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फूल और पराग पाँच रत्न मुज दाबिया,
सत्यघोष चण्डाल ! कोई दिलादो दया करी
यह मोटा उपकार ।। महारानी के कर्ण-कुहरों में दोहे की आवाज गिरी, रानी ने गवाक्ष में से मुह बाहर निकालकर देखा । वृक्ष पर से एक व्यक्ति पुकार रहा है। रानी ने दासियों से कहा-"ज्ञात होता है यह कोई दुःखियारा है, पूछकर बताओ इसे क्या कष्ट है ?" दासियों ने कहा--- 'रानो जी ! यह तो पागल है।"
सुमित्र प्रतिदिन वही दोहा वृक्ष पर चढ़कर बोलता रहा। प्रतिदिन रानी सुनती, रानी का हृदय दया से द्रवित हुआ, उसने कहा- "दासियो ! तुम इसे मेरे पास बुलाकर लाओ, तुम जिसे पागल कह रही हो वह पागल नहीं है, पागल का प्रलाप कभी भी एक सदृश नहीं होता।" रानी के आदेश से दासियों ने सुमित्र को रानी के सामने उपस्थित किया। रानी ने सत्य-तथ्य का पता लगाने के लिए उससे सारी स्थिति पूछी। रानी ने कहा-'सुमित्र! सत्यघोष के रत्न मेरे पास आ गये हैं, लो ये रत्न बताओ इस में तुम्हारे कौन से रत्न हैं ? क्या तुम अपने रत्नों को पहचानते हो? रानी ने रत्न सामने रखे।
सुमित्र ने कहा- "रानी जी ! ये मेरे रत्न नहीं हैं। रानी---"आप इन्हीं रत्नों को ले लीजिए।
सुमित्र- "मैं दूसरे रत्न नहीं लेना चाहता, मुझे तो अपने ही रत्न चाहिए।"
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