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ऋषिजामहाराज
पंडित मुनिश्री अमोलक ऋषि हिन्दी भाषामुवाद साहित.
बालब्रह्मचारी
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अंतगडदशांग सूत्र प्रसिद्ध कर्ता-दाक्षिण हैदराबाद निवासी.
जाबहादुर लाला
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लाला सुखदेवसहायजी ज्वाला
ज्वालाप्रसादजा
प्रत
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जैन शास्त्रोद्वार मुद्रालय सीकंदराबाद (दक्षिण.)
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56566- -६-६-०३ ६-6-50 अमल्यशास्त्र दानदाता..
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जैन स्थम्भ दानवीर :
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जैन प्रभावक धर्म धूरंधर
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सन
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जेन शास्त्रीद्वार मुद्रालय, सिकंदराबाद, दक्षिण.)
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स्व राजा बहादुर लाला मुखदेव सहायजी. जौहरी.
वर्गस्थ स०१९७४.
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लाला ज्वालाप्रसादजी, जौहरी.
जन्म सं.१९५०
मस०१९२०.
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08 अन सन्तकृत, मून
अन्तकृत सूत्र की प्रस्तावना.
श्रीमहावीर देवस्थ, सद्गुरुरये नमस्कृत्य । अन्तकृतस्य सूत्रस्य, वार्तिकं कुरुते मया ॥ १ ॥
श्रीमन्महाबीर स्वामी जी को और सद्गुरु को नमस्कार करके अन्तकृत दशांग श ख के अर्थ का सुख से अवबोध होने के लिये हिन्दी अनुवाद करता हूं. सप्तमांग उपासक दर्शाग में श्रावकों की करणी फल का कथन किया, इस अनुमांग मे साधु की उत्कृष्ट करणी के कष्ट फल का कथन किया { जाता है. इस का नाम अन्वकृतदशांग है, जिन २ जीवोंने उत्कृष्ट तप संयमाचरण कर संसार का तथ कर्मों का अन्त कर के संसार के अन्त में रहा मोक्ष सुख की प्राप्ति की ऐसे.
महद्दविकसितीनां गौतम पद्मावती पुरोगाणाम् ।
अधिकृतसिवान्त सुकृताः स्मरतोचैरन्तकृद्दशाः कृतिनः ॥ १ ॥
गौतमादि महर्षि और पद्मावती आदि महा सती, यो ९० संत सती पवित्रात्मा के चरित्र का कथन इस सूत्र में किया गया है. इस के८ वर्ग और ९० अध्ययन हैं. इस का मुख्यता में उतारा तो श्रावक हररीळाल जी की पास से खेतसी जीवराज की तरफ से छपी हुइ मत से किया है और गौणता में मेरे पास की
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दो प्रतों की सहायता ली है. बीच में अतिमुक्त मुनि का कथन. भगवतीजी सूत्र में का अर्थ का उतारा
र पूर्ण किया है. और गजसकमालजी का अधिकार ज्ञाताजी के प्रथम अध्ययन के अनुसार सुधाराकिया है. यस्तता से दृष्टी दोष ब. कुरूप सुधारे में पहुनसी अशुद्धीयों रहगई है उसे "सुधार कर पठन करने की कृपा कीजीये.
-
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+ प्रयोजक बाल अमचारी मुनि श्री अमोलक ऋपिणी ।
अन्तकृत मत्र की-अनुक्रमणिका. प्रथम वगै १. अध्ययन ....
१
चा धर्म अध्ययन द्वारका नगरी का कृष्णजी की ऋद्धिका
कृष्णजी की पटराणियां के८ अ० । गौतमकुमार के जन्मादि का ...
द्वारका दहन, कृष्णजी तीर्थकर गोत्र . दीक्षा मोक्ष प्राप्ति समुच्चय
- मूलदत्चामूलश्री के दो अध्ययन ... २द्वितीय वर्ग ८ अध्ययन समुच्चय
षष्टम वर्ग-१६ अध्ययन .. . ... ३ तीसरा वर्ग १३ अध्ययन . उभ्रात साधुओं का . :........
मकाइ और विक्रम गाथापतिका सातवा साखकुमार का अध्ययन ... १४
तीसरा अर्जुनमाली का पाठवा गजमुकुमालजी का अध्ययन.....१५
चौथे से चउदवे अध्ययन संक्षेप में समुखकुमारादि के पांचो अध्ययन ... ५० - पन्दरवा अध्ययन, अतिमुक्त कुमार ... 1 ४ चौथा वर्ग १. अध्ययन.
सोलवा अध्ययन अलखराज का ... १०४
प्रकाशक-राजाादुर साला सुखदेवसहायजी-ज्वालाप सादजी *
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-७ वर्ग १३ अध्ययन श्रेणिकराजा की
५ सुकृष्णारानी भिक्षु की प्रतिमा ... १२, १३ राणी के
६ महाकृष्णारानी लघुसर्वोतम भद्र तप ... १२४ ८ वर्ग-१० अध्ययन
७वीरकृष्णारानी महासर्वोतभद्र तप ... १२७/Y १कालीरानीने रस्नावली तप .... ८ रामकृष्णारानी मद्रोचर प्रतिमा ... १३0.1 २मुकाली रानी का कनकावली तप ... ११ ९प्रियसनकृष्णारानी मुक्तावली तप ... १३२,०० ३ महाकाली रानी लघुसिंह क्रीडा तप... ११८ । १० महासन कृष्णारानी आयविलबृधमान १३५ ४ कृष्णाराणी बुद्धसिंहा क्रीडा तप ... १२०
48 अष्टपांग अन्तकृत दशांग-सूत्र 948
परम पुज्य श्री कहानजो ऋषि महाराज की सम्पदायके बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलकऋषिजी ने सीर्फ तीन वर्ष में ३२ ही शास्त्रों का हिन्दी भाषानुवाद किया, उन ३२ ही शास्त्रों की १००- १००० प्रतो का सीर्फ पांच ही वर्ष में छपवाकर दक्षिण हैद्राबाद निवासी राजा वहादुरलाला
मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादनी ने सब को अमूल्य लाभ दिया है.
8+ विषयाणुक्रमणिका +
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RARMANA पुख्याधिकारी Anesssamsh
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उपकारी-महात्मा
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परम पूज्य श्री कहानजी ऋषिजी महाराज की सम्प्रदाय के शुध्धाचारी पूज्य श्री खुषा ऋषिजी महाराज के शिष्यवर्य स्व. तपस्वीनी श्री केवल ऋषिजी महाराज आप श्रीने मुझे साथ ले महा परिश्रय से हैद्राबाद जैसा बडा क्षेत्र साधुमार्गिय धर्म में प्रसिद्ध किया व परमोपदेश से रानाबहादुर दानवीरलाला मुखदेव सहायजीपाला प्रसादजी को धर्मप्रेमी बनाये. उनके प्रतापसे ही शास्त्रोद्धारादि महा कार्य हैद्राबाद में हुए. इस लिये इस कार्य के मुख्याधिकारी आपही हुए. जो जो भव्य जीषों इन शास्त्र द्वारा, महासाभ प्राप्त करेंगे ये भापही के कृतज्ञ होंगे.
उपकासशरडा
परम पुज्य श्री कहानजी ऋषिजी महाराज की सम्प्रदाय के कविवरेन्द्र महा पुरुष श्री तिलोक स ऋषिजी महाराज के पाटबीय शिष्य वर्य, पूज्य-- पाद गुरु वर्य श्री रस्तऋषिजी महाराज!
आपश्री को प्राज्ञासे ही शास्त्रोद्धार का कार्य स्त्री. कारकिया भौर आप के परमाशिर्वाद से पूर्ण करसका इस लिये इस कार्य के परमोपकारी महाला आप ही हैं. आप का उपकार केवल मेरे पर ही नहीं परन्तु जो जो भव्यों इन शास्त्रोंद्वारा साभ प्राप्त करेंगे उन सबपर ही होगा.
Mews शिशु-अमोल ऋषि
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आभारी-महात्मा 88%
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WIKE% हिन्दी भाषानुवादक
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कच्छ देश पावन कर्ता मोटी पक्ष के पम्प पूज्य श्री कर्मसिंहजी महाराज के शिष्यवर्य । महात्ना कविवर्य श्री नागचन्द्रजी महाराज! इस शास्त्रोद्धार कार्य में आद्योपान्त आप श्री प्राचिन शुद्ध शास्त्र, हुंडी,गुटका और समय पर आवश्यकीय शुभ सम्मति द्वारा मदत देते रहनेसेही 18/ मैं इस कार्य को पूर्ण कर सका. इस लिये केवल 2 में ही नहीं परन्तु जो जो भव्य इन शास्त्रोद्वारा लाभ प्राप्त करेंगे वे सब ही आप के अभारी होंगे.
___ शुद्धाचारी पूज्य श्री खूबा ऋपिजी महाराज के शिष्यवर्य,आर्य मुनि श्री चेना ऋषिजी महाराजके शिष्यवर्य बालब्रह्मचारी पण्डित मुनि श्रीअमोलक ऋपिजी महाराज आपने बडे साहस से शास्त्रोद्धार जैसे महा परिश्रम वाले कार्य का जिस उत्साहसे स्वीकार किया था उस ही उत्साह से तीन वर्ष जितने स्वल्प समय में अहर्निश कार्य को अच्छा बनाने के शुभाशय से सदैव एक भक्त भोजन और दिन के सात घंटे लेखन में व्यतीत कर पूर्ण किया. और ऐसा सरल बनादिया कि कोई भी हिन्दी भाषज्ञ सहज में समज सके, ऐमें ज्ञानदान के महा उपकार तल दवे हुओ हम आप के बड़े अभारी है...
. मंघकी तर्फ से.
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आपका अमोल पनि
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मुखदेव महाय चाला प्रमाद प
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PायमनिdiaRRSSBN 9 और भी-मरायटता
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अपनी छत्ती ऋद्धि का त्याग कर हैद्रागद सीकन्द्राबादमें दीक्षाधारक.बाल ब्रह्मचारी पण्डित मुनि श्रीअमोलक ऋषिजीके शिष्यवर्य ज्ञानानंदी श्री देव ऋषिजी. वैय्यात्यी श्री राज ऋषिजी तपस्वी श्री उदय ऋषिजी और विद्याविलासी श्री मोहन ऋषिजी. इन चारों मुनिवरोंने गुरु आज्ञाका घहमानसे सीकार कर आहार पानी आदि मुखोपचार का संयोग मिला. दोपहर का व्याख्यान, प्रसंगीसे वार्तालाप,कार्य दक्षता व समाधि भाव से सहाय दिया जिस से ही या मा कार्य इतनी शीघ्रता से लेखक पूर्ण सके. इस लिये इस कार्य पहल उक्त मुनिवरों का भी बड़ा उपकार है.
पंजाब देश पावन करता पुज्य श्री सोहनलालजी, महात्मा श्री माधव मुनिजी, शतावधानी श्री रलचन्द्रजी,तपस्वीजी माणकचन्दजी,कवीवर TA श्री अभी ऋपिजी,सुवक्ता श्री दौलत ऋपिनी... श्री नथमलजी.पं.श्री जोरावरमल जी. कविवर श्री नानचन्द्रजी.प्रवर्तिनी सतीजी श्रीपार्वतीजी.गुणसतीजी श्री रंभाजी-धोराजी सर्वज्ञ भंडार, भीना सरवाले कनीरामजी बहादरमलजी बॉडीया, लीवडी भंडार, कुचेरा भंडार, इत्यादिक की रफ
से शास्त्रों व सम्मति द्वारा इस कार्य को बहुत , सहायता मिली है. इस लिये इन का भी बहुत
पकार मानते हैं.
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मखदेव सहाय माला प्रमाद
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मवर महायपालापमार
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3310 आवश्य कीय सूचना
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HAIR शास्त्र प्रकाशक :
दक्षिण हैद्राबाद निवासी जौहरी वर्ग में श्रेष्ठ दतधर्मी दानवीर राजा वहादुर लालामी साहेव श्री मुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी!
आपने साधु सेवा के और ज्ञान दान जैसे महालाभ के लोभी बन जैन साधुमार्गीय धर्म के परम माननीय व परम आदरणीय बत्तीम शात्रों को हिन्दी भाषानुवाद सहित छपाने को रु.२००००, का खर्चकर अपूश्य देना स्वीकार किया और युरोप युद्धारंभ से सब वस्त के भाव में वृद्धि होने के रु. ४०००० के खर्च में भी काम पूरा होनेका मंभव नही होते भी आपने उस ही उत्साह से कार्य को समाप्त कर सबको अमूल्य महाकाभ दिया, यह आप की उदारता साधुमार्गीयों की मोरव दर्शक व परमादरणीय है!
झोबाला (काठियावाड) निवामी मणीलाल शीवलाल जो शास्त्रोद्धार कार्यालय का मेनेजर था और जो शास्त्रोद्धार जैसे महा उपकारी और धार्मीक कार्य के हिसार कोसतोप जनक और विश्चाशनीय ढंग से नहीं समझा सकने के सबब से हमको पूर्णा अविश्वाश हो गया और आपखुद घदरा कर बिना इजाजत एक दम चलागया इम लिये जो प्रेश अखबार और धार्मीक कार्य के लिये मणीलाल को देना चाहाथा वो उसकी अप्रमाणिकता और घोटाला देखकर उस को नही देते हुवे आग्रा निवासी जैन पथप्रदर्शक मासिक के प्रसिद्ध कर्ता बबू पदम सिंघ जैनको धार्मिक कार्य निमित्त दिया गया हे सर्व सज्जन
उस अखबार से फायदा उठावें Naaask ज्याला प्रशाये 33x 2
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vies हैद्राबाद सिकन्द्राबाद जैन मंवय
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34+ अष्टमंग-तगड दशांग सूत्र +
॥ अष्टम् - अंतगड दशाड़-सूत्रम् ॥
॥ प्रथम-वर्ग ॥
'तेणं कालेणं तेणं समएणं चपाएनामं णयरीहोत्था, पुण्णभद्दचेइए, वण्णसंडे ॥ १ ॥ तेणं कालेणं तेणं समएर्णं अज्जसुहम्मेथेरे समोसरीए, परिसाणिगया जाव पांडेगया ॥ २ ॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं अजसुहम्मस्स अंतेवासी अजजंबुणामं अणगारे जात्र
उसे काल उस समय में चम्पा नामक नगरी थी, वहां ईशान कौन में पूर्णभद्र चैत्य बगीचा था ॥ १ ॥ उस काल उस समय में आर्य सौधर्मा स्वामीनी पधारे, परिषदा आई, यावत् धर्मकथा श्रवण कर पीछी गई ॥ २ ॥ जस काल उस समय में आर्य सौधर्म स्वामी के शिष्य भार्य जम्बू नामक - अनगार यात्
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44423+प्रथमथम अध्ययन 41
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मुनि श्री अमोलक ऋषिजी र
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पज्जवासंति, एवं वयासी-जइणं भंते समणेणं भगक्या महावीरेणं आदिकरेणं जावा संपेताणं सत्तमरस अंगरत उवासगदसाणं अयम? पण्णत्ते ॥ अट्टमस्सणं भंते अंगस्स अंतगडदसाणं समणेणं जाव संपत्तेणं के अटे पण्णत्ते ? एवं खलु जंबु ! 31. समणेणं जाव संपत्तणं अट्ठमस्स अंगस्स अंतगडदसाणं अट्ठवग्गा पण्णत्ता॥३॥ जइणं भंते.! समणेनं जाव संपत्तेणं अट्ठमस्स अंगरस अंतगडदसाणं अट्ठवग्गा पण्णत्ता, पढमस्सणं भंते ! वग्गरस अंतगडदसाणं समणेणं जाव संपत्तेणं कतिय अज्झयणा
पण्णत्ता ? एवं खलु जंबु समणेणं जाव संपत्तेणं अट्ठमस्स अंगस्स अंतगडदसाणं पर्युपासना-सेवा करते हुये गो बाले-यदि अहो भगान! श्रमण भगवंत श्री महावीर स्वामीजी धर्मकी आदी के करता यावत् मुक्ति पधारे उनोंने सालवा अंग उपाशक दशा का उक्त अर्थ कहा वह मैंने श्रवण किया,
अब आगे आना अंग अंतकुल दशांग का श्रमण. यावत् युक्ति को प्राप्त हवे उनोंने क्या अर्थ कहा इयों निश्चय हे जम्बू ! श्रमण भगवंत श्री महावीर स्वामीजी यावत् मुक्ति पधारे उनोंने आठवा अंग
अंतकृत दशा के आठवर्ग कहे हैं ॥३॥ यदि अहो ग धमण भगवंत श्री महावीर स्वामीजी यावत्
मुक्ति पधार नोंने आठवे अंग अंतगड दशा के आठ वर्ग कहे हैं, तो अहो भगवन् ! प्रथम वर्ग के कितने र अध्ययन कहे हैं ? यों निश्चय, हे जम्बू ! श्रमण यावत् मुक्ति पधारे उनोंने आठवा अंग अंतराई दशा
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प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादजी.
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अंतगड दशांग
पढमस्स वग्गस्स दस अज्झयणा पण्णत्ता तंजहा. गोयमे, समुद्दे, सागर, गंभीर चैव, होइत्थितेय ॥ अचले, कपिले, खलु अखोभ, पलेणइ विण्हए ॥ १ ॥ ४ ॥जणं भंते ! समणेणं जाव संपत्तेणं अट्ठमस्स अंगस्स अंतगडदसाणं पढमस्स बग्गरस दस अज्झयणा पण्णत्ता, पढमस्लणं भंते अज्झयणस्स के अटे पण्णत्ते ? एवं खल जंबू ! तेणं कालेगं तेणं समएणं बारवतिनाम नयरहिोत्था, दुवालसंजोयणायामा,
नवजोयणंविच्छिन्ना, धणवित्तिमत्तिणिमत्ता, चामिकर पागारणिमिया, णाणामणि पंके दश अध्ययन कहे उन के नाम-१ गौतमकार का, २ समुद्रकपार का, ३ सागरकमार का, १४ गंभीरकुमार का, ५ थिमितकुपार का, ६ अ कुमार का, ७ कापेलकुमार का, ८ अक्षोभकुमार
का, ९ प्रशेन कुमार का और १० विष्णू कुमार का ॥ ४ ॥ यदि अहो भगवन् ! श्रमण भगवंत श्री
महावीर स्वामीजी यावत् मुक्ति पधारे उनोंने अंतकृत दांग के प्रथम वर्ग के दश अध्यन कहे हैं, उस में * का प्रथम अध्ययन का क्या अर्थ है ? यो निश्चय हैं जम्बू! उस काल उस समय में द्वारका
नामक नगरी थी. वह दारे योजना की लम्बी और नई योजन की चौडी थी, उस नगरी के धनेन्द्र देवने बनाइ थी. इसके फिरता चारों तरफ मार्गका गह-कोट था, वह प्रकार (कोट) अनेक प्रकारके मणि के पांच वर्णमय कंगूरे करमंडित था, 4 नगरी अलकापुरी ( देवता की नगरी) जैसी थी, उस में रहने
अक्षय-वर्गका प्रथम अध्ययन
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१ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अयोलक ऋषिजी +
यत्रणा कविसीसगमंडिया, सुरमा, अलकापुरिसंकासा, पमुदिय भकिलिया, पबक्सदेवलोगभूया, पासादिया, दरिसगिजा, अभिरूवा पडिरूवा ॥ ५ ॥ तीसेणं वारवतिय णयरिए बहिया उत्तर पुरिच्छमे दिसिभाए एत्थणं रेवते नामं षवत्ते होत्था वण्णओ ॥ ६ ॥ तत्थगं रेवते पवत्ते गंदणवणे नाम उजाणेहोत्था वण्णओ ॥ ७ ॥ सूरपिए.. नामं जक्खस्स जक्खायतणे होस्था, पोराणे सेण एगेणं वणसंडणं, आसोगवरपायचे,
पुढविसिला पट्टए ॥८॥ तत्थणं वारवती एणयरीए कण्हे गाम वासुदेवराया परिवसई, वाले लोक सदैव प्रमुदित-हर्षवन्त थे, वह नगरी एक क्रीडा करने के स्थान जैसी मनोरम्प थी, प्रत्यासाक्षात् देवलोक जैसी थी, चिच को प्रसन्न करनेवाली, देखने योग्य, अभी रूप प्रतिरूप थी ॥५॥ उसे द्वारका मगरी के बाहिर उत्तर पूर्व दिशा के मध्य ईशान कौन में यहां रेवती नाम का पर्वत था, वह भी वर्णन करने योग्य था, ॥ ६ ॥ उस रेवती पर्वत के पाप्त नन्दन बन नाय का उद्यान था, वह भी वर्णन करने योग्य था ॥ ७॥ तहां सूरप्रिय नाम के यक्ष का यक्षायतन (देवालय) था, वह बहुत पुराना था, एक बनखण्ड-बगीचे कर पैष्टित था, उम के मध्य आशोक वृक्ष था वह मुशोभित था, उस के नीचे पृथ्वी सिलापट्ट था ॥ ८॥ तहां द्वारका नगरी में कृष्ण नाम के वासुदेव राजा राज्य करते थे, वे महा।
प्रकाशक रानाबहादुर लाला सुखदेवसहस्यमी ज्यामसादजी.
