते हो या नहीं ? तुम चाहो तो
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