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मयणल्ल देवो
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नहीं हुई हो किन्तु अन्तर्ह दय से मैं उनको वरण कर चुकी हूं। आर्य नारी प्राण को त्याग करके भी प्रण को निभाना जानती है।"
राजा जयकेशी ने दीर्घ निश्वास छोड़कर कहा"पुत्रो ! तुम्हारा विचार ठोक है। पर चालुक्य नरेश के साथ हमारा मैत्री सम्बन्ध नहीं है। वह इन दिनों में भारत पर विजय वैजयन्ती फहराना चाहता है। उसके विचार इस समय आसमान को छू रहे हैं। हम उसके सामने तुम्हारे विवाह का प्रस्ताव रखें, यदि वह सहर्ष हमारे प्रस्ताव को स्वीकार करले तो हमारो विजय, है, यदि वह प्रस्ताव को ठुकरा दे तो युद्ध अनिवार्य हो जाएगा। हम नहीं चाहते हैं कि उनके साथ युद्ध करें। युद्ध कर कर्ण को विवाह के लिए प्रसन्न करना अति कठिन है। ___मयणल्लदेवो के सामने पिता की स्थिति स्पष्ट थी। वह पिता को अपने लिए कष्ट की आग में झुलसाना भी नहीं चाहती थी। उसने कहा___"पिताजी ! युद्ध कर उनको विवाह के लिए विवश करना मैं नहीं चाहती। वे मेरे आराध्यदेव हैं, मैं ऐसा प्रयत्न करूगी कि युद्ध का प्रश्न ही उपस्थित न हो। आप मुझे उनकी सेवा में जाने दीजिए। वे चाहे मुझे स्वीकार करें या न करें, पर मैं तो उनको स्वीकार कर हो चुकी हैं। उनके चरणों के अतिरिक्त अब मेरी कहीं पर भी गति नहीं है।"
पुत्री के हठ को देखकर राजा जयकेशो ने स्वीकृति
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