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१
अष्टमांग-अंतगह दशांग सूत्र 18g
महता रायवण्णतो ॥ ९ ॥ तेणं तत्यसमुदविजयपामक्खिाणं दसहंदसाराण, बल. देवपामोक्रवाणं पंचण्हमहावीराणं, पाजणपामावखाणं अदृष्टानकमारकोडीणं, सांचपामेवाण, सट्रिए दवंत साहस्मीज, महापामोमगाणं गाएबलवरम साहसी, बीरसेणचामावरून एगवीसाए वीरसहरण, उमाणकामावरखा सोलसाहराय सहरसेणं, रुप्पिणिपामोखाणं सोलसण्यांदे पीसहरितणं, अनसणं पामोरखाणं अणेगाणंगणया साहस्सीणं. अण्णसिंच बहगं राईसर जव सत्थवाह प्पभित्तिए बारवत्तिए णयरीए अहभरहस्सयसमंतस्स आहेबच्चं जाव विहरई ॥१०॥
प्रथम-बगेका प्रथम अध्ययन-
अर्थ
ओं के उत्तम गुण युक्त वर्णन करने योग्य थे ॥९॥ उनके वहां-१ समुद्र विजय, २ अक्षोभ, ३स्तिजमित, ४ सागर, ५ हिमवन्त, ६ अचल, ७ धरन, ८ पूरन, . अभीचन्द्र और १० वामदेव या दशों ही
दसार, सर्व पुरुषों में साररूप थे. बलदेव प्रमुख पांच महावीर थे, प्रधुना प्रमुख अउट कोड (३॥ क्राड) कमार थे, मांब प्रमुख साठ हजार दुईन्त थे, महासन प्रमुख छप्पन हजार बलवन्त पुरस थे, वीरसेन प्रमुख इक्कीस हजार वीरों थे, उग्रसेन प्रमुख सोला हजार मुकट इन्ध देशाधिपति ] राजा भी थ, रुकमनी प्रमुख सोलह हजार रानीयों थी. अनंगतेना प्रमुख अंक हजार वैश्याओं थी, इन सिवाय और भी बहुत से सामान्य राजाओं, ईश्वरों, युवराजाओं, सार्थवादियों, यावर प्रभृतिक और द्वारका नगरी आधा भरतक्षेत्र
2018
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तत्थणं बारवतिए णयरीए अंधगवहिणामं राया परिवसई, महत्ताहिमवंत ॥" , तरवणं अंधगवहिरंगरण्णो धारिणीणामं देवीह त्था वण्णओ ॥ १२ ॥ तएणं सा धारिणीदेवी अण्णयाकयाइं तंसि तारिसयति सथाणिज्जसि एवं जहा महबलोए सुमिणं दसण, जम्म, बालत्तणं, कलाओय, जोव्वणं, पाणीगहणं, कणा, पामादभोगय, णवरं गोतम कुमारे णामे, अट्टण्हरायावर कणगाणं एगदिवसेणं पाणीमिण्हावेति, अट्ठउ
दाओ ॥ १३ ॥ तेणं कालेगं तेणं समएणं अरहा अरिट्ठनेमी आदिकर जाघ विहरत्ति मर्थका आधिपलिपना करते हुवे यावत् विचरते थे ॥ १० ॥ तहां द्वारका नगरी में अन्धकविष्णु नाम के
राम रहत ३ रे महा हिमवन्त पर्वत समान वर्णन योग्य थे ॥ ११ ॥ उन अन्धकविष्णु ग़जा के धारणी नाम की राणा थी वद भी वर्णन करने योग्य थी !॥ १२ ॥ वह धारणी राणी अन्यदा किसी वक्त पुण्यवन्त के शयन करने योग्य शैय्या में भूनी हइ सिंह का स्वप्न देखा. यों आगे का सब कथन भगवती सूत्र में महा बल कुमार का कहा नाही सरका , स्वप्न का, स्वपाठक को पूछने का, जन्म का, जन्मोत्सर का, बाल्यावस्था का, कलाशिक्षण का, यौवन अवस्था प्राप्त होका, पानी ग्रहण का, कन्या
की संख्या का, भोग भोगवने का सर कथन महावल कार जैसे कहदेनार में इतना विशेष—इन का 1- गौतम कुमार नाम दिया, आठ कन्या प्रधान राजाओं की माथ एक दिन पानी ग्रहण कराया, आठ २
१ अनुवादक-बालब्रह्मचारी पुगि श्री अयोलक ऋपिजी +
* प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वाला प्रसादजी
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+
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॥१४॥ चउविहादेवा आगता कण्हाविणिग्गते,॥१५॥ ततेणं तस्त गोतमस्स कुमारस्स जहामेहे तहा णिगत्ते, धम्म सोचा, णवरं देगापिया ! अम्मपियरो आपुच्छामि देवाणप्पियाणं अंतिए, एवं जहा मेहे जाव अप..सार, इरिया-मित्त जाव इणमेव मिाथे पावयणे पुरतोकाओ विहरति ॥ १६ ॥ ततणं से गोतमे अणगारे अन्नया बयाई अरहा अरिट्ठ नेमीस्स तहा रूवाणं.धेरागं अंतिए सामाइमारियाई, इकारस्स
अंगाइ अहिजइ २ त्ता, बहुचउत्थ जाव भावेमाणे विहरंति ॥ १७ ॥ ततेणं अरहा दात दायजे में दी ॥ १३ ॥ उस काल उस समय में अरिहंत अरिष्ट नेमीनाथ धर्म की आदि के करता
यावत् मोक्ष के अभिलाषी पूर्वानुपूर्व चलते यावत् द्वारका नगरी के बाहिर नन्दन वन उद्यान में तप । ह, संयम से आत्मा भावते हुवे विचरने लगे।॥ १४ ॥ चारों प्रकार के देवता, देवीओं और कृष्णवासुदेव आदि ल दर्शनार्थ आये ॥ १५ ॥ जब गौतम कुमार भी ज्ञाता सूत्र में कहे हुये येघकुगार के जैस आये धर्मकथा
सुनी, वैराग्य प्राप्त हुवा, माता पिता से चरचा की, दीक्षा औत्सव यावत् दीक्षा धारन कर अनगार
हवे. ईर्यासमिती यावत् निर्ग्रन्थ के प्रवचन को आगे करके विचरने लगे ॥ १६ ॥ तव गौतम अनगार [ अरिहंत अरिष्ट नेमीनाथ भगवान के शिष्य तथारूप स्थविर भगवंत के पास सामायिकादि इग्यारे अंग प8,38
पढकर बहुत उपवास बेले आदि तप करते अपनी आत्मा को भावते. विचरने लगे ॥ १७ ॥ तव अरिहंत ..
अष्टमांग-अंतगड दशांग सूत्र
प्रथम-गेका प्रथम अध्ययन O
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मुनि श्री अयोलक ऋषिजी 89
अरिटुनेमी अन्नयाकयाइ वारवती नगरी तो नंदणवणातो पडिनिक्खमइ २ ताबहिया जणवय विहारं विहरति ॥ १८ ॥ ततेणं से गोतमे अणगारे अन्नयकयाइ जेणेव अरह अरिटुनमी तेणेव उवागच्छइ २ त्ता, अरहा अरिद्वनेमी तिक्खूत्तो आयाहिणं पयाहिणं वदति तमंसति एवं वयासी-इच्छामिणं भंते ! तुभेही भन्भणुणायसमाणे मासियं भिक्खू पडिमं उवसं रज्जित्ताणं विहरित्तए, एवं जहा खंदए, तहा बारस्स भिक्खू पडियाआ फासेति ॥ गुगरयणंपि तबोकम्मं तहेव फासेति णिरवसेसं एवं जहा
खंदओ तडा चेतेति, तहा आपुच्छति, तहा थेरेहि कडाहिएहिं सद्धिं सितुजे दुरुहति अरिष्ट नेमीनाथ अन्यदा किसी वक्त द्वारका नगरी के नन्दनवन उद्यान से निकलकर बाहिर जनपद देश में विचरने लगे ॥ १८ ॥ तर गौतम अनगार अन्यदा किसी वक्त जहां अन्ति अरिष्टनेमी नाथ थे तहाँ आये आकर अहन्त अरिष्टतमी नाथजी को तीन वक्त हाथ जोड प्रदक्षिणावत फिराकर वंदना नमस्कार किया, वंदना नमस्कारकर यों कहने लगे अहो भगवन् ! आपकी आज्ञा होतो, में चाहा कि एक महीने की भिक्षुकी प्रतिमा अंगीकार कर विचरूं ?, यो जिस प्रकार भगवती सूत्र में खंधजी के अधिकार में कहा है उस ही प्रकार बारेही भिक्षुकी प्रतिमा की स्पर्शना की और गुनरत्न संवत्सर तपकी भी तैसे ही स्पर्शना की सर्व कथन जैसे खंदकजी तेके तपका कहा है सादी निर्विशेष कहना कहा है
प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेव महायजी ज्वालाप्रसादजी.
अर्थ
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१
8+
3 अष्टमांग अंतगड दशांग मूत्र +
मासियाए सलेहणाए बारस्स परिस्साइं परिथाओ जाव सिद्धे ॥ १९ ॥ एवं खलु ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं अट्ठमरस अंगस्स अंतगउदसाणं पढमस्स। वग्गस्स पढमस्स अज्झयणस्स अयमटे पप्णत्ते ॥ २० ॥ १ ॥ १ ॥ * एवं जहा गोतमो तहासेसा-अंधयविहिपिता, धारिणीमाता, समुद्दे, सागरे, गंभीरे, थितिमित्ते, अयले, कपिले, अक्खोभे, पसेणइ, विण्हए; एगामो, ॥ इति पढमो
वग्गो दसज्झयणं सम्मत्तं ॥ पढमो वग्गो सम्मत्तं ॥ १ ॥ + + + तैसे ही भगवंत को पूछकर कडाइये (मंथारे में सहायक ) स्थविरों के साथ शत्रुजय पर्वतपर चढकर
क महिने की सलेषनाकर बारह वर्ष पंयम पाल यावत् सिद्ध हवे ॥ १९ ॥ यों निश्चय हेजंबू! श्रमण भगवंतने अष्टमांग अंतकृत दशांग के प्रथम वर्ग के प्रथा अध्याय का यह अर्थ कहा ॥ २० ॥ इति प्रथमो
ध्याय ॥१॥ १ यों जिम प्रकार गौतकुमार का अधिकार कहा उस ही प्रकार शेप नहीं कुमरों के नव ge अध्याय कहना, ना ही के अन्धक विष्णु जी पिता, धारणा राणी माता और समुद्रकुगर, २ सागर, ३३
गंभीर ४ स्थिति मित, ५ अचल ६ कपिल, ७ अक्षाभ ८ प्रशेन जीत, और १ विष्णु यह नाम. इन सबका *एकसाही गमा जानना, सब बारा वर्ष संयम पाल शत्रुजय पर्वपर एक मांसकी सलेषना से सिद्ध हुवे ॥ इति.
प्रथम वर्ग के दश ही अध्याय समाप्त ॥ प्रथम वर्ग समाप्त ॥१॥
र
प्र यम वर्गका १-१० अध्ययन 4.29
+
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अर्थ
4 अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी
॥ द्वितीय वर्ग ॥
जति दोच्चरसवगस्स उक्खेवओ | तेणं कालेणं तेणं समएणं बारवतिनयरिए, विहिपत्ता, धारिणीमाता, ॥ अक्खोभ, सागर, खलु, समुद्द, । हिसवंते, अचलनामेय ॥ धरणे पूरणेय | अभिचंदे चेत्र अट्ठमए ॥ ॥ जहा पढमवग्गे तहा सव्वे अझयणा, गुणरयणं तवो कम्मं, सोलरसवासाइ परियाओ, सेतुजे मासीयाए संलेहणाए सिद्धा ॥ अझयणा सम्मत्तं ॥ २ ॥ ८ ॥ इतिविग्गो
+
+
यों निश्चय हे जंबू ! उस काल उस समय में द्वारका नामकी नगरी थी, अन्त्रक विष्णुजी पिता, धारणी माता, जिनके पुत्रों के नाम-१ अक्षोभ, २ सागर, ३ समुद्र विजय, ४ हिमवंत, ५ अचल, ६ धरण, ७ पूरण, और ८ अभिचंद यह अठोंही पुत्र इनका सर्व कथन जैसा प्रथम वर्ग में गौतम कुमार का कहा ? तैसाही कहदेना, इनोंने भी गुणरत्न संवत्सर तपकिया, सोलह वर्ष साधु की पर्याय का पालन किया, शत्रुजय पर्वत पर एक महीने की सलेपना करके सिद्धगति को प्राप्त हुवे || इति दूसरे वर्ग के आठ अध्याय समाप्त ॥ २ ॥ ८ ॥ इति दूसरा वर्ग समाप्तम् ॥ २ ॥
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ॐ प्रकाशक - राजा वहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी
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२
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* अवांग-अंतगड दशांग-मूत्र +4
॥ तृतीय-वर्ग। जति तच्चस्स उखवओ ॥ एवं खलु जंबू ! अट्टमस्स अंगरस्स तच्चस्स वग्गस्स तेरे अज्झयणा पण्णता तेजहा- अणीयसेण, अगंतसेणय; अजियसेण, अणिहयरिउ ॥
देवसेण, सतुलेण, सारणे, गए, सुमहे, दुमुहे ॥ कुवए, दारुए, अणाहिढे ॥१॥ } जइणं भंते ! समणेणं जाव सपत्तेणं अट्ठमस्स अंगस्स अंतगउदसाणं तच्चस्स वग्ग
स्स तेररस अज्झयणा पण्णत्ता, पढमस्सणं भंते ! अज्झयणस्स अंतगडदसाणं के है, अ8 पण्णत्ते ? ॥ २ ॥ एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं भदिलपुरे णामं
यदि तीसरा वर्ग का उक्षेप । यो निश्चय हे जम्बू ! आठवे अंग अंतकृत दशा के तीसरे वर्ग के तेरे अध्यायन कहे है, उनके नाम-१ अणियसेन कुमार का.२ अनन्तसेण कुमार का,३ अजितसेण कुमार का,४१
अनिहतरिपु,कुमार५देवसेन,कुमारशत्रुसेण, कुमार७ मारण कुमार ८गजमुकमाल, ९मुमुख,का१०दुमुख, काई है। *११कुवेर,१२दारुक, और १३अनादिठीसेन कुमार का॥२॥ यदि अहो भगवान! श्रमण भगवंत यावत् मुक्ति
पधारे उनोने अंत कृत दशांग के तीसरे वर्ग के तेरे अध्यायन कहे तो अहो भगवान उस में से प्रथम अध्यापन का क्या अर्थ कहा है? ॥२॥ यों निश्चय हे जम्बू: उस काल उस समय में भहिल परनामई
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तृतीय वर्गका प्रथम अध्ययन
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चालयमचारीमुनि श्री. अमोलक ऋषिजी +
* नयर होत्था वण्णा ॥ ३ ॥ तस्सणं भदिलपुर णयरस्स बहिया उत्तरपुरच्छिमि दिसिभाए सिरिवणे णाम उजाणे होत्था वण्णओ ॥ ४ ॥ जिससुणामं रायाहोता ॥ ५॥ तत्थणं भहिलपुरे नयरे नागनाम गाहावइ परिवसइ अढा जाव. अपरिभूए
॥ ६ ॥ तस्सणं नागस्स गाहवइस्स सुलसानामं. भारिया होत्था, सुकुमाला जाव ई सुरूवा ॥ ७ ॥ तस्सणं नागस्स गाहावइस्स पुत्ते सुलसाए भारियाए अत्तते अनि
यसेण नामे कुमार होत्था? सुकुमाल जाब सुरूव,पंचधाति परिक्खित्ते तंजहा-खीरधाइ का नगर वर्णन करने योग्य था ॥ ३ ॥ उस महिलपुर नगर के बाहिर ईशान कौन में श्रीवन नाम का उधान था वरण याग्य ॥ ४ ॥ यहां जित शत्रुनाम का राजा रान करता था ॥५॥. उस भहिल पुरनगर । में नाग नामक गाथापति रहता है, वह ऋद्धिवंत यावत् अपराभवितथा ॥ ६ ॥ उस नाग नामा गाथापति के सुलसा नाम की भारिया थी, वह शरीर की 'सकुमाल और सुरूपवतीथी ।। १ ।। उस नाग गाथापति, का पुत्र सुलसा का आत्मज अनिकसेन नाम का कुमार था वह सुकुमाल और सुरूप था, पांच धायकर परिवरा हुवा, उन के नामरक्षीर (दुधपिलाने वाली) धायमाता,२स्नान कराने वाली,३ सिनगार कराने वाली १४ गोदी में खिलाने वाली और बाहिर क्रीडा कराने वाली, इन पंचों धाइयों के परिवार से परिवरा उबावाइ सूत्र में कहा द्रढ प्रतिज्ञ कुमार के जैसा यावत् जैसे पर्वत की कंदरा में मालतीका बृक्ष चम्पाका वृक्ष
..प्रकाशक-समाबहदुर लाला सुरु
जी ज्वालाप्रसादजी
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जहादढप्पदणे, जाव गिरिकंदर माणेव चंगवस्पायवे सुहं सुहणं परिवद्रुते ॥ ८ ॥ .. तेणं तरस अणियसणकमारे सातिरंगा अवासजात्तं जाणित्ता अम्मापियरो कलाया• . रियाओ जाव भोग समत्ये जातेयाधि होत्था ॥ ९ ॥ ततेणं से अणियसेणकुमारे उमुक्कबालभावंजाणिता अम्मापिपरी सरीसयाणं जाव बत्तीसाए इब्भवरकणगाणं एगदिवसेणं पाणीगिण्हावेति ॥ १. ॥ ततणंसे गागंगाहावइ अणियसेणकुमारस्स इमे एयारूवं पिइदाणंदलयति-वत्तिसंहिरण्णकोडीओ जहा महाबलस्स जाव
उप्पियपासाथ फुटमाणे विहरति ॥१॥ तेणं कालेणं तेणं समयएणं अरहा मुख मुख में वृद्धि पाता है त्यों कुमर भी सुख सुख से वृद्धि पाता ॥ ८ ॥ तब वा अनिकसेन कुमार कुछ काधिक आठ वर्षका हुवा भोग भोगवने समर्थ बना ॥ ९ ॥ तब अनिकसेन कुमार के माता पिता अनिकसेन
कुमार को योवन वय प्राप्त हुवा जान अनिकसेन कुमार के जैसी वयवाली रूपवाली ईभपति शेठ (गजांत लक्ष्मी धारक)की आठकन्या एकही दिन पानीग्रहण कराया॥१॥ तब वह नाग गाथापति अनिकसेन कुमारको 4 इस प्रकार प्रतिदान देने लगा-वनीम क्रोड हिरण्य इत्यादि जैसे महाबल कुमार के दायचे का अधिकार
भगवती सूत्र में चला है उसही प्रकार यहां भी बत्तीत प्रकार के एक सो आठणो बोल का दायचादिया, 1 यावत् प्रसादों में मृदंग के सिर फूटते हुवे पंचन्द्रिय के मुख भोगवते विचरते हैं ॥ ११॥ उस काल उसमें
+ अष्टमांग-अंतगड दशांग सूत्र 4888
तृतीय-वर्गका प्रथम अध्ययन 4
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अरिटुनेमी जाव समोसढे सिरिवण उजाणे अहा जाब विहरति ॥ १२ ॥ परिसाणि. गया ॥ १३ ॥ ततेणं तस्स अणियसेण कुमारस्म जहा गोयमे तहा णवरं सामाइइयमाइयाई चउदरस पुन्वाइं अहिज्जदातस्स वीसवासाइं परियाई सेसं तहेव सेतुजेपव्वाए मासियाए संलहणाए जाव सिद्ध ॥ १४ ॥ एवं खलु जंबू ! समणणं ज.व संपत्तेणं अट्ठमस्स अंगरस अंतगडदसाणं तच्चस्स वग्गस्स पढमस्स अज्झयणस्स अयम? पण्णत्ते ॥ १५ ॥ एवं जहा अणियसेणं, एवं सेसावि अणंतसंण, अजियसेण, अणि
अर्थ
8 अनुवादक बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी
समय में अरिहंत अष्टि नेमीनाथ यावत् श्रीवन उद्यान में समवसरे, यथा उचित अवग्रह ग्रहण कर विचरने लगे ॥ १२ ॥ परिषदा आई ॥ १३ ॥ तब वह अनिकभेन कमार भी जिस प्रकार गौतम कुमार आया या उस ही प्रकार दर्शनार्थ आया, धर्म श्राण किया, दीक्षा धारण की, इतना विशेष इनोंने चौदह पूर्व का ज्ञान ग्रहण किया, बीस वर्ष संयमाला, और शेष आधिकार तैने ही यावत् शत्रुनय पति पर संथारा करके सिद्ध बुद्ध मुक्त हुवे मर्च दुःख का अन्न किया ॥ १४ ॥ यों निश्चय है. हे जम्बू ! श्रमण भगवंत श्री महावीर स्वामी मुक्ति पधारे उोंने तीसरे वर्ग के प्रथा अध्ययन का इस प्रकार का अर्थ कहा ॥१५॥ इनि प्रथम अध्ययन संपूर्ण ॥३॥१॥ जिस प्रकार अनिकसेन कुमार का अधिकार कहा, इस हीच प्रकार शेष अनंतसेन,भजितसेन, अहितारिपु, देवसेन और शत्रुसेन इन पांचों का अधिकार कहना, सब के
*प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदवसहायजा ज्वालाप्रसादजी
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++8 अष्टमांग-अंतगड दशांग सूत्र
हियरिउ, देवसेणे, सतुसेण. छे अज्झयणा एगगमो ॥ बत्तिसंतो दत्तो ॥वीसं वासाइ परियायतो, चउहस्स पुवाई भत्तुजेसिहा ॥ छ? मज्झयणा सस्मत्ता ॥ ३ ॥६॥ तेणं कालणं तेणं समएणं वारावतिए णयरिए जहा पदुमं, णवरं वसुदेव धारिणीदेवी, सीहसुमिणे, मारणे कुमारे, पणःसंतादातो, चउदरसपुव्वा, वीसवासा परियायतो॥ सेसं जहा गोतमस्स, जाव सेतुजेसिद्धे ॥ सत्तमज्झयणं सम्मत्तं ॥ ३ ॥ ७ ॥ *
जत्ति उक्खेवो अट्ठमस्स-एवं खलु जंब ! तणं कालेगं तेणं समएणं बारावतिए नाग गाथापति पिता, मुलमा माता, बत्तीस २ स्त्रयों, बत्तीम २ दानका दायचा, बीस वर्षकी दिक्षा यावत् है शत्रुजय पर सिद्ध बुद्ध हो मुक्ति गय ।। इनि तीसरे वर्ग का छठा अध्याय मंपूर्णम् ॥३॥ ६ ॥ उस
काल उस समय में द्वारका नाम की नगरी थी, और सब अधिकार प्रथम अध्ययन जैमा ही जानना, इनना विशेष-वासुदेव राजा पिता, धारणी देवी माता, हि का सप देखा, सारण नामक कुमार हुवा
पांच से कन्य के साथ एक दिन पानी ग्रहण कराया, पांच सो २ दात दी, शेष सब अधिकार गौतम 4 कुमार जैसा जानना. यावत् शत्रुनय पर्वत पर एक माहेने के संथारे से सिद्ध बुद्ध मुक्त हुवे ॥ इति सातवा/4
अध्ययन संपूर्णम् ॥ ३ ॥ ७॥ याद आठवा अध्धयन का उझेप. यों निश्चय, हे जम्बू ! उस काल उस समय द्वारका नाम की नगरी थी, इस का वर्णन जैसा प्रथम अध्ययन में कहा वैसा यहां भी जानना।।
तृतीय वर्गका ६-८ अध्ययन +
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णयरिए, जहा पढमो जाव अरहा अरिटणेमी समोसढे ॥१॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं अरहतोअरिट्ठनेमीस्स अंतेवासी छप्पिअणगारा भायरा सहोदराहोत्था, सरिस्सयासरित्तया, सरिन्वया, नीलुप्पल गवलगुलीय अयसिकुसुमणगासा, सिरिवछंकित्तवत्था, कुसुम कुंडला भद्दलया, नलकुमरंसमाणा ॥ २ ॥ ततेणं छ अणगारा जंधेव दिवसं मुण्डभवित्ता आगारातो अणगारियं पवइया, तंचेव दिवसं अरहं अरिटूनर्मि वंदति नमसति, वंदिता नमंसित्ता ए वयासी-इच्छामीणं भंते ! तुब्भेहि अभणु
णायासमाणा जान जीवाए छटु छटेणं अणिखिलेणं तयो कम्मेणं संजमेणं तवसा यावत् अरिहंत अरिष्ट नेपीनाथजी पधारे वहां तक कहदेना ॥१॥ उस काल उस समय में अरिहत} 2 अरिष्ट नेमीनाथजी के शिष्य समीप्य रहनेवाले छ अनगार साधु सगे भ्रात, एक ही उदर मे उत्पर
दिखने में एक से, शरीर की त्वचा, [ चपडी ] का रंग एकसा, सरीखी वय के धारक (देखाते हैं, 1.स्पल कमल भेगकाशंग गुली का रंग भलमी के फूल जैसा प्रकाशवान् शरीर के धारक, श्रीवच्छ स्वस्तिक
अंकित हृदय के धारक, फूल के पुट पांखडी के जाना मकोमल अंग के धारक, नल कुवेर-धनदत्त देव
समान देखाते थे ॥ २॥ छेही भनगार जिस दिन मुण्डित हवे थे. उस दिन अरिहंत अरिष्ठ नेमीनाथ 17को बंदना नमस्कार की, चंदना नमस्कार करके यों कहने लगे, अहो भगवन् ! हम चहाते हैं, जो
41 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी.
