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फूल और पराग
एकबार परिभ्रमण करते हुए यशोविजय जी दिल्ली पहुंचे। उनका वहाँ भव्य स्वागत हुआ। उनकी विद्वत्ता की चर्चा घर-घर में होने लगी। दिन प्रतिदिन प्रवचनों में जनता की उपस्थिति बढ़ने लगी।
एक दिन प्रवचन पूर्ण हुआ, एक वृद्ध महिला उपाध्याय जी के पास आयो । वन्दन कर उसने अत्यन्त नम्र शब्दों में निवेदन किया- "गुरुदेव ! मेरी एक जिज्ञासा है, यदि आपको कष्ट न हो तो कृपया समाधान कीजिए।
उपाध्याय जी ने कहा-"आप निःसंकोच पूछ सकती हैं।"
वृद्धा ने हाथ जोड़कर कहा - "गुरुदेव ! आपके समान और भी कोई विद्वान् है ? क्या भद्रबाहु और स्थलिभद्र आपके समान ही विद्वान थे।"
उपाध्याय यशोविजय जी ने सरलता से कहा"बहिन ! तुम तो बहुत ही भोली हो । मेरे से तो बढ़कर अनेक विद्वान हो चुके हैं। भद्रबाह और स्थूलभद्र के साथ मेरी तुलना नहीं हो सकती। उनका ज्ञान समुद्र के समान विशाल था, मेरा तो एक बूंद के समान भी नहीं है। वे तो चतुर्दश पूर्वधर थे, मेरे पास तो एक भी पूर्व नहीं है।
वृद्धा ने पुनः निवेदन किया-"गुरुदेव ! गणधर गौतम, और जम्बू तो आपके समान ही विद्वान् होंगे न ?"
उपाध्यायजी-"बहिन ! तुम कितनी भोलेपन की बात करती हो, वे केवलज्ञानी थे। उनकी और मेरी समता कैसे हो सकती है। कहां राई का दाना और कहाँ सुमेरु ? कहां सूर्य और कहाँ नन्हा-सा दीपक ?"
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