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पारसमणि
एक भिखारी झोंपड़ी में बैठा हुआ चटनी पीस रहा था । उस समय एक महान् योगी भिक्षा के लिए उसके द्वार पर पहुँचा | योगो को अपने दरवाजे पर आया हुआ देखकर भिखारी असमंजस में पड़ गया। एक ओर उसके मन में योगी के आगमन से प्रसन्नता का ज्वार आ रहा था. दूसरी ओर यह विचार आ रहा था कि योगी को क्या वस्तु प्रदान करूँ । योगी मेरे द्वार से खाली हाथ लौटे यह मेरे लिए शुभ नहीं है । झौंपड़ी में ऐसी कोई वस्तु भी नहीं है जो योगी को दी जा सके ।
भिममंगा अपनी झौंपड़ी से बाहर आया । योगी के चरणों में गिरकर बोला- 'ऋषिवर ! आपने मुझ दीन पर अपार कृपा की है । मेरी झौंपड़ी आपके चरणारविन्दों से पावन हुई । आपके दर्शन कर मैं कृत - कृत्य हो गया। आपकी तपः पूत वाणी सुनकर मेरे कान पवित्र हो गये । किन्तु गुरुदेव ! मैं अभागा हूँ, मेरे पास आपश्री को समर्पित करने के लिए कोई भी वस्तु नहीं है । मैं लज्जित हूँ, लज्जा से मेरा सिर झुक रहा है । मैं स्वयं
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