प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदव सहायजी वालाप्रसादजी.
रिश ने
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啜
nan
अर्थ
4 अांग-अंतगुड दशांग सूत्र
अप्पाणं भाव माणाविहिरए ? अहा सुहृदेवाणुप्पिया ! मापडिबंधंकरेह ॥ ३ ॥ तत्ते छगारा अरहा अरिट्ठनेमीणं अन्भणुणाया समाणा जाव जीवाए छटुं छट्टेणं जाव विहरति ॥ ४ ॥ तत्तणं ते छअणगारा अण्णयाकयाइ छट्ठखमणपारणयांस पढमाए पोरिसी सज्झायं करेति, जहा गोतमसामी जाव इच्छामिणं भंते ! छटुक्खमणस्स पारणाए तुम्नेहिं अब्भणुणाय समाणा तिहिं संघाडएहिं बारवति नगरीए
आपकी आज्ञा हो तो जावजीव पर्यन्त छठ २ (बले २ ) निरन्तर तप कर्म कर संयम तप कर अपनी आत्मा को भावते विचरे ? भगवन्तने कडा--जैने सुख होवे वैसे करो प्रतिबन्ध ( विलम्ब) मत करे ॥३॥ तक छेड़ी अनगार साधु अस्ति अरिष्ट नेमीनाथजी की आज्ञा से जावजीव पर्यन्त वेले २ तप कर्म कर आत्मा को भारत हुने विचरने लगे ॥ ४ ॥ तत्र वे छेही अनगार अन्यदा किसी वक्त छठखमन (बेले ) का पारा आया, उसदिन के प्रथम पहर में स्वाध्याय की, दूसरे पहरमें ध्यान किया, तीसरे पहर में मुहपति (पात्रादि की प्रतिलेखना की, जिन प्रकार गौतम स्वामीजी श्रमण भगवंत श्री महावीर स्वामीजी की आज्ञा ( ग्रहणकर गौचरी जानेका कथनचला है उसी प्रकार वे छही अनगार मी अरिहंत अरिष्टनेमीनाथ भगवंत की आज्ञा ग्रहण करते वोले कि अहो भगवान ! दो साधुका एकसंघाडा, ऐसे के सांधुके तीन संघांडेकर अलगर
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तृतीय वर्गका अष्टम अध्ययन
2.
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E
अर्थ
43 अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋरिजी
जात्र अडित ? अहासुहं ॥ ५ ॥ ततेणं छअणगारा अरहा अरिट्ठणेमीणा अब्भणु नायासमाना अहं अरिट्ठनेमी बंदति नमसंति, अरहा अरिगुणेमिस्स अंतियातो सहसंबवणातो पडिणिक्खमइ २ ता तिहिं संघाडिएहिं अतुरिए जात्र अडति ||६|| तत्थणं एवं संघाडए बारवत्तिए नयरीए उच्च नीय मज्झिमाइ कुलाई घरसमुद्दणस्स भिवखायरियाते अडमाणे वसुदेवस्तरन्ना देवतीए देवीए हिं अणुपविट्टे ॥ ७ ॥ तत्तणं सादेवत्तिए देवीए अणगारे एजमाणे पासंति पासईत्ता हट्ट जाव हियया, अरुणाओ अन्भुट्ठेइ२त्ता सत्तट्ठपदा अणुगच्छइ २त्ता तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करोति२त्ता कर भिक्षार्थ द्वार का नगरी में फिरें? तब भगवन्त ने कहा यथासुख ॥ ५ ॥ तत्र छडी अनगार अर्हन्त अरिष्ट प्रेमनाथजी की आज्ञा प्राप्त होत अर्हन्त अरिष्ट नेमीनाथ को वंदना नमस्कार किया अर्हन्त अरिष्टनेमीनाथ भगवान के पास सह श्रवन उध्यान से निकले निकलकर, ती संघाडे बनाकर चपलता रहित समाधी सहित द्वारका नगरी में भिक्षार्थ फिनलगे || ६ || तब उन तीन मंघाडे में एक संघ द्वारका नगरी के ऊचक्षत्रियादि नीच भिक्षूकष्टतीयाले मध्यय वाणिकादि के कुलों घरों में परिभ्रमण करते वासुदेव राजाकी (देवकी राणी के घर में प्रवेश किया ॥ ७ ॥ तत्र देवकी रानीने उन साधु को अपने इधर आते हुये देख देखकर हृष्ट तुष्ट हृदय आनंदितनो आसन से खडी हुई, सात आप उन के सन्मुख गई,
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● प्रकाशक- राजाबहादुर लाला सुखदेवसहाय जी ज्वालाप्रसादजी *
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वंदति नमसइ २त्ता जेणेव भत्तगघरए तेणेव उवागच्छइ रत्ता सीहकिसरणं मोदगाणं थालंभरेइ २त्ता तेअणगारे पडिलामति २त्ता वंदति नमसति २त्ता पविसज्जेति ॥८॥ तदाणं तरचणं दोच्चे संघडए बारवत्तिए नगरीए उच्च जाव पडिविसंजेत्ति॥९॥ तदाणं तरंचणं तच्चेसंघाडे बारवतिनगरीए उच्चनीय जाव पडिल भत्ति २ त्ता एवं वयासी. किण्हं देवाणुप्पिया!किप्हवासुदेवस्स इमीसे वारवतीए नयरीए बारस्स जोयण आयामें
अष्टमांग-अंतगड दशांग सूत्र
जाकर तीन वक्त घुटने जमीन को लगाकर हाथ जोड प्रदक्षिणावर्त फिराकर वंदना नपस्कार की, वंदना नमस्कार करके जहां भोजन गृहथा तहां आई, आकर सिंहकेमरी मोदक (ला) याल, भरी, थाल भरकर
उन अनगार को प्रतिला-बेहराये, फिर बंदन नमस्कार कर पहोंचाय ॥ ८॥ उा के गये बाद थोडी ही कदिर के अन्तर से इन में का दूसरा दो सा का संघाड़ा द्वारका नगरी में फिरता हुश, वह भी वासुत्रजी
की देवकी रानी के घर में आय, उन को आते देख देवकी विसमयपाई कि यह साधु वही हैं की अन्य ? उन को भी पूर्वोक्त प्रकार बंदना नमस्कार कर सिंहकेशरी मादक प्रतिलाभ का पहोंचाये ॥ ९ ॥ उन
के गयेबाद उन्ही में का तीसरा दो साधु का संघाडा भी द्वारका नगरी में भीक्षार्थ परिभ्रमण करता | वासुदेवजी की रानी देवकी के घर में आया, उन को देख देवकी आश्चार्य पाई. यह दोनों साधु
ततीय-वर्गका अष्टम अध्ययन 468.7
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48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी
जावपञ्चक्खंदेव लोकभूताए समणाणिग्गंधाणं उच्चनीयं जाव अडमाणा भत्तपाणं नोलभत्ति, तओणं ताइचेवकुलाई भत्तपाणा भुजो२अणुपविसति? ॥१०॥ततेणं ते अणगारा देवइदेवीए एवं वायासी-नो खलु देवाणुप्पिया!कण्हवासुदेवस्स इभीसे बारवतिए णयरीए जाव देवलोगभूतोए समणाणं णिग्गंथाणं उच्चणीय जाव अडमाणा भत्तपाणे नो लब्भइ ।नो चेत्र णंताई चेवकुलाइंदोचंदि तचंपि भत्तपाणीए अणुपविसंति॥११॥ एवं खलु देवाणुप्पिया! अहं
भदिलपुर नयरे णागस्स गाहावइस्सपुत्ता सुलसाएभारियाएअत्तया, छभायरो सही. तीसरी वक्त मेरे यहां पधारे इस का क्या कारन. तद्यपी दानान्तर निवृति केलिये उन को पूर्वोक्त प्रकार मेही वंदना नमस्कारकर कर थालभर केशरियों मोदक प्रतिलाभे प्रतिलाभकर हाथजोडकर यों कहने लगी क्या अहो देवानुप्रिया! कृष्णासुदेव की द्वारका नगरी वारा योजर लम्पी नवयोजा चौडी यावत् प्रत्यक्ष देवलोक जैसी इस में श्रमण निर्ग्रन्थ को ऊंच नीच मध्यय कुनों में परिभ्रमण करते आहार पानी की पानी नहीं होती है क्यों कि जिम के लिये सधु को उस [प्रथम प्रवेश किये] घर में बारम्बार प्रवेश करना पड़े ? ॥१०॥ तब वे अनगार देवकी देवीका उक्त कथन श्रवणकर मतलब समझे और कहने लगे कि हे देवाणुप्पिया ! कृष्णासुदेव की द्वारका नगरी बारा योजन की लम्बी यावत् प्रत्यक्ष देवलोक जैसी इस में श्रमण निर्ग्रन्थ को परिभ्रमण करते आहार पानी नहीं मिले,
प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादजी
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48 अष्टमांग अंतगड दशांग सूत्र+488+
दरा सरिस्सया जाव नलकूवर समाणा, अरहओ अरिट्रनेमीस्स अंतिए धम्मं सोचा निसमं संसार भउविग्गा भीयाजम्मणमरणाणं मुंडे जाव पवइत्ता ॥१२॥ ततेणं अम्हं जं चेवदिवसं पवइए तंचेवदिसं अरहा अरिट्ठनेमी वंदामो णमंसामो इमएतारूवं अभिग्गहं उगिण्हामो-इच्छामोणं भंते ! तुब्भेहि अन्भणुणाया समाणा जाव अहा... सह॥१३॥ततेणं अम्हे अरहंत अब्भणुणायसमाणे जाव जीवाए छटुंछट्टेणं जाव विह..
रामो ॥ तं अज छ? खमग पारणयंसी पढमाएपोरिसीए सज्झायं जाव अडमाणे तवगिहं. ऐमा नहीं है. और हमने प्रथम प्रवेश किये हुवे घर में दो तीन वक्त आहार पानी के लिये प्रवेश भी किया नहीं है ॥ ११ ॥ परंतु यो निश्चय है. हे देवानुप्रिय ! हम भद्दिल पुर नगर के रहवासी नाग नामक गाथापति के पुत्र, सुलसा भारिया के आत्मज छ भाइ एक उदर के. उत्पन्न हुवे यावत् नल कुबेर समान अरिहंत अरिष्ट नमीजी के पास धर्म श्रवण कर अवधार कर संसार से उद्वेग पाये जन्ममृत्यु के में डर मे डरकर मुण्डित हुवे यावत् दीक्षा ली ॥ १२॥ तब हमने जिम दिन दीक्षा धारन की उस ही दिन अरिहंत अरिष्ट नेमीनाथजी को वंदना नमस्कार कर इस प्रकार अभिग्रह धारन किया-हे भगवन् ! हम * चाहाते हैं. जो आपकी आज्ञा हो तो जावजीव पर्या बेले २ तप निरन्तर करना, तब भगवंतने कहा यथामुख करो ॥ १३ ॥ तब से इम भगवन्त की आज्ञा प्राप्त कर बले २ पारना करते हुवे विचरने ।
तृतीय वर्गका अष्टम अध्ययन *
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सूत्र
48 अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी
अप्पा ॥ १४ ॥ तं णो खलु देवाणुपिया ! तं चेवणं अम्हे अम्हे अण्णे, देवति देवीए एवं वदंति वदत्तित्ता जामेवादसं पाउब्भूया तामेवदिसं पडिगया ॥ १५॥ तणं ती देवइए देवीए अयमंत्र रूवं अज्झत्थिए जब समुप्पणे एवं खलु अहं पोलासपुरेणयरे अतिमुत्तिणं कुमारसमणेणं बालतणे वागरिया, तुम्हे देवाणुप्पि ! अट्ठ पुत्ते पाइपास सरिस्सए जाव णलकुवर समाणे नाचवणं तं भारहेवासे अणाओवि अमयाओ सारिस्सए पुत्ते पयाइरसति, तेननिच्छा ॥ इमण पच्चक्खमेत्र दिस्सति खमवेला का पारने में प्रथम महर में स्वध्यायकर खात् भगवन्तकी आज्ञाले हमारे छेसाधु के तीन संघांड कर द्वारका नगरी में अलग २ फिर हुने अलग २ तीनों घडे तेरे घर में आगये ॥ १४ ॥ इमलिये निश्चय में हे देवानुमिया ! पहिले आये वे हम नहीं तो दूसरे हैं यो देवकी देवी से कहकर जिस दिशा से आये थे उन ही दिशा पीछे गये || १६ || तब उन देवकी देवोको इस प्रकार अध्यवसाय उत्पन्न हुआ-यों विश्वय मुझे पोलासपुर में अतिसूक्त कार साधु वचन वन में कहा कि हे देवीतू आठ पुत्र आएका यावत् नलकुबर समान होंगे, तैसे भरत
क्षेत्र में अन्य कोई भी माता पुत्र को प्रवने वाली नहीं हाथी, ऐसा जो अतिमुक्त कुमार श्रमणने कहा था वह वचन मिथ्या हुए, क्यों कि यह प्रत्यक्ष मुझे देखाने हैं भरत क्षेत्र में अन्य माता भी निश्चय एक सरी
अर्थ लगे, आज
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प्रकाशक राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी
२२
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अष्टमांग-अंतगड दशांग सूत्र
भारदेव से अणओवि अमयाओवि खलु सरिस्सए जाव पुत्ते पयाताओ ॥ १६ ॥ तं गच्छागिणं अरहं . अरटुनेमी वंदामि नमंसामी इमंचणं एतारूव वागरण पुच्छिसामित्तिक, एवं संप्पेहेति २त्ता कोडुवीय पुरिमे सद्दावेइ२त्ता एवं वयासीलहुकरण जणपवरं जाव उववेइति ॥ जहाण देवदा जाव पज्जुवासति ॥ ११ ॥ तएणं अरहा आरिट्टनेमि देवई देवी एवं क्यासी-सेणणं तवदेवइदेवी ! इमेय छअणगारे
पासित्ता अयं अज्झथिए जाव समुप्पत्ते-एवं खलु अहं पोलासपुरनगरे अतिमुत्तेणं से या मरे कृष्ण केही जैसे पुत्र जनने वाली है ॥१६॥ इसलिये इस संशय की निवृति करने अब जावू में अहन्त अरिष्टनेमोनाथ को वंदना नमस्कारकर यह इसप्रकारका प्रश्न पूलूंगी एमा विचार किया ऐसा विचारकर कुटम्बिक पुरुष को बोयाला, दोलाकर यो कहनेलगी शीघ्रगति बालारथ प्रधान लायो । उन पुरुष ने शीघ्रगति वाला रथ तैयार कर लाकर खडा किया, जिस में देवकीदेवी आरूड होकर जिसमें
भगवती मेंकही हदेवनंदा ब्रह्मणी भगवंत के दर्शन करने आईथी. उसही प्रकार देवकी देवी भी श्री नेमनाथ भगवान के दर्शन करने आई यावत् मेवा भक्ति करनेलगी ॥१७॥ तब अरिष्टनमीनाथ * भगवान् देवकी देवी से यों कहने लगे यों निश्चय हे देवकी देवी ! इन छ साधुओं को देखकर तुझेः इस% प्रकार अध्यवसाय यावत् उत्तम हुवा, यों निश्चय मुझे पोलासपुर नगर में अति मुक्ति कुमार श्रमणने कहा
48844 तृतीय-नर्गका अष्टम अध्ययन
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सत्रा
handarmirmananam
[ .. तंचव जाव.णिग्मच्छित्ता, जेणेव ममं अंतिए तेणेव हृवमागया, सेणणं देवइ अढे
समढे ? हंता अत्थि ॥ १८ ॥ एवं खलु देवइंदेवि ! तेणं कालेणं तेणं समएण . १. भद्दिलपुरेणगरे नागेनाम गाहावई परिवसइ अड्डे ॥ १९ ॥ तस्सणं नागस्स
गाहवइस्स सूलसानामा भारियाहोत्था ॥ २० ॥ तएणं सुलसा गहावइ बालतणे चेव निमित्तएणं वागरित्ता, एसणं दारिया णिरया भविस्मति ॥ २१ ॥ तत्तेणं सासुलसा बालप्पभित्ति चव हरणिगममिदेके भत्तियाविहोत्था, हरिणे गमेसिस्स
पडिमं करेति २ कल्लाकालण्हाय जाव पायच्छित्ता, उलपड साडया महरिहं पुष्फचणं था वैसा ही सब कहा, इस सन्देह की निवृति करने यहां आइ है,हे देवकी यह अर्थ समर्थ है सच्चा है क्या? देव की बोली-हां भगवन् ! सच्चा है ॥१८॥ यों निश्चय हे देवकीदेवी !-उन काल. उस समय में भदिलपुर
नगर में नागनामेगाथा पति रहताथा वह ऋद्धिवंत यावत् अपरा भक्तिथा ॥१९॥ उस नाग गाथापति की 1. मुलसानामे भरियाथी ॥ २० ॥ तय उन मुलसा गृहपतनी को बाल्यावस्थामेही नेमितिको कहाथा कि-तेरे
बचे मरे होंगे ॥२१॥ तब वह सुला बच्चन यही पुत्रार्थ हिरण गोषी देवकी भक्ति करनेवाली बनी हिरण
गमेषी देव की प्रतिमा बनाइ, प्रतिमा बनाकर सदैव वक्तो वक्त स्नानकर शुद्धहो बाले वस्त्र से महामुल्यवाले 1+पुष्पों से उस प्रतिमा की अर्चना पूजना करती, कर के घुग्ने जमीन को लगाकर प्रनाम को नमस्कार करती
' अनुवादक-बाल ब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी
अकाशक-राजाबहादर लाला मुखदवमहायजी घालाप्रमादजी
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११. अष्टमांग-अंतगड दशांग सूच4888
करेइ २ ता जाणु पायपडिया पणार्म करेइ २ ता ततोपच्छा आहारेतिवा निहातिवा वरनइव ॥ २२ ॥ तत्तेणंतीसे सुलसाएगाहावइणी भत्तिवहुमाणा सुस्सुसाए हरिणगमेसीदेवे आराहिएयाति होत्था ॥ २३ ॥ तसेणं से हरिणगमेसिदेवे सुलसाए गाहावईणीए अणुकंपणट्टयाए सुलसागाहावइणी तुम्हंचणं दोनिवि समामेव
सगब्भयाकरेइ ॥ २४ ॥ ततेणं तुब्भिदोन्नि समामेवं गम्भि गिण्ह २ चा, समामेव 3 गम्भं परिवहह, समामेव दारए पयायह ॥ २५ ॥ ततेणं सासुलसा गाहावइणी
वेणहायमावणं दारते. पयात्ति ॥२६॥ ततेणं से हरिणगमेसीदेवा सुलसाएगाहावइणीए कर के तब फिर आहार, निहार इत्यादिकार्य करतीथी ॥ २२ ॥ तब वह सुलसा गृहपतीनी भक्तिभाव से बहुतमान्य से सुश्रुषायुक्त हरिणगमेषी देव को आराधनेवाली हुई ॥ २३ ॥ तब वह हरिण गपेषी देव सुलसा गृहपतिनी की अनुकम्पा के लिये हे देवकी! द और सुलसा दोनों साथ ही गर्भ धारन करने लगी [ ऐसा जाना ) ॥ २४ ॥ तब तुम दोनों साथ ही गर्भ ग्रहण कीया, ग्रहण कर साथ ही गर्भ की प्रतिपा-3 लना करती हुई, साथ ही बालकों को जन्म देने लगी ॥ २५ ॥ उ- वक्त वह मुलसा मृह पत्नी, मृत्युक (मरे हुवे) बच्चे को जन्म देने लगी ॥ २६ ॥ तब हरिण गमेषी देव सुलसा गृहपतिनी की अनुकम्पा के लिये तेरे बालक को कर संपुट (दोनों हाथों के बीच) में ग्रहण कर तेरे पास स्थापन करे और उसही है ।
18438+ तृतीय वर्गका अष्टप अध्ययन
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अर्थ
अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी
अकंपणा, विहियमावणेहारम् करयलसेपुड गिन्हइ २ ता तव अंतियं साहरित, वे अंत साहरित्ता ॥ २७ ॥ तं समयं चणं तुम्हेपि नवहं मासाणं सुकुमालं दारए पसवसि जेवियणं देवाप्पियाणं, तव पुत्ता तेविय तत्र अंतियातो करयल पुढेगिण्हइ २ ता सुलसाए गाहाबइणीए अंतिए साहरति तंचेवणं देवतिए ले तव पुत्ता, णो चेत्रणं सुलाए गाहाबइणी पुत्ता ! ॥ २८ ॥ तसेणं सा देवदेवी अरहओ अरिनेमिए अंतिए एमढं सोच्चा निसम्म हट्टतुट्ठा जाब हियया, अरहो अरिनेमि वदति णमंसंति वंदित्ता नमसित्ता जेणेव ते छ अणगारा तेणेव उवागच्छइ २ सा ते छप्पिय अणगारा वंदति णमसंति, आगयपण्हता, पफूलयलोयणा, (वक्त नवमहीने प्रतिपूर्ण हुवे तू सुकुमाल बच्चों का जन्म देती तब तेरे बच्चे को संहारनकर करसंपुट में ग्रहण कर सुलेसा के पास स्थापन करें || २७ || हे देवकी ! इसलिये निश्चय से वे छ अनगार तेरे पुत्र हैं परंतु सुलसा के पुत्र नहीं है ॥ २८ ॥ तब वह देवकी देवी अरिहंत अरिष्ट नेमीनाथ भगवान { के पास उक्त अर्थ श्रवण करके अवधार कर हृष्ट तुष्ट हुइ यावत् हृदय में विक्सायमान हुई अरिहंत अरिष्ट नेमीनाथ को वंदना नमस्कार किया, वंदना नमस्कार करके जहां वे छेही अनगार थे तहां आई, उन छेडी (अनगारको भी वंदना नमस्कार किया, उसवक्त देवकीका इन छेही साधुओं पर पुत्र स्नेह उमटनेसे स्तनों में
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प्रकाशक राजबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी *
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अष्टमांम अंतमड दशांग सूत्र 824887
कचुयपरिक्खित्तीया, दरित्तबलिय बाहा, धाराहय कंदवपुप्फगंपिव समुस्सियरोमकूवा, ते प्पि अणगारा अगमिस्सए दिट्ठिए, पिहमाणी२ सुचिरं निरक्खंति २ वदंति२ त्ता नमंसइ २त्ता, जेणेव अरहा अरिठनेमी तेणेव उवागम्छइ २ सा अरहं अरिनेमि तिक्खूत्तो आयाहीणं पायाहीणं करेइ२ त्ता वंदइ णमंसइवंदित्ता णमंसित्ता तमेव धम्मियं जाण दुरुहइ२त्ता जेणेव वारवतिए णयरीए तेणेव उवागए, बारावतिणयरीए अणुपविसंति २त्ता जेणेव सएगिहे जेणेव बहिरिया उवट्ठाणसाला तेणेव उवागच्छइ २ त्ता धम्मित्ताओ
जागपवराओ पच्चोरुहइ २ सा जेणेव सोवासपरते जेणेव सए सयाणजे तेणेव उवादूध भरागया, नेत्रों प्रफुल्लित विक्सायमान हुवे कंचुकी(चोली) तंग हुइ, वाह के बलिये (न्डीयों) भी तंग हुवे, मेघ की धारा से सिंचन किया कदम्ब वृक्ष के फूल के समान विकसित हुइ, रोमांकुर खडे हुवे, उन छही अनगार को अन्मिप (मेषोनमेष) दृष्टो से देखती हुइ २ बंदना नमस्कार कर जहां अरिहंत अरिष्ट नेमीनाथ
थे तहां आइ, आकर अरिहंत अरिष्ठ नेमीनाथ को तीन वक्त घुटने जमीन को लगा हाथ जोड प्रदक्षिणावर्त % फिरकर वंदना नमस्कार करके उसही धार्मिक स्थपर स्वार होकर जहां द्वारका नगरी है तहां आइ, द्वारका ।
में आकर जहाँ बाहिर की उपस्थानशाला तहां आइ. आकर उपस्थानशाला में धार्मिक स्थ से नीचे उतरी
तृतीय वर्म का अष्टम अध्यायन 48.83
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+ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक क्रांपनी
गच्छइ २ सा सयं संयणिजसि निसियाति ॥ २९ । ततणं तीसे देवताए देवीए अयं अज्झत्थिए ४ समुप्पणे-एवं खलु अहं सरीस्सए जाव णलकुवरसमाणा सत्त पुत्ते पथाती नो चेवणं मए एगस्सवि बालत्तणए सुमुन्भते, एसवियणं कण्हेवासुदेवो छण्हं २ मासाणं मम अतियं पाय वादत्त हव्वमागच्छइ ॥ २० ॥ ते धणाओणं ताओ अम्मयाओ ४ जासिमाणे णियगकुत्थिसंभूयाई थणधलुगाई माहुरसमुला वयाई मम्मणयजं विपयाति, थणमूलकक्खदेसभागं अंतिसरमाणाति, मुद्वयाति
पुणांय कोमलकमलोवमेहिं हत्थेहिं गिण्हेति २ सा,उछांगनिवेसयाई, दितिसमूलावते उतरकर जहां सायं का घर जहां स्वयं की शैय्या तहां आई, आकर शैय्या में बैठी ॥ २९ ॥ सब उस देवकी देवी को इस प्रकार का अध्यवसाय यावत् उत्पन्न हुवा. यों निश्चय मैंने एक सरीखे यावत् नलकुमार समान सात पुत्र प्रस्रवे परंतु निश्चय मैंने एक भी बालक को छोटेग्ने में प्राप्त नहीं किया, यह एक कृष्ण वासुदेव भी छे २ महीने में मेरे पास पांव वंदना करने को शीघ्र आता है ॥ ३० ॥ इसलिये धन्य है. उस माता को वही कृतपुणी सुलक्षणी है, जो इस प्रकार अपनी कूक्षी से उत्पन्न हुवे बालक को स्तन पान कराती है-दूध पिलाती है, मधुर मिष्ट वचन बोलाती है. तोतली बोली से बोलाती है, वाहकाक्षी के देशविभाग में स्तन से दवाती है, पुनः कोपल कर तल इस्त्र में ग्रहण करती है, हाथ पकड के गोद में
• प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी
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..+ अमांग अंतगड दशांग मन 438+8+
महुरेपुणेपुणे मंजुलप्पणित्ते ॥ ३१ ॥ अहणं अधणा अपुणा अक्तपुणा एतोएक तरमवि नपत्ता ओहय जाव झियायत्ति ॥ ३२ ॥ इमंचणं कण्हेवासदेव हाति जाव विभूसिते देवइदेवीए पायवंदए हव्वमागच्छति ॥३३॥ततेणं से कण्हवासुदेवे देवती । देवीं पासति उहत्ता जाव पाइत्ता देवतीदेवीए पायगहणं करेइ २त्ता देवतिदेवि एवं क्यासी अण्णयाणं अम्मो!तुब्भेममं पासित्ता हट जाव भवह,किस्सं अम्मो! अज तुब्भे उहता जाव झियायहः॥ ३४॥ततेणं स. वतिदेवी कण्ह वासुदेवं एयं वयासी-एवं खलु अहंपुत्ता सरिस्सए
जाव समणे सत्तपुत्ते पयायां,नो चेवणं मए एगस्सवि बालतणे अणूभूते, तुम्हपियणं पुत्ता ! बैठाती है, शरल शब्द से बोलाती है,बारम्बर मिष्ट वचन कर बोलाती है ॥३२॥ मैं अधन्य हूं, अपुण्य हूँ, अकृत्यपुण्य हूं क्योंकि सात बालाकोममे एक भी बालकको घचपनमें प्राप्त नहीं करसकी, इस प्रकार आर्तध्यान
ध्यातीहुई विचरने लगी॥३२॥इधर उस वक्त कृष्ण वासुदेवने स्नान किया यावत् विभूपित हुवे. देवकी देवाई *क पाय वंदन करने शीघ्र आये ॥३॥ तब उन कृष्ण वासुदेवने देवकी देवी को चिन्ताग्रस्त देखी. आकर
देवकी के पात्र ग्रहण किये, पांव ग्रहण कर देवकी देवी से इस प्रकार कहने लगे-अहो अम्मा ! मैं
अन्यदा तेरे पास आता था तब नो तू मुझे देखकर प्रसन्न होती थी यावत् किस कारन से? अहो अम्मा Vान तुम चिन्तग्रस्त बनी है ॥ ३४॥ तब वह देवकी देवी कृष्ण वासुदेव से यो सने लगी-यो निश्करे ।
orammarma
तृतीय-वर्गका अष्टम अध्ययन
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श्री अमोलक ऋषिजी -
अर्थ
तेणछाहं २ मासाणं ममअंतिय पायवंदए हवमागच्छसि ॥ तंधण्णआणतन्त! अम्मयानो जाव झियामि ॥ ३५ ॥ तंसे कण्हवासुदेवे देवतिदेवी एवं बयासी-माणं तुम्हे अम्मो ! उहए जार झीयायह ; अहणं तहावतिस्स जहाणं ममसहोदरए कणियस्स भाउए भविस्सातत्ति कटु, देवतिदेवी ताहिं इट्टाहि वगुहिं समासासेत्ति २ त्ता, तत्तो
पडिनिक्खमइ २ त्ता जेणेव पोसहसाला तेणेव उवागच्छइ २ जहा अभउ णवरं है हरिणगमेसिस्स अट्टमभत्तं पगिण्हत्ति जाव अंजलिकटु एवं बयासी-इज्छामिणं देवा. हे पुत्र ! मैंने एक सरीखे-या तेरे जैसे यावत् सात पुत्र प्रस्रो परंतु निश्चय मैने एक भी वालक का अनुभव लिया नहीं, हे पुत्र ! सू भी.छे २ महीने में मेरे पास पांव वंदन करने आता है, इसलिये धन्य है। उस माता को जो अपने कूक्षी से उत्पन्न हुवे पुत्र को स्तन का दूध पिलाती है यावत् इपलिये मैं चिन्ता ग्रस्त बनी हूँ ॥ ३५॥ तब वे कृष्ण वासदेव देवकीदेवी से इस प्रकार कहने लग-अहो अम्मा ! तुम में चिन्ता मत करो यावत् आर्तध्यान मत ध्यावो. मैं तेरेलिये जिम प्रकार मेरा सहोदर कनिष्ट (छोटा ) भाई , होगा वैसाही करूंगा,ऐसा कहकर देवकी देवीको उस इष्टकारी प्रियकारी शब्दकर सतोषी, संतोषकर वहांसे ईनिकले,निकलकर जहां पौषधशाला, थी वहां आये,आकर जिस प्रकार ज्ञाता मत्रमें कहे प्रमाने अभय कुमारने देवता का आराधन कियाथा उस प्रकार इनने भी हरिणगमेषी देवको अष्टम भक्त(तेला)का तपकर याद करते हुवे रहे.
प्रकाशक-सजाबहदुर लाला सुखदेवमहायजी मालाप्रसादजी.
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888+मांग- अंतगड दशांग सूत्र 4
पिया ! सहोदर कणीयसंभाउयं विहिणं ॥ ३६ ॥ ततेणं हरिणगमेसीदेवा कह वासुदेवं एवं वयासी होहितीणं देवाणुप्पिया । तवदेवलोएचए सहोदरे कणियसभाउ; सेणं उमुक बालभावे जोवणगमणुपत्ते अरहतो अरिनेमिस्स अंतिते मुंडे जाव पव्वइस्सति कण्हवासुदेवं दोच्चंपि तच्चंपि एवं वयासी, जामेवदिसं पाउन्भूया तामेवदिसं पडिगया ॥ ३७ ॥ तत्तेणं से कण्हवासुदेवे पोसहसालातो पडिणिक्खमइ २ ता जेणेव देवतिदेवि तेणेव उवागच्छइ २ त्ता, देवतिदेवीए पायग्गहणं करेइ २ ता एवं - होहित अमो ! ममसहोदरे कणीयसेभाउत्तिकट्टु देवतीदेवीए इट्ठा हि जात्र देवता आया तब कृष्ण बोले- अहो देवानुप्रिया ! में चहाता हूं मेरे छोटा भाई || ३६ || तब हरिण गमेषीदेव { कृष्ण वासुदेव से यों बोला- हे देवानुप्रिया ! तुमारे देवलोक से चवकर सहोदर छोटा भाइ होवेगा परन्तु वह बाल भाव से मुक्त होकर योवन अवस्था प्राप्त होते अर्हन्त अरिष्टनेभी भगवान के पास मुण्डित होवेगा { यावत् दीक्षालेवेगा, कृष्ण वासुदेव को दो वक्त तीन वक्त यों कहकर, जिस दिशा से आया था उस दिशा | पीछा गया ॥ ३७ ॥ तब कृष्ण वासुदेव पौषध शाला से निकले, निकलकर जहां देवकी देवीथी तहा आये आकर देवकी देवीके पांच ग्रहण किये, पांच ग्रहणकर यों बोला हे माता मेरा सहोद छोटा भाइ होवेगा,
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44- तृतीय वर्गका अष्टम अध्ययन
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अर्थ
48 अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी
तस्स
असासेति २ ता जामेव दिसं पाउब्भूए तामेव दिसं पडिगए ॥ ३८ ॥ ततेणं देवतिदेवी अणया कयाई तंसितारिसयंसि जाव सीहसुमिणं पासित्ताणं पडिबुद्धा, जाब हट्ट तुट्ठ जाव हियया, तंगन्भं सुहंसुहेणं परिवहति ॥ २९ ॥ ततेणं से देवतीदेवी नवमाणं जाव सुमणकुसुमरत्त, बंधुजीवतलखारस सरिसे, परिजात तरुण दिवाकरसमप्पभि, मव्वनयणकतं सुकुमालं जाव सुरूवं गयतालुयसमाणं दारयपयया ॥ ४० ॥ जमणं जहा मेहकुमारे, जाब जम्हणं अम्हंइमेदार ते गयतालूयसमा
{ ऐसाकर देवकी देवी को इष्टकारी प्रियकारी वचनकर संतोषी, संतोषकर जिस दिशा से आये थे उसदिशा पीछे गये || ३८ ॥ तब वह देवकी को अन्यदा किसी वक्त पुन्यवन्त के शयन करने योग्य शैया में मूते हुवे सिंहका स्वप्न देखा, देखकर जागृत हुई यावत् हर्ष संतोष पाई हृदय विक्लायमान हुआ, उस गर्भ को सुखे २ पालती हुई विचरने लगी ॥ ३९ ॥ तथ वह देवकी देवी - नवमहीने यावत् प्रतिपूर्ण हुवे सुमन के फूल समान रक्त, बंधुजीव ( वर्षाद में उत्पन्न होता है ) वैसा रक्त, लाख के रस जैसा रक्त, परवे (कबूतर ) की आंखों जैसा रक्त, उदयपाते सूर्य जैसा प्रभावाला, सर्वकी आंखों को प्रियकारी, सुकुमार कौमलाङ्गी यावत् {सुरूप हास्ति के तालु जैसा बालक को जन्मादिया ॥ ४० ॥ जन्मोत्सव वगैर जैसा ज्ञाता सूत्र में मेघकुमार का कहा तैसा कहना यावत् हमारा यह बालक गज के तालुभे जैसा रक्त और सुकुमाल है इसलिये हमारे इस
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* प्रकाशक - राजा बहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वाला प्रसादजी *
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48+
4.480 अष्टमांग-अंतगर दशांग सूत्र
तंहोउणं अम्हंएयस्स दारयस्स नामाधे गयसुकुमाले २ ॥४१॥ तत्तणं तस्स दारयस्त अम्मापियरो नामकयं गयसुकुमालोत्ति, सेसं जहामेहे, जाव अलंभोग समत्थे जातेयाविहोत्था ॥ ४२ ॥ तएणं बारवतिए णयरीए सोमिलनामे महाणपरिवसइ अड्डे, रिउवयेय जाव मुपरिनिट्टिएयाधि होत्था ॥४३॥ तस्सणं सोमिलस्स महाणस्स सोमसिरिनाम माहणीहोत्था, सुकुमाला जावं सुरूवा ॥ ४४ ॥ तस्म्णं सोमिलस्स धूया सोमसिरिएमाहणीए अत्तया सोमानामं दास्या होत्था, सुकुमाला जाव सुरूवा,
रूवेणं जाव लवणेणं उकिट्ठा उक्विटुसरीरायाविहोत्था ॥ ४५॥ तत्तणं सा सोमादारिया बालक का नाम 'मनगुकमाल ' हा॥४१॥ तब उस बालक के माता पिताने वालकका नाम स्थापन किया, * गजमुकुमाल' ऐमा, शेष कथन जैसा मेयकुमार का कहा तैमा जानना यावत् संपूर्ण भोग भोगाने समर्थ हुवा ॥ ४२ ॥ तब द्वारका नगरी में सोमिल नाम का ब्राह्मण रहता था, वह ऋद्धिवन्त रिजुवेद आदि। चारों वेद वगैरह ब्राह्मण के शान में निपुण था ॥ ४३ ॥ उस सोमिल ब्राह्मण के सोम श्री नाम की 41 ब्राह्मणी स्त्री थी वह भी मुकुमाल और रूपावति थी ॥ ४४ ॥ उस मोमिल ब्राह्मण की पुत्री सोमश्री ब्राह्मणणी की आत्मज 'सोया' नाम की पुत्री थी, वह भी सकुमाल यावत् सुरूपवती थी, रूपकर
लावण्यता कर उत्कृष्ट २शोभायमान थी॥५॥तब वह मोमा लडकी अन्यदा किसी वक्त।
4.81800 तृतीय-वर्गका अष्टम अध्ययन 4882
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अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी +
'अन्नया कयाइ व्हाया जाव विभूसिया वहुहिं खुजाहिं जात्र परिखित्ता सयातो गिहाओ पडिनिक्णमइ २ त्ता जेणेव रायमग्गा तेणेव उवागच्झइ २ त्ता रायमग्गंसि कणगमइ डूसएणं किलमाणी २ चिटुंति ॥४६ ॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं अरहा अरि?णेमी समोसड्डे परिस्सा निग्गया ॥ ४७ ॥ ततणं से कण्हवासुदेवं इमिसे कहाएलट्रसमाणे व्हाए जाव विभसिते, गयसुकमालेणं कमारेणं साई हत्थि खंधबरगते;
सकोरंट मलदांमणं छत्तेणं धारिजमाणेणं, सेयवर चामराइ उधूवमाणेहि, वारवतिए कर वस्त्र भूषण से भूपित हो बहुत खोजे यावत् परिवार से परिवारा हुई स्वयं के घर से निकली, निकलकर जहां राज्यपन्थ था तहां आई, आकर राज्यपन्थ में सुवर्ण की गेंद कर क्रीडा कररही थी ॥ ४६ || उस काल उस समयमें अरिहंत अरिष्ट नेमीनाथनी सहश्रम्बवागमें पधारे थे, उनको परिषदा वंदन करने गइ ॥ ४७ !! तब कृष्ण वासुदेव को इस प्रकार बधाई. मिलने से हृष्ट तुष्ट हुवे, स्नान किया यावत् विभूषित होकर गजसुकुमाल कुमार के साथ हाथी पर बैठे कोरंट लक्ष की माला का छत्र धराते हुये श्वेत दुलते हुवे द्वारका नगरी के मध्य २ में होकर आरिहंत अरिष्ट नेमीनाथ के पांव वंदन करने जाते हुवे सोमा लडकी को देखी, देखकर सोमा लडकी के रूप यौवन लावण्यता में यावत् आश्चर्य प्राप्त हवे ॥ तव कृष्ण वासुदेव कोटुम्बिक पुरुष को बोलाया, बोलाकर यों कहने लगे-जात्रो तुम हे देवानुपिया : है।
प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेव सहायजी
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अष्टमांग-अंतगड दशांग सूत्र
णयरीए मझमझेणं अरहतो अरिट्टनेमिस्स पायबंदए निगच्छइमाणो सोमादारियं पासइ २ त्ता सोमाए दारियाए रूवेणय जोवणेणय लवणेणय जाव विम्हए ॥४८॥ तएणं कण्ह वासुदेव कोडुबिय पुरिसे सहावति २ त्ता एवं वयासी-गच्छहणं तब्भे देवाणुप्पिय ! सोमिल महाणजायइत्ता, सोमादारियं गण्ह २ कण्हतेउरांसि पक्खिवह॥ ततेण एसा गजसुकुमालस्स कुमारस्स भारिया भविस्सति, ते कोडुबिय जाव पक्खिवत्ति ।। ४९ ॥ तएणं से कण्ह वासुदेवे वारवतिए णयरीए मझमझेणं निग्गच्छइ २ सा जेणेव सयसंबवणे उजाणे जाव पज्जुवासंति ॥ ५० ॥ तत्तेणं अरहा अरिट्ठ
नेमी कण्हस्स वासुदेवस्स गयसुकुमालस्स तिसेय धम्म कहा ॥ ५१ ॥ कण्हे पडिगते सोमिल ब्राह्मण से सोमालडकीकी याच नाकरो, सोमालडकी ग्रहणकर कुंवारे अन्तेपुर में स्थापन करो, तब फिर यह गजसुकुमाल कुमारके भारियापने होगी॥४८॥उस कुटम्बिक पुरसने उसही प्रकारसे सोमा को कुंवारे अन्तेपुर में स्थापन की ॥ ४९ ॥ तब कृष्णवासुदेव द्वारका नगरी के मध्य मध्य में से है .. निकलकर जहां सहश्रम्ब उध्यान जहाँ अरिष्टनेमी भगवान थे तहां आये यावत् सेवा भक्ति करने लगे ॥ ५० ॥ तब अन्ति अरिष्टनेमी नाथने कृष्ण वासुदेव को गजसुकुमाल को और उस महापरिषद धर्म कथा सुनाई ॥ ५१ ॥ कृष्ण वासुदेव धर्म कथा श्रवण कर पीछे गये ॥ २२॥ तब गजेसुकुमाल कुमार
4348 तृतीय-वर्गका अष्टम अध्ययन 48
डकी
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4. अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक पिजी
॥ ५२ ॥ ततेणं से गयसुकुमाले अरह अरिट्टनेमी अंतियं धम्मं सोचा, जाव एवं वयासी-जनवरं देवाणुप्पिया ! अम्मापियरो आपुच्छंति, जहा मेहो, महिलेयावजं,जाव वढियकुले ॥५३॥ ततेणं कण्ह वासुदेवे इमोसे कहाए लट्ठ समाणा जेणेव गयसुकुमाले तेणेव उवागच्छइ, २ ता गयसुकुमाले आलिंमति उछंगेनिवेसइ २ त्ता एवं वयासी तुम्हसिणं ममसहादरे कणियस्सभाया तुम्हाणं देवाणुप्पिया ! इयाणी अरहतो भुण्डे जाव पव्वयाहि ।। ५४ ॥ तहेणं तं गयलुकमालं कण्हवासुदेव अम्मापियरो जहे णो संचाइ बहुहिं विसयाणु लोमाहिय विसयपडिकुलाहिय अघवणाहिय अन्ति अरिष्टनेमी भगत के पास धर्म श्रानकर हर्ष तुष्टित हुत्रे वैराग्य उत्पन्न हुवा यावत् यों कहने लगे । इतना विशेष अहो देवानुप्रिया में मेरे मन पिताको पूछकर आप के पाम दीक्षा लेबूंगा, मेधकुमास्की तरह मात पिता को पूछा प्रश्नातर हुवे (इन के स्त्रीयों नहीं जानना,) यावतू कल वृद्धि कर दीक्षालेना ऐसा कहा ॥५३॥तक कृष्ण वासदेव इस प्रकार मामाचार सुनकर जहां मसालथा तहां आये,आकर गजसुकुमाल को अलिग्न दिया उठाकर गोद में बैठा ये, बैठाकर यों कहने लगे-तू मेरे एक ही महोदर छोटा भाइ है. इमलिये अभी अन्ति अरिष्टनेमी भगवंत के पास दीक्षाधारन करना है?॥५४॥तब उस गजसुकुमाल कुमारको कष्णवामदेव व उसके माता पिना बहुत विषयानुकुल वचनमे व विषय प्रतिकूल संयर के दुश्वरूप वचन
.मकाश-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी
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जाव ताहे अकाम काइव ॥ ५५ ॥ तहणं कण्हवासुदेव एवं क्यासी-अहणं तुमे वारवतियणयरीए महता २ रायभिसएणं अभिसिंचिसामी ॥ ५६ ॥ तएणंसे गजसु. कुमालं अम्मापियरो एवं व्यासी इच्छामो तावजाया ! एगदिवसमवि रायसिरि पासित्तए ॥ ५७ ॥ तएणं सेगयसुकमाले कण्हवासुदेवणं अम्मापियरेणं मसुवमाणे तसिणीए संचिट्ठइ ॥ ५८॥ तएणं से कण्हवा मुदेव कोडंबिय पुरुष सदावेद २त्ता एवं बयासी-खिप्पामेवभो देवाणुप्पिया ! गयमुकमालस्स महत्थं जाव रायभिसेहं उवट्ठवेह
॥ ५९ ॥ तएणं मे कोडबिय पुरिसे जाव उवट्ठवे ॥ ६० ॥ तएणं से गयसुकुमाल सुनाकर समझकर लोभाने समर्थ नहीं हुवें यावत् तब गजसकुमाल को निष्कामी जाना ॥ ५५ ॥ तंत्र । 1. कृष्ण वासुदेव ऐपा बोले म तेरे को द्वारका नगरी के राज्य का महा राज्याभिषेक करदेना. चहाताहूं ॥५६॥
तष गजसकपाल के माता पिता यों बोले-हे पत्र ! हम तुझे एक दिन भी राज्य लक्ष्मी भोगवना दखना चहात ॥ २७ ॥ तब गजमकमाल कृष्ण वासुदेव का और अपने माता पिता का मन रखन के लिये पौनस्थ रहे ।। ५८ ॥ तव कृष्ण वासुदचने कोटुम्बिक पुरुष को बोलाया, बोलाकर यों कहने लगयों निश्चय. हे देवानप्रिय ! शीघ्रता से गजमुकुमाल कुमर का महा अर्थवाला राज्याभिषेक करो ॥५॥ काम्बिक पुरुषने तैसा ही किया ॥ ६ ॥ गजसुकुमाल राजा हुने महा हिमवंत पर्वत समान यावत् विचरने
१. हस्त लिखित प्रत में सम्बन्ध मिलता न आने से. यहां ज्ञाता सूत्रानुसार सूत्रार्था में कुछ फेरफार किया है.
43 अष्टमांग-अंतगड दशांग मूत्र
428th. तृनीय वर्गका अष्टम अध्ययन
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48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिरी gh
रायाजाए महया जाय विहरंति ॥ ६१ ॥ तएणं से गयसुकमालंरायं अम्मापिमरो एवं वयासीभणजाया ! किं दलयामो? किं पयच्छामो? किं वातेहियइच्छिए? समत्थे? ॥ ६२ ॥ तएणं से गयसुकुमालस्स णिक्खमण जहां महावलस्स णिक्खमणा तहा जाव समंति ॥ ६३ ॥ तएणं से गयसुकुमाल जाव अणगारेजाए इरियासमिए जाव गुत्तबंभयारी॥६४॥तएणं से गयसुकुमाले अणगारे जंचव दिवसं पव्यइए तस्सेव दिवसस्स पव्वरहकालसमयंसि जेणेव अरहा अरिट्ठनेमी तणेव उवागच्छइ २त्ता अरह
अरिट्ठनमिस्स तिक्खुत्ता आयाहीणं पयाहीणं वंदति नमंसति एवं बयासी इच्छामिणं लगे ॥ ६५ ॥ तव गजसुकुमाल राजा को उन के माता पिता हाथ जोडकर यों कहने लगे-कहो पुत्र ! क्या देवें ? क्या तुम चहाते हो ? क्या तुमारी इच्छा है ? तुम क्या करने समर्थ हो ? ॥ ३२ ॥ तब गमसुकुमालने तीन लाख द्रब्य श्री भंडार से ग्रहण करने का कहा यावत दिक्षा उत्सव का कथन जैसे भगवती सूत्र में महाबल कमर का कहा तसा मव यहां जानना यावत् दीक्षा धारन की ॥६शतव बह गजसकमाल अनगार हवे यावत् र्यासमितीत गुप्त ब्रह्मवारी बने ॥१४॥तव गजमकमाल अनयारने जिस दिन दीक्षाधारन की उस हो दिन मध्यान कालमें जहां अरिहंत अरिश नमीनाथ थे तहां आये, आकर अरिहंत अरिष्ट नेमीनाथ को तीन वक्त हाथ जोड प्रदक्षिणावर्त फिराकर वंदना नमस्कार कर यों कहने लगे
प्रकाशक राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी.
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सत्र
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भंते ! तुब्भेहिं अब्मणुणाय समाणे महाकालंसि सुसाणंसि एगराईयाई महापडिमं उत्रसंपजित्ताणं विहिरित्तए ? अहासुहं देवाणुप्पिया ! मापडिबद्धं ॥ ६५॥ तत्तणं से गयकुसुमाले अणगारे अरिटुनेमी अब्भणूणाते समाणे अरहा अरिट्ठणेमी वंदति नमंसति वंदित्ता नमंसित्ता अरहातो अरिटुनमी अंतियातो सहसंबवणाओ उज्जाणाओ पडिणिक्खमइरत्ता जेणेव महाकालेसुसाणे तेणेव उवागच्छइ २त्ता थंडिलं पडिलेहंति उच्चारपासवणभूमिपडिलेहंति, इसि पन्भारगतेणं . काएणं जाव दोवि पाएसाहह
गराइय महापडिमं उवसंपजित्ताणं विहेरति॥६६॥ इमचणं सोमिलमाहणे सामिधयस्स "अहो भगवन ! जो आपकी आज्ञा हो तो मैं चहाता हूं एक रात्रि की धारवी भिक्षकी महाप्रतिमा अंगीकार
कर विचरूं ? भगवंतने कहा-जैसे सुख होवे तैसे करो, प्रतिबन्ध मतकरी ॥ ३५ ॥ तत्र गनसुकुमाल आनगर अरिहंत अरिष्ट नेमीनाथ भगवान की आज्ञा प्राप्त होते, अरिहंत अरिष्ट नेमीनाथ को वंदना नमस्कार किया, वंदना नमस्कार कर अरिहंत आरिष्ट नेमीनाथ भगवान के पास से सहश्र बन उद्यान से निकले, निकलकर जहां महाकाल समशान था तहां आये, आकर जमीन की प्रतिलेखना की प्रतिलेखना।
कर, बडीनीत, लघुनीत की जगह की प्रतिले काकी, फिर कुछ नमे हुवे शरीर से यावन् दोनों ११ एक स्थान (जिन मुद्रासे) समस्थापन कर एक रात्रि की भिक्षुकी (बारवी) प्रतिमा अंगीकार कर
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तृतीय-वर्गका अष्टम अध्ययन "
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मुनि श्री अमोलक ऋषिजी * 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी
अट्ठाए वारवतिनगरीओ बहिया पुवनिगच्छंति समिहातोय दब्भय कुसुमेय पत्ते मोडच गिण्हइ २ त्ता तत्तोपडिनियात्त २ त्ता महाकालस्स सुसाणरस अदुरसामंतेणं वितिवयमाणं २ संज्झाकालसमयंमि पविरल मणुसंसि गयसुकुमालं अणगारं पासति २ त्ता तं वेरंसुमरत्ति २ अकुरुत्ते ४ एवं वयासा-एसणं भोगयसुकुमालेकुमार, अपस्थिय पत्थिया जाव परिवजिए, जेणं ममधूयं सोमासिरीए भारियाए अत्तया सोमादारिया अदिट्रविसो पत्ततं आलवत्तियं कालभित्तिगं विप्पजहित्ता मुण्डे जाव पवइए, तं सेयं खलु ममं गयसुकुमालस्स कुमारस्स वेणिज्जातेणं विचरनेलगे॥६६॥ इनवक्त सामिल ब्राह्मण लपके यज्ञ करने की मामग्रो लिये द्वारका नगरी के बाहिर दी हुवे पहिले ही निकला था, वह काष्ट दोष पत्र वगैरह ग्राणकिये, ग्रहणकर वहां से पीछा निकला, निकलकर यहाकाल स्ममाण के पास होकर जाता हुआ मंध्याकाल की वक्त थोडे-विरले मनुष्यों के ममना गमनकी वक्त गनसुकुमाल अनगार को देखे, देखकर पूर्व वैरका स्मान हुया, स्मरनकर आसुरक्त-कोपायमान
हुवा मन मे यों कहने लगा-भो! यह गनसुकमाल कुसर अप्रार्थिकका प्रार्थनेवाला यावत् लज्जा रा ल जिसने मरी पुत्री मामश्री की आत्मज मोया का विना दोष देखे यौवन अवस्था को प्राप्त हुइ को कि
मुख भोगवने की वक्त उस छोडकर मुण्डित हुवा यावत् दीक्षा ली. इस लिये श्रेय
अर्थ
प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवमहायजी ज्वालाप्रसादजी.
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Nagin
2030
करित्तत्ते, एवं संपेहेति २ त्ता दिसा पडिलणं करेत्ति २ त्ता सरममटियं गिण. हइ २ त्ता जणेव गयसुकुमालअगगारे तेणव उवागच्छइ २ त्ता गयसुकुमालस्स अणगाररस मत्थए मट्टियापालिं बंधइ २ ता जालियातो वियगातो फुलिय किमय समाणा खयरंगीरे कभलेणं गिण्हइ २ ता गयमुकुमालस्स अणगारस्स मत्थए पक्विवित्तिरत्ता भोये तत्थ तसिये ततखिप्पामेव अवकमंत्ति २त्ता जामेवदिसं पाउ
भूते तामेवदिसं पडिगत ॥ ६७ ॥ तत्तणं से गयसकुमालस्स अणगाररस सरीरयंसि वेदणा पाउन्भया उज्जला जाव दुरहियासा ॥ ६८ ॥ तत्तेणं तस्स गयसुकुमाल है मुझे मैं गजसुकुमाल कुमार से ( मेरी पुत्रि का ) वैर लवू, एमा विचारा, ऐसा विचार कर चारोंदिशा में अवलोकन कर सरस पानी से भीनी हुइ तलाव के पाल की मट्टी ग्रहण की, ग्रहणकर जहां गजमुकुमाल अनगार था तहां आया, तहां आकर गजमुकमाल अनगार के मस्तकपर मट्टी की पाल बन्धी पाल बाधकर अग्नि से प्रचलित अंगारे कसूड(पास)के फूल समान रक्तवर्ण खरके अंगारे ठीकर ग्रहण किये, ग्रहण कर के गजसुकुमाल अनगार के मस्तकपर स्थापन किये,स्थापन कर डरा,भय भीत हुवा, त्रास
पाया, तहां से तत्काल निकलकर जित दिशा से आया था उसदिशा पीछा (घर) गया ॥ ६७ ॥ तब IFगजसुकमाल अन्गारके शरीरमें पहारेदना प्रगट हुई,वह वेदना प्रति ऊपल पावत् सहन करनी अतिकहिनथी ।
- अष्टमांग-अंतगड दशांग सूत्र
तृतीय-वर्गका अष्टम अध्ययन
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अनुवादक बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी +
अणगारे सोमिलस्स माहणस्स समणस्स आप्पट्रसमाणे तं उज्जलं जाच अहिवालेति ॥ ६९ ॥ ततेणं से गयमुकमाले अणगारे तं उज्जलं जाव अहियासेमाणस्स मुभेणं परिणामणं पसत्थेहिं अज्झवसाणेणं तदावरणिज्जा कम्माणं खएणं कम्मरविकिरण करणेणं अपुवकरणं अमुप्पविट्ठस्स अणते असुत्तरे जाव केवलवरनाणदंसणे समुप्पन्ने, ततो पच्छासिद्धे जाव पहिणे ॥ ७० ॥ तत्थणं अहासणितेहिं देवेहि सयं
आराहित तिकह दिव्वे सरभिगंधोदए वटे, दसवण्ण कसमे निवाडिए चेलक्खेवेकत्ते दिवेगाएगंधब्बतिनायकएयावि होत्था ॥७१॥ ततेणं से कण्हवासुदेवे कलं पाउन्भए ॥ ६८ ॥ तब गजसुकुमाल अनगार सोमिल ब्राह्मन के ऊपर मन से भी किंचित द्वेष रहित रहे हवे अतिउज्वल वेदना को सहन करने लगे ॥ ६१ ।। तब गजमुकमाल अनगार उस उज्वल वेदना को सहन करते हुवे शुभ परिणामकर प्रसस्त अध्यवसाय कर केवल ज्ञान के आभरण (पड्डल ) भूत कर्मों क्षयकिये, कर्मरूपरज दूरकी, अपूर्व करन में प्रवेश किया अनन्त प्रधान यावत् केवल ज्ञान केवल दर्शन उत्पन्न हुवा, तब फिर सिद्ध हुवे यावत् सर्व दुःख रहित हुवे ॥ ७० ॥ तब तहां नजीक में रहे हुवे देवोंने गजसुकुपाल अनगार को सम्यक प्रकार मार्ग का आराधन कर संमार से पार हुवे जान दिव्य गंधोदक की वृष्टी की पांच वर्ण के फूलों की वृष्टीकी,वस्त्रोंकी वृष्टि की,दिव्य गंधर्व गीत गानका नादं करने लगे।।७१॥तब वे कृष्
प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायनी मालाप्रसादजी *
अर्थ
1
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42800
अष्टमांग अंतगड दशांग सूत्र
आव जलंते पहाए जाव विभसित्ते हत्यिखंधवरगाए, सकोरंटमल्लदामेणं छत्तेणं धारिजमाणणं, सेतवर चामरोहिं उधुदमाणाहिं २, महत्ताभडचडगपहकरवंद परिक्खित्तेणं वारवतिणगरं मज्झमज्झणं जेणेव अरहा अरिटूनेमी तेणेव पहारत्थमाणाए ॥ ७२ ॥ ततेणं से कण्हवासुदेवे वारवतीए णयरीए मज्भमज्झणं णिगच्छमाणा एगं पुरिसंपासति जुण्णं जरा जज्जरियदहं जाव कलिय महया महालयाओ इदृगरासिओ एगमेगं इटगं गहाए बहिया रथपहातो अंतोगिहं अणुप्पविसेमाणं पासइ २ त्ता
॥ ७३ ॥ तएणं से किण्ह वासुदेवे तस्स पुरिसस्स अणुकंप्पेणट्ठाते हत्थिखंधवरवामुदेव प्रातःकालहुवे यावत् जाज्वल्पमान मूर्यप्रगट हुने, स्नानकिया यावत् विभूषित हुवे, हस्ति के स्कन्धपर
आरूढहो कोरंट बृक्षकी मालाका छत्र धराते हुवे, श्वेत चमरवींजाते हुवे महा चेटकों सुभटो पायदलों के बृन्द
से परिवरे हुचे द्वारका नगरी के मध्य पध्य में हो अरिष्टनेमीनाथ के पास जाने को मार्ग क्रमण करने * लगे ॥ ७२ ॥ तब कृष्ण वासुदेव द्वारका नगरी के मध्य मध्य में हो निकलते हुवे एक पुरुष को देखा,
वह पुरुष शरीर कर जीर्ण हुवा, वयकर बृद्ध हुवा, जरजरित देहवाला वह एक महा जबर बडे विस्तार 4 बाला इंटके ठग में से एकेक ईंट उठकर, बाहिर राज्यपंथ से लेकर अन्दर अपने घर में रखना था, इम प्रकार उसे देखा, देखकर ।। ७३ ॥ तव कृष्ण वासुदेव उस की अनुकम्पा-दया के लिये हस्ति के स्वध
तीय-वर्गका अष्टम अध्ययन
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48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी g+
गतेचेव एगंइंटि गिण्हइ. २ त्ता बहिया र पहाओ अंतोगिहं अणुप्पविस्सति ।।७४॥ तएणं से कण्ह वासुदेवेणं एगाइंटि गाहितेया समाणाते अणेगाहिपुरिसेहिं तहिं रासि बहियारथा होता पहातो अंतोघरंसि अणुप्पविसिते ॥ ७५ ॥ तत्तेणं से कण्ह वा दवे वारवतिणयरीए मज्झमज्झणं णिगच्छइ, जेणेव अरहा अरिटुनमी तेणेव उवागच्छइ २ जाव वंदिती नमसति, वंदिता नमंसिता गयसुकमाल अणगारं अप्पासमःणे अरहं अरिट्ठनेमी वंदिता नमंसिता एवं वयासी कहणं भंते !
ममसहोदरे कणीया साभाय गयसकमालेअणगारे, जेणं अहंवदामि नमसामि ? पर रहे हुये ही, एक इंट ग्रहण की, ग्रहण कर वाहिर राज्यपंथ से लकर उसके घर में स्थापन की ॥४॥ तब उन कृष्ण वासुदेवने एकइंट ग्रहण कियेबाद उनके पीछे अनेक गणपुरुप रहे हुवे थे उनोंने एकेक ईट. ग्रहणकर वाहिर राज्यपंथमे उठाकर अन्दरके धरमें स्थापनकी।। १५||तब कृष्णवासदेव द्वारका नगरी के मध्य में होकर जहां अरिहंत अरिष्ट नेमीनाथ थे तहां आये, आकर. यावत् वंदना नमस्कार किया, वंदना नमस्कार का गजसुकुमाल अनगार को नहीं देखते हुवे, अरिहंत अरिष्ट नेमीनाथ को बंदना नमस्कार कर यों कहने , लगे-अहो भगवन् ! मेरा सहोदर छोटा भाइ गजसकमाल अगार, कहां है, ? जिन को मैं वंदना
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सूत्र
अर्थ
अष्टांग-अंतगड दशांग सूत्र
॥ ७६ ॥ तत्तेणं अरहा अरिट्ठनेमी कण्हवासुदेवं एवं वयासी - साहितेणं कण्हा ! गय• सुकुमालेणं अणगारण अप्पणी अट्ठो ॥७७॥ तएण से कण्हवासुदेवे अरहा अरिटुनेमि एवं वयासी कहहं भंते ! गयसुकुमालेणं अणगारणं साहित्त अप्पणा अड्डो ? ॥७८॥ से अरहा अमी कण्हवासुदेवं एवं बयासी - एह खलु कण्हा ! गयसुकुमालणं अणगारेण ममकलपुवावरण्ह कालसमयसि बंदति नमसंति वदित्ता नमसिता एवं वयासी- इच्छामि जाव उवसंपजित्ताणं विहरति । ततणं ते गयसुकुमालं अणगारे एगपुरिसें पासति २ ता जाव सिद्धे ॥ ७९ ॥ त एवं खलु कण्हा ! गयसुकुमाल
नमस्कार करूं ॥ ७३ ॥ तब अरिहंत अरिष्ट नेमीनाथ कृष्ण वासुदेव से यो बोले- कृष्ण ! गजंसुकुमाल अनगारने अपना अर्थ - कार्य पूर्ण किया || ७७ || तब कृष्ण वासुदेव अरिहंत अरिष्ट नेमीनाथ से यो बोले- अहो भगवन् ! किस प्रकार गजसुकुमाल अनगारने अपना अर्थ पूर्ण किया ? ॥ ७८ ॥ तब अरिहंत अरिष्ट नेमीनाथ कृष्ण वासुदेव से ऐसा बोले- यों निश्चय, हे कृष्ण ! गजमुकुमाल अनगार) कल दोपहर के वक्त मुझे वंदना नमस्कार किया, वंदना नमस्कार कर ऐसा बोले- अहो भगवन् ! मैं चहाता हूं यावत् एक दिन की भिक्षुक की प्रतिमा अङ्गीकार कर विचरना यावत् विचरने लगे. तब उन गजसुकुमाल, अबगार को एक पुरुषने देखा देखकर यावत् साहाय दिया जिस से वे सिद्ध बुद्ध पारंगत
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**तृतीय वर्गका अष्टम अध्ययन
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श्री अमोलक ऋषिजी *
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.. अणगारेणं साहित्ते अप्पणो अट्रो ॥ ८० ॥ तत्तणं से कण्हवासदेवे अरहं अरिट्रणेमी
एवं वयाप्ती से केण भंते ! पुरिसे अपत्थिय पत्थिया जाव परिवजते, जेणं ममं सहोदरे कणियस्मभाए गयसुकुमाले अणगारे अकाले चव जीवतातोववरोवेति ? ॥ ८१ ॥ तएणं से अरहा अरिट्रनेमा कण्हगसुदेवण एवं वयासी. कण्हा ! तुम तस्स परिसस्स पदोसए मावजाहि एवं खलु कण्हा ! गय मुकुमालस्स अणगारस्स साहिजेहिं ॥ ८२ ॥ कहेणं भंते ! से पुरिस गयमुकुमालस्स
साहिजेदिणे ? ॥ ८३ ॥ तत्तेणं अरहा आरिट्ठनाम कण्हवासुदेवं एवं वयासो-सेणूणं वे. ॥ ७ ॥ हे कृष्ण ! इस कारन मे निश्चय, गजसकपाल अनगारने अपना अर्थ पूर्ण किया ॥ ८ ॥ तव कृष्ण वासुदेव अरिहंत अरिष्ट नेमीनाथ में यों कहने लगे-अहो भगवन् ! वह पुरुष अप्रार्थिक का पार्थिक [ मृत्यु का इच्छक ] यावत लज्जा गहत जिमने मेरा सहादर छोटे भाई गजसुकमाल अनगार को अकाल में जीवित रहित किये-मारे वह कौन है ? ॥ ८१ ॥ सब अर्हन्त अ नेमीनाथ कृष्ण वासुदेव से यों कहने लगे-हे कृष्ण ! तुम उस पुरुष पर द्वेष भाव मत करो परंतु हे यह पुरुषने तो गजमुकुमाल अनगार को साहायदेने वाला है ऐमा जानी॥४२॥ कृष्ण बोले-हो भगवान किस प्रकार उस पुरुषने गजमुकुमाल अणगारको साहायदिया ? ॥८३॥ तब अर्हन्त अरिष्ट नमीनाथ कृष्ण
शक-राजाबहादर लाला मुखदव सहायजी ज्वालाप्रसादजी
१० अनुवादक-बालब्रह्मचारी
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अपांग-अंतगड दशांग सूत्र
कण्डा ! तुम मम पाएवंदणं हवमागच्छमाण वारवतिए णयरिए एगपुरिस तं पासति जाव अणुपविति, जहणं कण्हा ! तुम्ह तस्स पुरिसस्स साहजेदिणे, एवामेव कण्हा! तेणं पुरिसणं गयसुकुमालस्स अशगारस्स अणेगभव सहस्स संचियं कम्मं उदीरमाणेणं बहकम्भ णिजरत्थं साहिजे दिण्णे ॥ ८४ ॥ तत्तेणं से कण्हवासुदेवे अरहं अरिठनेमि एवं वयासी-सेणं भते ! पुरिसे भएकहं जाणित्ते ? ॥ ८५ ॥ तत्तेणं अरहा अरिट्रनमी कण्हं वासुदेव एवं वयासी-जणं कण्हे! तुम वारवतिणयरीए अणुप्पवेसमाणे
पासित्ता ट्ठितेचच ट्ठितिभेदेणं कालं करिस्संति, तेणं तुम जाणिसामी एसणं पुरिसे॥८६॥ वासदेव से ऐसा बोले-यों निश्चय हे कृष्ण ! तुम मेरे पाँव चंदन कस्ने शीघ्र आते हुवे द्वारका नगरी में एक पुरुष को देखा, यावत अनुकम्पा कर तुमने उस पुरुष को साहायदिया ( ईंटों उठाकर घर मे घराकर उनके फेरे मिटाय) इस ही प्रकार हे कृष्ण! उम पुरुषने गजसुकुमाल अनगार को अनेक महों भव में मंचित किये हुवे कर्म की उदीरणा करके बहुत कमों की निर्जराकी भव भ्रमण मिटाया, यह साहायदिया श्री ॥ ८४ ।। तब कृष्ण वासुदेव अईन्त अरिष्ट नेमीनाथ से ऐसा बोले-अहो भगवान ! उस पुरुष को में किस कारपेछान॥८६॥तब अन्ति अरिष्ट नेमीनाथ कृष्ण वासुदेव से ऐसा बोले-हे कृष्ण ! जब तुम द्वारका नगरी में प्रवेश करेंगे तब तुमको देखकर पकाकर जमीनपर गिरपडेगा, स्थितिका भेद होने से कालपूर्ण ।
488+ तृतीय-वर्गका अष्टम अध्ययन
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ततेणं कण्हवासुदेवे अरहा अरिनेमी वंदतित्ता नमसंति जेणेव अभिसेय हत्थिरयणे तेणेव उवागच्छइ २ हत्थिरयण दुरुहइ २त्ता जेणेव बारवतिनयरी जेणेव सएगिहे तेणेव पाह रेत्थगमणाए ॥ ८७ ॥ तएणं तस्स सोसिलस्स माहणस्स कलं जाव जलंते अयमेवरूवे अज्झतत्थि जाव समुपजित्थे-समुपने एवं खलु कण्ह वासुदेवे अरहा अरि?णेमी पाए वंदए निग्गार, तं णियमेवं अरहतो विणीयमेयं, अरहंतो सुथमेयं, अरहंतो सिह मेयं, अरहंता नविस्थामि ते कण्हवासुदेवस्स तं ननिजतिणं कण्हवासुदेवे ममं केगह कुनारण नारिसति तिकट्ट, भीता तत्था तसिया, सयातो
२ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी
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प्रकाशक-राजाबहादूर लालामुखदवसहायजा ज्वालाप्रसादजी*
करेगा-परजावेगा, उनी पुरूप को तुम जानना ।। ८६ ।। तब कृष्ण वासुदेव अरिहंत अरिष्ठ नेमीनाथ को वंदना नमस्कार किया, बंदना नमस्कार कर जहां अभिशेष हस्ति रत्न था तहां आये, आकर हस्ति रत्न पर आरूढ हुने, आरूढ़ होकर जहां द्वारका नगरी जहां स्वयं का घर वहां आने के पंथ में गमन करने लगे ।। ८७ ।। तब उस सोमिल ब्राह्मण को प्रातःकाल होने यावत् जाज्वल्यमान सूर्योदय होने इस प्रकार अध्यवसाय यावत् समुत्पन्न हुवा-यों निश्चय कृष्ण वासुदेव आरत अरिष्ट नेमीनाथ भगवान के पांव वंदने को गए हैं तो निश्चम अरिहंत जानते हैं, अरिहंत सुनते हैं, अरित के यह बात सिद्ध है, अरिहंत भविष्यझ हैं, वे कृष्ण वासुदेव को कहेंगे तो, न जानू कृष्ण वासुदेव मुझे किस कुमृत्यु कर मारेंगे, एमा
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2018
गिहाती पडिणिक्खमइ २ ता कण्हवासुदेवे बारवतिए णयरिए अणुपविसमाणस्स पुरतोसपखि सपडिदिसिं हवमागते ॥ ८८ ॥ तत्तणं से सोमिले माहणे कण्हवासुदेवे सहस्सापहंरित पासित्ता भित्ते ४ ठत्तएचे ठिति भेदेणं कालं करेति धरणितलंसि सवंगाही धसति संनिवडिते ॥ ८९ ॥ तत्तेणं से कण्हवासुदेवे सोमिलमाहणस्स पासइ २ त्ता एवं क्यासी-एसणं भोदेवाणुप्पिया ! सोमलेमाहाणे अपस्थिय, पत्थिया आव परिवजिए, जेणेव मम सहोदर कणियभाया गयसुकुमाले अणगारे अकालेचेक
जीवियाओ वियरोवेति, तिकछु सोमिलमाहणं पाणेहि कट्ठावेति, से भूमीपाणएण विचार कर, भयभ्रान्त हुत्रा, त्रास पाया, अपने घर से निकला, निकलकर कृष्ण वासुदेव द्वारका नगरी में मवेश करते थे उनके सन्मुख सपष्ट खुल्ला आगया।८८॥ तब मोमिल कृष्णवासदेव को रास्ते में देखे, देखकर भयभ्रान्त हुवा, धेमाकर धस्कपडा स्थिति भेद हो काल किया स|ग से धरती पर गिरपडा॥ ८९ ॥ तब कृष्ण वासुदेव सोमिल ब्राह्मण को देख ऐसा बोले-यही है. अहो देवानुपिय ! सोमिल ब्राह्मण अमा
थिक का मार्थिक यावत् लज्ज रहित, इसने ही मेग सहोदर छोटा भाई गजसुकुमाल भनगार को अकाल |में जीवित रहित किया ? ऐसा कहकर सोमिल ब्राह्मण के शरीर को चंडालों के पास घिसवाकर फेंका
अष्टमांग-अंतगड दशांग मूत्र
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488 तृतीय-धर्मका अष्टम अध्ययन 48*
• 1945
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श्री अमोलक ऋषिजी +
अभूक्खावेति २, जेणेव सएगिहे तेणेव उवागच्छइ २ त्ता सयंगेहे अणुपविटे ॥ ९० ॥ एवं खलु जंबु ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं अंतगड दसाणं तच्चस्स वग्गस्स अयमट्टे पण्णते ॥ अट्रमं ज्झयणं सम्मत्तं ॥ ३ ॥ ८ ॥. नवमस्स उबओ--एवं खलु जंबु ! तेणं कालेणं तेणं समएणं वारवतीय नयरीए अहा पढमसए जाव विहरति ॥ १ ॥ तत्थणं वारवतिए णयरिए बलदेवे नामं राया होत्था वण्णओ ॥ २ ॥ तस्सणं बलदेवरसरन्नो धारणीनामं देवी होत्था वणओ
॥ ३ ॥ तएणं साधारणी सिह सुमिणे जहा गोयमे, णवरं सुमुहकुमारे, पण्णासं दिया. उप्त भूमी को पानी का सींचन कराया, जहां अपना घर था तहां आये, आकर प्रवेश किया, रहने लगे ॥१०॥ यों निश्चय है जम्बु श्रमण भगवंत श्री महावीर स्वामी मोक्ष पधारे उनोंने अंतकृत दशांग का तीसरे वर्ग के आठवे अध्याय का यह अर्थ कहा. इति तीसरा वर्ग का आठवा अध्याय संपूर्ण ॥३॥८॥* नववा अध्याय-यों निश्चय. हे जम्बू ! उस काल उस समय में द्वारका नाम की नगरी थी, और सब अधिकार जैसा प्रथम गौतम कुमार का कहा तैसा सब यहां जानना, यावत् नेमीनाथ भगवान पधारे
विचरने लगे ॥ १॥ उस द्वारका नगरी में बालदेव नाम के राजा थे, वर्णन योग्य ॥ २॥ उन बलदेव ITराजा के धारणी नाम की राणी थी वर्णन् योग्य ॥३॥ तब धारिणी राणीने सिंह का स्वप्न देखा और
*प्रकाशक राजाबहादुर लाला सुखदवसहायजी ज्वालामस
48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी
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अष्टमांग-अंतगड दशांग सूत्र 488
कण्णातो, पण्णसउदातो, चउद्दस्स पुव्वाई आहिजति,वीसंवासाई परियाई पाउणित्ता, सेसं तंव जाव सेतुजय सिद्धा ॥ ४ ॥ निक्खवओ-एवं दुमेहवी, कूवएवि, तिण्णिवि बलदेवे धारिणीसूया ॥ ५ ॥ दारुंएवी एवंचेव, णवरं वासुदेव धारिणीसूए ॥ ६ ॥ एवं अणाहिट्ठावि वासुदेव धारिणीसुते तहेव ॥ ७ ॥ एवं खलु जंबु ! समणेणं जाव संपत्तेणं अट्ठमरस अंगस्स अंतगड दसाणं तच्चस वगस्स तेरस्स अज्झयणस्स अयम?
पण्णत्ते ॥ इति तच्चवग्गस्स तेरे अज्झयणा सम्मत्त॥९॥१३॥ तच्चवगो सम्मत्तो ॥३॥ सब कथन गौतम कुमार जैसा, जिस में इतना विशेष-सुमुख कुमार नामदिया, पांच सो कन्यापरनाइ, पांच सो दात दी, चौदह पूर्व का ज्ञान पढे, वीस वर्ष दीक्षा पाली, शेष तैसे ही यावत् शत्रुजय पर सिद्ध हुवे॥४॥ निक्षेप-ऐसे ही दुमुख कुमार भी, कुवेर कुमार भी, तीनों बलदेव और धारणी के पुत्र ॥५॥ दारू कुमार भी ऐसे ही, विशेष में वासुदेव धरणी के पुत्र ॥ ॥ ऐसे अनादृष्टी कुमार भी वासुदेव धारणी
के पुत्र तैसे ही ॥ ७ ॥ यों निश्चथ. हे जम्बू ! महावीर स्वामीने अंतगड के तीसरे वर्ग के तेरे अध्याय Ho का यह अर्थ का ॥३॥९-१३ ॥ इति तीसरा वर्ग समाप्तम् ॥३॥
का ९-१३ अध्ययन 48-800
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सूत्र
4 अनुवादक- बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी
॥ चतुर्थ वर्ग ॥
जतिनं भंते ! समणेर्ण जाव संप्पतेणं तच्चरस बग्गस्स तैररंस अज्झयणा पश्नत्ता, उत्थर वग्गरस अंतगडदसाणं समणेणं जाव संपत्तेर्ण कतिअज्झयणा पण्णत्ता ? एवं खलु जंबू ! समणेणं जाव संपत्तेणं चउत्थस्त्र वग्गस्त दस अज्झयणा पण्णत्ता, तंजहा - जालि, मयालि, उवयालि, पुरिससेणेय, वारितेणेय, पज्जुणसेणेय, संवे, अनिरुद्धे, सच्चनेभीय, दढनेमेय ॥ जइण भंते ! समणेणं जाव संपत्तेर्ण चउत्थस्स वग्गस्स इस अभ्झयणा पण्णत्ता, पढमंस्स अज्झयणस्स केअट्ठे पष्णते ॥ एवं खलु जंबू ! यादे अहो भगवान ! श्रमण भगवंत श्री महावीर स्वामी यावत् मुक्तिगये उनोने तीसरे बर्म के तेरे अध्यायन कहे, अंत कृत दशांग के चौथे वर्ग के कितने अध्यायक हे हैं ॥ ७ ॥ यों निश्चय हे जम्बू ! श्रमण यावत् मुक्ति पधारे उनोने चौथे वर्ग के दश अध्याय कहे, उन के नाम- १ जाली कुमरका, २ मयाली कुमर का ३ उज्वाली कुमर का, ४ पुरिमसेन कुमर का, ५ वारीपेन कुमार का, ६पद्युन कुमारका, ७सांव कुमारका, ६८ अनिरुद्ध कुमार का, १ सत्यनेमी कुमरका और १० दृढनेवी कुमरका | यदि अहो भगवान् श्रमण यावत् मुक्ति (माप्त हुने उनोने चउथे वर्ग के दश अध्याय कहे, तो प्रथम अध्याय का क्या अर्थ कहा ? ॥ यों निश्चय है। जम्बू ! उसकाल उस समय में द्वारका नगरी, इसका कथन प्रथम गोतम कुमर के अध्ययन जैसा यावत् कृष्ण
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प्रकाशक - राजाबहादुर लाला सुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी #
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सूत्र
अर्थ
** अट्टमांग-अंतगड दशांग सूत्र
तेणं कालेणं तेणं समएणं बारवत्ती र जयरीए. सेसे जहा पढमे, जाव कण्हवासुदेवे. आहेवच्चं जाव विहरति । तत्थणं बारवत्तीए णयरीए वसुदेवेराया धारणीदेवी बणवो, जहा गोयमे नवरं जालि कुमारे, पणासातोदाओ, बारसंगी, सोलस्सवासा परियापालइ, सेसं जहा गोयमस्त, जाव सतुंजे सिद्धे ॥ एवं मयालिओ, उपयालिओ, एवं पुरिससेणय, एवं वारिसेणय, एवं पज्जुणे, नवरं कण्हसेविता, रुप्पिणमाता । एवं संबेवि, वरं कण्हसेपिता, जंबुवतिमाया । एवं अनिरुद्धेवि, णवरं पजणेपिता, वेदर - भीमाया । एवं सच्चनिमित्रि णवरं समुद्दविजयपिता सिवामाया, एवं दटनेमिव ॥ सव् मोगa || इति चउत्थस्स वग्गस्स दसज्झयणा || ४ || १० || चउत्थो वग्गोसमत्तो ॥ ४॥
वासुदेव राजाराज करते विचरते थे ||२||तहां द्वारका नगरी में वसुदेव राजा धारणीराणी रहते थे. जैसे गौतम कमार हुवा तैसे ही जाली कुमार हुबा यावत् शत्रुजयपर भिद्ध हुआ || ३ || देस ही माली कुवार हुवा 'एसे हो. उजनी कुमार का भी, ऐम पुरषसेन कमरका भी, ऐसेही वारीसेन कुमारका भी। ऐसे ही पद्यकुमार का जिस में इतना विशेष-कृष्णजी पिता, ऋरूपनी माता ॥ ऐल साथ कामर का भी जिम में इतना विशेष कृष्णदिता जाम्बुवती माहा ! ऐसे ही अनिरुद्ध कुमारका भी विशेष में प्रद्युम्न कुमार पिता, वेदर भी माता एनेही सत्यमी कुमारका विशेष में-समुद्र विजय पिता शिवदिवी माता और ऐसे ही दृढनेमी कुमारका भी, सव का एक सारखा अधिकार जानना । इति चौथे वर्ग के तेरे अध्ययन और चौथा वर्ग समाप्त ॥ ४ ॥
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चतुर्थ वर्गका दशम अध्यायन
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2. अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी -
॥ पञ्चम-वर्ग ॥ जइणं भंते! समणेणं जाव संपत्तेणं चउत्थरस वग्गस्त अयम? पण्णत्ते, पंचमस्सणं भंते वग्गस्स अंतगडदसाणं समणेणं जाव संपत्ते के अटे पण्णत्ते ? ॥१॥ एवं खलु जंबु ! समणेणं जाव संपत्तेणं पंचमस्स वग्गस्स दस अज्झयणं पण्णत्ता तंजहा पउमावइ, गोरी, गंधारी, लक्खमणा, सुसीमाए, जंबूवती, सच्चभामा, रुप्पणी, मूल सिरी, मूलदत्तावि ॥ २ ॥ जइणं भंते ! समणेणं जाव संपत्तेणं पंचमस्स वग्गस्स दस अज्झयणा पण्णत्ता, पढमस्सगं भंते ! अज्झयणस्स के अटे पण्णत्ते ? ॥ ३ ॥ • यदि अहो भगवान ! श्रमण भगवंत श्री महावीर स्वामीजी मोक्ष पधारे उनोने चउथा वर्ग का उक्त अर्थ: कहा, अहो भगवान ! अंतग उदाशा के.पंचवे वर्ग का क्या अर्थ कहा है! ॥१॥ यों निश्चय हे जम्बु ! श्रमण यावत् मुक्ति पधारे उनोने पांचवे वर्ग के दश अध्यायन कह हैं,उन के नाम १ पद्मावतिरानीकारगोरीरानीका -३गंधारीरानी का, ४ लक्ष्मनारानी का, ५ सुसमारानी का, ६ जम्बुवतिरानी का, ७ सत्यभामारानी का, ८
रुक्मिनी रानीका (यह ८ कृष्णजीकी अग्रमहेपी)९ मूलश्रीरानीका,और१०मूलदत्तारानीका॥२॥ यदि अहो भगवान ! श्रमण यावत् मुक्ति पधारे उनोने पांचवे वर्ग के दश अध्ययन कहे हैं, तो अहो भगवान ! प्रथम अध्याय का क्या अर्थ कहा है ?॥३॥ हे जम्ब ! उस काल उस समय में द्वारका नगरी, इस का
प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदवसहायजी ज्वालामसादजी
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एवं खलु जंबु ! तेणं कालेणं तेणं समएणं वारवतिए नयरीए जहा पढमेए जाव __ कण्हवासुदेवे अहे बच्चं जाव विहरति ॥ ४ ॥ तस्स कण्हवासुदेवस्स पउमवति
नामं देवी होत्था वण्णओ ॥ ५ ॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं अरहा अरिट्ठनेमी जाव समोसढे जाब विहरति ॥ ७ ॥ कण्ह निग्गते जाव पज्जुवासति ॥ ७ ॥ तत्तणं सा पउमावति देवी इमीसेकहा लट्ठसमाणा हटे जहादेवइ जाव पज्जुवासंति ॥ ८ ॥ तएणं अरहा अरट्ठनेमी कण्ह वासुदेवस्स पउमावइए देवीए जाव धम्मकहाए
परिसा पडिगया ॥ ९ ॥ तएणं से कण्हं अरहा अरिट्ठनेमी वंदइ नमसइ, वंदित्ता वर्णन प्रथम अध्याय के जैसा जानना यावत् कृष्ण वासुदेव अधिपति पना करते विचरसे थे ॥ ४ ॥ उन
ग वासुदेव के पद्मावती नामकी रानी थी वर्णन योग्य ॥५॥ उस काल उस समय में अरिहंत अरिष्ट नेमनायी यावत् यावत् पधारे यावत् विचरने लगे ॥६॥ कृष्ण वासुदेव और परिषद वंदने आई यावत् सेवा भक्ति करने लगी।तब पद्मावती रानी को यह कथा प्राप्त होने से हृष्ट तुष्ट हुई जिसमकार देवकी रानी
वंदनेगई तैसे यह भी यावत् सेवा करने लगी॥८॥मईत अरिष्टनेयी कृष्णवासुदेव पद्मावती को यावत् धर्म कथा 10 सुनाई परिषदा पीछी गई ॥ ९ ॥ तब कृष्ण वासुदेव अरिहंत अरिष्ट नेमीनाथ भगवान को वंदना नमस्कार है ..
8488 अष्टमांग-अंतगड दशांग सूत्र 480
पचम वर्गका प्रथम अध्ययन
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मत्र
मुनि श्री अमोलक ऋषिजी -
नमांसत्ता एवं पयासी इमीसेणं भंते! वारवतिए णयरीए णवजायणं विच्छिन्ना जाव पच्चक्खदेवलोक भृताए किं मूलाए विणीसे भवस्मइ ॥ १० ॥ कण्हाइ अरहा अरिटुनेमी कण्हवासुदेवं एवं क्यासी-एवं खलु कण्हा ! इमीसे वारवतिएनयरीए नवजोयण विछिन्ना जाव देवलोकभूयाए म्यग्गी दीवायणमूला ते विणासे भविस्सइ ॥ ११ ॥ कण्हवासुदेवस्स अरहा अरिट्टनेमीरस अंतिए एवमटुंसोचा निसम्म अयं अज्झस्थिए जाव समुप्पन्ले धन्नेणते जाली, मयाली, उवयाली, पुरिससेण, वारीसेण,
पज्जुण, संब. अनिरुद्धे, सच्चनेमी, दढनेमी पभत्तीओ कुमारा जेणं चिच्चाहिरणं जाव करके यों पूछने लगे-अहो भगवन् ! द्वारका नगरी नव योजन की चौडी यावत् प्रत्यक्ष देवलोक जैसी इस का किस कारन से विनाश होवेगा ? ॥ १० ॥ कृष्णदि, आरिहंत अरिष्ट नेमीनाथ कृष्ण वासुदेव से यों बोले-यों मिश्चय, हे कृष्ण ! यह द्वारका नगरी नव योजन की चौडी यावत् देवलोक जैसी अनि कुमार देवता दीपायरूपी मरकर होगा उस के योग्य से इस का विनाश होगा ।।११।। कृष्ण वासुदेव अरिहंत अरिष्ट नेमीनाथ भगवन्त के मुख से उक्त अर्थ श्रवण कर इस प्रकार विचार करने लगे-धन्य है जाली. मयाली, उचाली, पुरिषसेन, बारीसेन, प्रद्युम्न, साम्ब, अनिरुद्ध, सत्यनेमी तथा दृढ नेमी प्रमुख कुमारों को कि जिनोंने हिरणादि (चांदी प्रमुख ) का त्याग कर यावत् विभाग बांटकर अरिहंत अरिष्ट
*प्रकाशक-सजावहदर लाला सुखदवमहायजी घालाप्रसादजी
iranormanawani
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सूत्र
अर्थ
अष्टमांग-अंतगड दशांग सूत्र +4
परिभाएत्ता अरहतो. अरिट्ठनेमस्त अंतियंमुडे जात्र पव्वइया ॥ १२ ॥ अहणं अधणे अकय पुणे रज्जेय जाव अंतेउरिय माणुस्सएसुय कामभोगेसु मुच्छित्ते ४ नोसंचाएमी, अरहतो अरिट्ठनेमी जाव पव्वइत्तवे ॥ १३॥ कण्हाति अरह अरिट्ठनेमी कण्हवासुदेवं एवं बयासी-से गूणं कण्हे! अयं अज्झत्थिए जाव समुप्पणे- धनेते जाय पइए सेणूणं कण्हा ! अट्ठेसमट्ठे ? हंता अस्थि || १४ || तंनो खलुकण्हा एवं भूयंवाभवता भविस्सइबा जणंवासुदेवा चइत्ताहिरणं जाव पव्वइसति ॥ १५ ॥ से केणट्टेणं अंत ! एवं बुच्चइ न एवं भूयं जाव पव्वइरसई ? कण्हति अरहा अरिट्ठनेमी कण्हवासुदेवं एवं वयासी- एवं खलु कण्हा ! नेमीनाथ भगवान के पास दीक्षा धारन की ||१२|| मैं अध्यन्य हूं अकृत अपुण्य हूं यावत् अन्तपुर में मनुष्य सम्बन्धी काम भोग में हो रही हुं, यावत् गृद्ध बनाहु इस से अर्हन्त अरिष्ट नेमीनाथ भगवान के { पास यावत् दीक्षालेने समर्थ नहीं हूँ || १३ || कृष्ण ! अन्त अरिष्ट नेमीनाथ भगवान कृष्ण मामुदेव से ऐसा बोले- हे कृष्ण ! तेरे को इस प्रकार अध्यवसाय यावत् उत्पन्न हुवे धन्य है जाली आदि कुमार को यावत् जिनोंने दीक्षा धारन की ? कृष्ण बोले- हां भगवान ! सस है, ऐसा विचार मुझे हुवा ॥ १४ ॥ ई हे कृष्ण ! निश्चय ऐसा हुवा नहीं होता, भी नहीं, और होगा भी वही कि कभी वासुदेव हिरन्यादि का त्यागकर दीक्षा ग्रहण करे || १५ || अहो भगवान ! वह किस लिये ऐसा कहा कि ऐसा न हुवा
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पंचम वर्गका प्रथम अध्ययन
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अर्थ
4 अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी
सव्वावयणं वासुदेवा पुन्वभवे नियाणकडा से तेणं अटुणं कण्हा एवं बुच्चइ एवं एवंभू जाव पव्त्रइस्सति ॥ १६ ॥ तत्तेणं कण्हवासुदेवं अरहं अरिनेमी एवं वयासी - अहणं भंते ! इओ कालमासे कालंकिच्चा कहिं उवजिस्सामि ? ॥ १७ ॥ ततेणं अरहा अरिट्ठनेमी कण्हवासुदेवं एवं वयासी एवं खलु कण्ह ! तुमं वारवतिए यरिए सुरिग्गी दीवाय कोविनिट्ठाए अम्मापियरो णियग्गवि पहुणे रामेणं बलदेवेणं सद्धिं दाहिणे बेयोलियभिमूहे जुंहिट्ठल पामोक्खाणं पंचण्ह पंडवाण नहोता है और नहोवेगा कि वासुदेव दीक्षाले ? || कृष्णदि ! अरहन्त अरिष्ट नेमीनाथ कृष्ण वासुदेव से ऐसा बोल-यों निश्चय हे कृष्ण ! सब ही वासुदेव पूर्व भव में नियाला करते हैं, उस लिभ हे कृष्ण ! ऐसा कहाकि --- वासुदेव नतो दीक्षाली है नेलेत हैं और नलेसवेगे || १६ || तब कृष्ण वासुदेव अर्हन्त अरिष्ट नेमीनाथमे ऐसा कहा अहो भगवान ! में यहांसे कालके अवसर काल करके कहाँ जानूंगा ? ॥ १७ ॥ तत्र अर्हन्त अरिष्टनेमीनाथ कृष्णवासुदेव से ऐसा वोले यों निश्चय है कृष्ण ? तुम द्वारका नगरी अग्निकुमार देवता दीपायन के जीवसे प्रज्वलित होने से मातपिताको लेकरजाते देव के साथ दक्षिण दिशा समुद्र की बेल आवे उधर युधिष्टर प्रमुख पांच पंडवों पास पांडुमथुरा को
उन का मृत्यु हुये राम पांडुराजा के बुत्रों के
{ जाते रास्ते में कोसंबीवन में निग्रोध (बड) के वृक्ष के नीचे पृथ्वीसिला पटपर पितांबर से अच्छादित
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mat
* प्रकाशक- राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वाला प्रसादजी *
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4. 8
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पंडूराय पुत्ताणं पासं पंडूमहुरं सपत्थिते कोसंबकाणेणं नगोहवरपायस्सअहे पुढवि सिलापट्टए पियएवछाईयसरीरे जराकुमारे तिणणंकोडंडविप्पमुक्केणं उसूणा वामपादे विहसमाणे कालमासेकालंकिच्चा तच्चाए वालुप्पभाए पुढवीए उज्जलिए नरएत्ताएं उववजिहिसि ॥ १८ ॥ तएणं से कण्हवासुदेके अरहा अरिटुनेमी अंतिए एयमटुं सोचा निसंम्म ओहयं जाव झियाइं ॥ १९ ॥ कण्ह ! अरहा अरिट्ठनेमी कण्हेवासुदेवेणं एवं वयासी माणं तुम्ह देवाणुप्पिया ! उहया जाव झियाहि । एवं
खलु तुम्हं देवाणुप्पिया ! तच्चाओ पुढविओ उज्जलित्तए नरयाओ अणंतरं उवट्टित्ता अर्थ शरीर से जराकुमार के तीक्षण धनुष्य से बाण मुक्त किये वह बाण वांयें पांवको विन्धनेसे काल के अवसर
काल करके तीसरी धालुप्रभा पृथ्वी में उज्यल वेदना में नरक में नेरीयेपने उत्पन्न होवोगे ॥ १८॥ तब
कृष्ण वासुदेव अरिहंत अरिष्ट नेमीनाथ भगवान के मुख से उक्त अर्थ श्रवण कर अवधारकर चिन्ता * ग्रस्त बने यावत् आध्यान ध्याने लगे ॥ १९ ॥ कृष्ण ! अरिहंत अरिष्ट नेमीनाथ कृष्ण बासुदेव से यो
कहने लगे-हे देवानुप्रिय ! तुम चिन्ता मत करो, यावत् आर्तध्यान मत ध्यावो. यों निश्चय तुम हे देवानुप्रिय ! तीसरी नरक की उज्वल वेदना भोगवकर तीसरी नरक से निकल कर अन्तर रहित । |
अष्टमांग अंतगड दशांग मूत्र 4
पंचम-वर्गका प्रथम अध्ययन 4.88
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सूत्र
अर्थ
48 अनुवादक- बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी
इहेत्र जंबुद्दी र भारदेवासे आगमिस्साए उस्सप्पिणीए पुंडेसु जणवएस सयदुवारे जयरे कारसमो अममोनामं अरहा भविस्सइ, तस्थणं तुम्हं बहु वासाई केवल परियागं उणित्ता सिज्झिहिस्सि ॥ २० ॥ तत्तेणं कण्हवासुदेवे अरहतों अरिट्ठनेमी अंतिएतो एयमट्ठ सच्चा निसम्म हठतु अप्फोडतिर बगाइ २त्ता, तिवंछति २ तासीहणायं करेई, अरहं अरिठ नेमी वंदित्तं नमसित्ता तामेव अभिसेकं हत्थि रयणं दुरुहइ २त्ता जेणेव वारवतिएण रिए जेणेव जाव सएगिहे तेणेव उवागच्छइ २त्ता तामेव अभिसेकं हण्थि राणयओ पचोरुहइ
इस ही जम्बूदीप के भरत क्षेत्र में, आगमिक उत्सर्पिणी काल में पांडुदेस में शतद्वारा [सो द्वाखाली नगर में बार आमम नाम के अरिहंत होवोगे, तहां तुम बहुत वर्ष केवल पर्याय का पालनकर यावत् सिद्ध होवेंगे ॥ २० ॥ तव कृष्ण वासुदेव अर्हन्त अरिष्टे नेमीनाथ भगवंत के पास उक्त अर्थ श्रवनकर अवधारकर हृष्ट तुष्ट हुवे साथल से हाथ स्फोट किया, स्फोटकर हर्षमय शब्दोचार किया, शब्दो चार कर, उस तिव्र दुःख का छेदन किया, छेदन कर सिंह नाद किया अरिहंत नेमीनाथ को बंदना नमस्कार कर उस हो अभिशेष हस्ति रत्न पर स्वार हुवे, स्वार होकर नहीं द्वारका नगरी, जहां स्वयंका घर था, तहाँ आये, आकर अभिषेक हस्ति रत्न से नीचे उतरे, उतर कर जहां वाहिर की उपस्थानशाला, राज्यं
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* प्रकाशक - राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी
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त्ता जेणेव बहिरिया उपद्वाणसाला जेणेव सिहासणे तेणेव उवागच्छइ . त्ता सीहासवरसि पुरस्थाभिमूहे निसीयइ र त्ता कांडुंबिय पुरिसे सहावेइ २. एवं वयासी- गच्छहणं तु देवाणुप्पिया ! वारवतिए नयरिए सिंघाडग जात्र घोसेमा एवं एवं खलु देवाणुप्पिय ! वारवत्तिणयरिए नत्रजोयण आव देवलोग भूयाए सुरग्नि दीवायण मूलाए विणासे भविस्सति तं जेणं देवाणुप्पिया ! इच्छति वारवतिय या ईसरे माडंविए कोडंबिय इन्भसेट्टींचा सेणावइवा देवित्रा कुमारोवा अरहतो. ..अरिनेमिस्स अंतिए मुंडे जाव पव्वइए, तत्तेणं कण्हे वासुदेवे विसज्जते ! पच्छा तुरस्स सभा थी तहाँ आये, आकर सिंहासन पर पूर्वाभिमुख बैठे, बैठकर कौटुम्बिक पुरुष को चोलामा, बोलाकर { यों कहने लगे- जावो तुम हे देवानुप्रिया ! द्वारका नगरी में जीवट चौवट यावत् उदघोषना करते हुवे ऐसा कहो-यों निश्चय हे देवानुप्रियाओं ! द्वारका नगरी नव योजन की चौडी यावत् प्रत्यक्ष देवलोक } जैसी अधिकुमार देवता दीपायन का जीव उस के योग्य से विनाश होवेगा, इस लिये जिस की इच्छा होवे (द्वारका नगरी के रहीस राजा ईश्वर माविक कुटुम्बिक ईभपति शेठ सेनापति राणीयों कुमरों आदि व अरिहंत अरिष्ट नेमीनाथ भगवान के पास मुण्डित हो दीक्षा ग्रहणकरो, उन को कृष्णवासुदेव आज्ञा देता है
·
488+ अष्टमांग-अंतगड दशांग सूत्र- 486+
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००१०१+ पंचम वर्गका प्रथम अध्ययन 4++
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मुनि श्री अणेला अमिती
41 वियरसे अहपजिति अणुजाइहत्ताए, महत्ताइड्डी सक्कार समुद्दएणं तीसेनिक्खमणं
करेइ, दोचंपि तच्चपि घोसेणं घोसेह, ममं एयमाणत्तियं पञ्चप्पिणह ॥ २१ ॥ तत्तेणं कोडुविय जाव पच्चप्पिणंति ॥ २२ ॥ ततेणं पउमावइं अरहंतो अंतिए धम्मंसोच्चा निसम्महट्ठा जाव हियया, अरहं अरि? नेमीवंदति णमंसति एवं क्यासी-सदाभिणं
भंते!निग्गंथे पावयणे, से जहेय तुब्भेवदह, जं णवरं देवाणुप्पिया! कण्हवासुदेवस्स | उन का पीछे जो कुटुम्ब रहेगा उस की चिन्ता उस का निर्वाह कृष्ण करेगा और दीक्षा ग्रहण करनेवाले
का दीक्षा उत्सव महा ऋद्धि सत्कार समुदाय करके करेगा, इस प्रकार दो वक्त तीन वक्त उदघापना करो, उद्घोषना कर यह मेरी आज्ञा पीछी मेरे सुपरत करो ॥ २१ ॥ तब कुटुम्बिक पुरुषने उस ही प्रकार उद्घोषना की, करके कृष्ण वासुदेव को आज्ञा पीछी सुपरत की ॥ २२ ॥ तब पद्मावती देवी अरिहंत, अरिष्ट नेमीनाथ भगवान के पास धर्म श्रवण करके अवधाकर हर्षसन्तोषपाइ यावत् हृदय में 'विक्सायमान हुई, अहन्त अरिष्ट नेमीनाथ भगवंत को पंदना नमस्कार कर यों कहने लगी-अहो भगवान ! मेने श्रद्धे
निग्रन्थ के प्रवचन जिस प्रकार आपने कडे वे सब सत्य हैं, विशेष इतना ही है कि अहो देवानुप्रिया ! मैं काष्णवासुदेवको पूछकर देवानुप्रिय के पास मुण्डित होगी-दीक्षा धारन करूंगी।भगवंतने कहा हे देवानुपिया।
प्रकाशक राजावहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी
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5.
अर्थ
48+4 अष्टमांग अंतगड दशांग सूत्र
अपुच्छामि तत्तेणं अहं देवाणुपियाणं अंतिए मुंडे जाव पव्त्रयामी ॥ अहा सुहं ॥ २३ ॥ तत्तेणं सा पउमावइदेवी धम्मियं जाणपररं दुरुहइ २ त्ता जेणेव वारवतिणयरिए जेणेव सएगिहे तेणेव उवागच्छ २ न्ता धम्मियातो जाणप्पञ्चरातो पचरुहइ, जेणेव कण्हवासुदेव तेणेव उवागच्छ २ चा करयलकडु कण्हवासुदेवे एवं वयासी - इच्छा. मिणं देवापिए ! तुब्भेहि अन्न वायासमाणा अरहतो अरिठमेमीस्स अंतिए मुंडे जाव पव्वय हूं || आहामुहं ॥ २४ ॥ तत्तेनं मे कहवासुदेवे कोडुंबिय पुरिसे साइ २ ता एवं बयासी खियामेव भो देवाणुथिए ! पउमावइए महत्थ ३
सुख होवे सो करो. ॥ २३ ॥ तव पद्मावती देवी धार्मिक रथ पर स्वार होकर जहां द्वारका नगरी थी जहां स्वयं का घर था तहां आई, तहां आकर धार्मिक रथ से नीचे उतरी, नीचे उतर कर, जहां कृष्ण वासुदेव थे. तहाँ आई, आकर हाथ जोडकर कृष्ण वासुदेव से ऐसा बोली- अहो देवानुप्रिय ! आपकी आज्ञा हो तो मैं अरिहंत अरिष्ट नेमीनाथ के पास मुण्डित हो दीक्षा धारन करूं ? तब कृष्ण वासुदेव ने कहा- जैसे सुख हो वैसा करो ॥ २४ ॥ तब कृष्ण वासुदेव कौटुम्बिक पुरुष को बोलाया, बोलाकर कहने लगे हे देवानुमिय ! शात्रतासे पद्मावती देवीका महा अर्थवाला बहुमूल्य बहुत खरचबाला दीक्षा अभिशेष उपस्थापों, यह मेरी आज्ञा पीछी मेरे सुपरत करो. कौटुम्बिक पुरुषने बैसा ही काम करके
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48-4 पंचम वर्गका प्रथम अध्ययन
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१ अनुवादक-बालब्रह्मसरीमान श्री अमोलक ऋषिजी
निखममापो भिसेय उवट्टबेहि ॥ एवमाणत्तीयं जाब पचप्पिणति ॥ २५ ॥ सत्तेणं कण्हवासुदेवे प्रउमावइदेवी पसंसि दुरुहइ २ त्ता अट्ठसयएणं सोक्नकलसं जाव निक्रमणाभिसे एणं अभिसंचइ २ प्ता सम्वालंकार विभमियं करेइ २ ता परिस्सं सहरस वाहणी सिविया दुरुहइ २ त्ता बारवतिणयरिए मझमझेणं निगच्छइ २ त्ता जेणेव रेवएपपए जेणेथ सहमंचरणे उमाणे तेणेव उपागच्छइ२ त्ता सिवियं 8वेइत्ति परमायइदेवी सिवातो पच्चोरुहइ २ सा जेणेव अरहा अरिष्टुनेमी तेगेव उवागच्छइ२ त्ता अरहं अरिनेमी तिक्त्त्तो आयाहीणं पयाहीणं वंदइ नमसइ बंदित्ता नमंसित्ता
एवं वयासी-एसिणं भंते ! मम अग्गमहिरिस पठमावइ नामं देवी मम इट्ठा कंता पियाभाज्ञा पीछी सररन की ॥ २५ ॥ तब कृष्ण बासुदेबने एमावती देवी को पाटपर बैठाई, पैठाकर एक सो
आठ सोने के कलश यावत् निक्षमन अभिशेष से सींचन की. सर्व अलंकारों से विभूषित की, विभूषितकर इजार थुरुप उटाचे ऐसी शिरका में बैठाई, द्वारका नगरी के मध्य २ में होकर जहां रेवती पर्वत जहां सहस्रम्प उद्यान या तहां आये, आकर शिविका स्थापन की, पावती शिविका से नीचे उतरी फिर कृष्ण वासुदेव उसे आगेकर जहां अरिहंत अरिष्ट नेपीनाथ थे तहां आये, आकर अरिहंत अविष्ट नसीनाथ कोसीन का अंदना नमस्कार किया वंदना नमस्कार कर यों कहने लगे-अहो भगवान यह मेरी अग्रमहेषी प्रमावती नामकी देवी *.
प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायनी ज्वालाप्रसादजी *
CERImand
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RANTaitriNTIANE
मणुणा: मणाभारामा जार मग्गपुण पासणयाए, तेणं अहं देवाणुप्पिया ! सिस्स णिभिक्खं दलयति, पड़िछणं देवाणुप्पिया ! सिस्सणिभिक्खं ॥ अहाहं ॥ २६ ॥ नत्तेणं. सा. पउमावइ उत्तर पुरच्छिमे, दिस्त्रिभागे अवक्रमवि. सयमेव आभरणालंकारं उमपइ २. त्ता सयमेव पंचमुठियं लोये करेइ २ ता जेणेव अरहा अरिट्ठनेमी तेणेवः उवागए। अरहं अरिठ्ठनेमी वंदइ ममंसइ बंदित्ता नमेसित्ता एवं वयासीआ-लिनेणं
भंते ! जावः धम्ममातिक्खयं ॥ २५ ॥ तत्तेणं अरहा. अस्टिनेमी. पउमावइदेवि LE} मुझे इष्टकारी, सियकारी, मनोज, मन. को, अभी राम, यावत् क्या फिर कहां से देखनके ? इसे में अहो।
देवान प्रिया ! आप को शिष्पनी रूप भिक्षा देताई आप इस शिपांनी रूपमिक्षा को ग्रहणकरो. भगवान के कहा-जैसे सुख, उत्पन्न होवे वैसे करो ॥ २६ ॥ तब पद्मावतीदेवी उत्तर पूर्वदिशा के मध्य ईशान कौन से
गह, सर्व, अलंकार अपने हाथ सेही उतारे, स्वयं अपने हाथ में ही पंचमुष्टिलोच किया, लोचकर अर्हन्त । IPS अरिष्ट नेमीनाथ,थे, तहां आइ, तहां आकर अन्ति. परिष्टनेमीनाथ. को बंदग नमस्कार किया, वंदना
नमस्कार कर यों कहने लगी-यों निश्चयः हे. देवानुप्रिया ! इस संसार में अलीते पलीते लगे हैं, इस से में आप के शरण आताई आप है। मुझे दीक्षा दो यावन् धर्म सुनावो ॥ २७॥ तब अन्ति. अरिष्ट नेमीनाथ
अशंग- अंतमह दशांग सूत्र
पंचम वर्गका प्रथम अध्ययन
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.. A
ॐ
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B
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१ अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषि
सयमेव पव्वएइ २ तास्यमेव मुडावेति २त्ता सयमेत्र जक्खणीए अजाए सिस्सिणिताए दलयंति ॥ २८ ॥ तत्तेणं सा जक्खणिअजा पउमावइदेविं सयमेव पव्वावेइ २ जाव संयमिव्वं ॥ २९ ॥ तत्तेणं सापउमावइ अज्जा जाया इरिआसमिए जाव बंभगुप्त.. यारिणी ॥ ३० ॥ ततेणं सा पउमावईअजा, यक्खणीए अज्जाते अंतिए सामाइयाई एक्कारस्स अंगाई अहिज्जइ २ ता बहुई चउत्थ छटुटुम विविहं तवोकम्मं अप्पाणं भावेमाणे विहरइ ||३१|| तएणंसा पउभावई अज्जा बहुपडिपुण्णाइ वीसंवासाइ सामणं परियाई पाउणत्ति, मासियाए सलेहणाइ अप्पाणं झुसेइ २ ता सट्टिभत्ताइं अणस
पद्मावती देवी को स्वमेव दीक्षादी, स्वयमेत्र ( मन ) मुण्डित की, अथवा रज्जोहरणादि उमकरण दिया, स्वयंमेत्र यक्षनी नाम की बड़ी आजिंका की शिष्पनी पने दी ॥ २८ ॥ तब वह यक्षनी आर्जिका पद्मावती देवी को स्वयंमेव प्रवर्जित की—हित शिक्षादी यावत् संयमकर इन्द्रियों का निर्जय करना ऐसा कहा ॥ २९ ॥
तक वह पद्मावती आर्जिका इर्यासमिति युक्त यावत गुप्त ब्रह्मचर्यनी बनी ||३०|| तब वह पद्मावती आर्जिका यक्षनी आर्जिकाके पास सामायिक आदि इग्यारे अंग पढी, पढकर बहुत उपवास बेले तेले आदि अनेक { प्रकार के तप कर्म कर अपनी आत्मा को भावती हुइ विचरने लगी ||३१|| तब वह पश्चावती आर्जिका बहुत प्रतिपूर्ण बीस वर्ष पर्यन्त साधु की पर्याय का पालन किया, एक महीने की सलेपना की, पाप आत्मा को
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# प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी *
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अष्टांग-अंतगड दर्शाग सूत्र
गाए छेदेति, अस्सट्टाए करेति नग्गभावे मुंडेभावे जाव तंमटुं आराहेइ, परिमुस्सा सेहे सिद्धा ॥ २८ ॥ पंचमवग्गरस पढमज्झयणं सम्मत्तं ॥ ५ ॥१॥ . + तेणं कालेणं तेणं समएणं वारवतिए णयरीए रिवयपव्यए गंदणवणे उज्जाणे,॥१॥तत्थणं वारवतिए कण्हवासुदेवेराया ॥ तत्थणं कण्हवासुदेवस्स गोरीदेवी वण्णओ ॥ २॥ अरहा अरिट्ठणेमी समोसड्डे, ॥३॥ कण्हे जिग्गए, गोरी जहा पउमावइ, तहा णिग्गया, धम्मकहा परिस्सा पडिगया ॥ कण्हवि ॥ ३ ॥ तत्तेणं सागोरी जहा पउमावई तहा णिक्खत्ता जाव सिहा ॥ ३ ॥ वित्तिय अज्झयणं सम्मत्तं ॥ २ ॥ २॥ +
एवं गंधारी, एवं लक्खणा, एवं सुसीमा, एवं जंबति, सच्चभामा, रुप्पिणी, एवं झोंसकर साठ भक्त अनशन का छेदकर, जिस लिये उठी थी तपालुष्टान करती थी ननभाव ममत्व रहित ।
पना, मुण्डभाव-कषाय रहितपना कर उस अर्थ का आराधन किया, अन्तिम श्वासोश्याम में सिद्ध हुई. 90 इति पंचम वर्ग का प्रथम अध्ययन संपूर्ण ॥ ५ ॥१॥ उस काल उस समय में द्वारका नगरी, रेवतीपर्वत,
नंदन वन उद्यान ॥१॥ तहां द्वारका नगरी में कृष्ण वासुदेव राजा राज करते थे, जिन के गोरी नाम की 4 अग्रमेही राणी थी, उस का वर्णन जानना ॥२॥ अरिहंत अरिष्ट नेमीनाथ भगवान पधारे ॥ ३ ॥ कृष्ण विंदने आये, गोरीराणी भी पद्मावतीराणी की तरह आई, धर्मकथामुनी, परिषदा पीछीगड, कृष्णजी भी पीछे गये,॥३॥ गोरीराणी भी पद्यावती रानीकी तरे दीक्षाले सिद्ध हुई ।। इति पंचम वर्ग का दूसरा अध्याय संपूर्ण
पंचम-बगेका २८ अध्ययन
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अट्टेवि पउभावइए सरिस्साओ ॥ अट्ट अञ्झयणा सम्मत्ता ॥ ५॥ ८॥ - तेणं कालणं तेणं समएणं वास्वतिए जयरीए रेवयपबओ, गंदणवणे,कण्हेवासुदेवे॥१॥ तत्थणं वास्वइए णयरीए कण्हवासुदेवस्स पुत्ता जंबवतीदेवीए अत्तए संवेणामं कुमारे होत्था : अहीण ॥ २ ॥ तस्सणं संब कमारस्स सलसिरिणामं भारियाहोत्था वणओ ।। ३ ।। अरहा अरिट्ठनेमी समोसड्डे, कण्हणिगाए, मूलसिरिणिगाय, जहा पउमावइ, जं नवरं देवाणप्पिया! कण्हासदेवं आपच्छामि जा सिहा॥ ४॥ नवमं अज्झयणं सम्मत्तं ॥ ५ ॥ ९ ॥ एवं मूल दत्तावि ॥ दशमं अज्झज्झयणं सम्मत्तं १५॥१०॥
पंचमावग्गो. सम्मत्तो । ५ ॥ EM॥२॥ ऐसे ही-मंधारी, लक्ष्मना, मसपा, जांबवती, ससभामा, रुक्मनी, इन आठों का एकसाब
पद्मावती राणी जैसाही अधिकार जानना ॥ इति पंचम वर्म अष्टम का अध्याय संपूर्ण ॥५॥३-८॥ एसाह अधिकार मूलश्री काभी जानना, जिसमें इतनाविशेष-कृष्णवासुदेवका पुत्र जम्बूवतीसणी का अंगजात साव कुमार, जिसकी स्त्री मुलश्री थी, उसने भी पद्मावत की तरह कृष्ण की आज्ञाले दीक्षाली यावत् सिद्ध हई।ई
इति पंचम वर्ग का नवम अध्याय संपूर्ण ॥५॥ ९॥ मूलश्री के जैसी मब अधिकार मूलदत्ता का भी। कुल जानना ॥ इति पंचम वर्ग का दशम अध्याय संपूर्ण ॥ ५॥१०॥ इति पंचम वर्ग समाप्त ॥ ५ ॥
अनुबादक-बालप्रझलारी मुनि श्री अमोलक ऋपिनी
.प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखंदवं सहायजी ज्वालाप्रसादजी ..
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, अहमांग-अंतगड दशांग सूत्र है-428
* षष्टम्-वर्ग * जइण भंते ! छट्ठस्स उक्खेवओ, णवरं सालस्स अज्झयणा पण्णत्ता तंजहा-मकाई, विकम्मे, चव; मोगरपाणिय, कासवे ॥ खेमते, धितिधरे चेव, कइलासे, हरिचंदणे ॥ १ ॥ वीरत्त, सुंदसणे, पुणभदे तह सुमणभदे। सुपइट्टि,मिहत्ति, अतिमुत्ते, अलख अज्झयणाणंतु सोलसयं ॥ २ ॥ जति सोलस्स अझयणा पण्णत्ता, पढमस्सणं भंते ! अज्झयणस्स के अट्ठ पग्णत्ते ? ॥॥ एवं स्खलु जंबु ! तेणं कालणं तेणं समएणं रायगिहे णगरे, गुणसिलए चइए, सेणिएराया ॥ १ ॥ तत्थणं मकाई णाम गाहाबई
यदि अहो भगवान ! छठा उक्षेप,विशेषमें इस वर्ग के सोले अध्याय कहे हैं; उन के नाम-7 मकाइ गाथा पतिका,२ वीकर्म गाथापीतका, ३ मोगर पानी यक्षका(अर्जुन मालीका) काश्य गाथापति का,५ क्षेप गाथापति का, ६वृतिधर गाथापति का, ७ कैलाब गायापति का ८ हरीचंद गायापति का, २ वीरक्त गाथापति का, ११० सुदर्शन गाथापति का, ११ पूर्णभद्र गाथापति का, १२ मुमनभद्र गाथापति का १३ सुप्रति गातापमि का, १४ मिहती गातापनि का, १५ अतिमुक्त कुमर का और १६ अलख राजा का वह १७ अध्ययन के नाम जामना ॥ २॥ यदि छठे वर्ग के सोले अध्ययन कहे तो अहो । भगवान ! प्रथम अध्ययन का क्या अर्थ कहा है ॥२॥ यों निश्चय ह जम्बु ! उसकाल उस समय में राजगृहर
48:04 षष्टम वर्गका प्रथम अध्ययन
अर्थ
Aarmnanaanaandaai
WRIES
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पारवसइ अहे जाव अपरिभूए ॥२॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे आइगरे जाव गुणसिले जाव विहरंति ॥ परिस्साणिगया ॥ ३ ॥ तत्तेणं से मक्काइ गाहावइ इमिस्से कहाए लढे जहा पण्णतीएगंगदत्त तहेव इमोवि, जेठ पुत्ते कुडंबे ठावित्ता, पुरिस्स सहस्त वाहणीए सीयाए निक्खते जाव अणगारे जाए,इरिया समिए जाव गुत्तभयारी ॥ ४ ॥ तएणं से मकाइ अणगारे समणस्स भगवओ महावीरस्स
तहा रूवाणं थराणं अंतिए सामाइयाई एक्कारअंगाइ आहिज्जइ, सेसं जहा खंधयस्स, अर्थ/ नगरी, गुनसिला चैस्य, श्रेणिक राजा ॥ २ ॥ तहां मकाइ नाम का गाथापति रहता था, वह ऋषिवंत यावर
E अपरा भवितथा ॥ ५ ॥ उस काल उस समय में भगवंत श्री महावीर स्वामी धर्म की आदि के करता
यावत् गुनसिलाबाग में विचरने लगे-परिषदा आइ ॥ ३ ॥ तब मकाइ गाथापति भगवंत का आगम श्रवनकर हर्षित हुवा यावत् भगवती सूत्र में गंगदत्त का अधिकार चला है तैसे ही बडे पुत्रको कुटम्ब में स्थापन कर हजार पुरुष उठावे ऐमी पालवी में बैठ भगवंत के पाम आये, यावत् दीक्षा धारन की यावत्
अनगार हुवे इर्यासमिति युक्त यावत् गुप्त ब्रह्मचारी वने ॥ ४॥ तव मकाइ अनगार श्रमण भवत श्री के महावीर स्वामी के पास के तथा रूप स्थविरों के पास सामायिादि इग्यारे अंगकपडे, और सब अधिकार
जैसा खंधकजी का भगवती मूत्र में कहा है जैसा ही सब इनका भी जानना. गुनरत्न संवत्सर तप किया,
। मनिश्री अमोलक ऋषिजी
प्रकाशक-राजावहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी
48अनुवादक-बालब्रह्मा
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48 अष्टमांग-अंतगड दशांग सूत्र -
गुणरयणं तवोकम्मं सोलस्सवासाइं परियाओ तहेव विउले सिद्धे ॥ ५ ॥ छट्वग्गरस पढमं अज्झयणं सम्मत्तं ॥ ६ ॥ १ ॥ दोच्चस्स उक्खवओ, विकम्मएणं एवंचव ॥ जाव विउल सिहे ॥ वित्तिय अज्झयणं सम्मत्तं ॥ ६ ॥ २ ॥ तच्चस्स उक्खेवउ- तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नयरे गणसिलाए नेइए, से गिएराया, चिलणादेवी, ॥ १ ॥ तत्थणं रायगिहे णयरे 'अज्जुणए णामं मालागार परिवसइ, अड्डे जाव अपरिभूए ॥ २ ॥ तस्सणं अज्जुणयश्स, मालागाररस बंधुमतिणामं भारिया होत्था, सुकुमाला जावसुरुवा ॥ ३ ॥ तस्सणं अज्जुणयस्स मालासोलह वर्ष दीक्षापाली तैसे ही विपुलगिरी पर्वतपर सिद्ध हुवे ॥ षष्टम वर्ग का प्रथम अध्ययन ६॥१॥ दूसरा अध्ययन-विक्रम गाथापति का जिस का सब कथन महिले अध्याय में कहें मकाइ गाथापति जैसा जानना. यावत् विपुलगिरीपर सिद्ध हुवा । छठा वर्गका दूसरा अध्याय समाप्त॥२ तीसरा अध्याय का उक्षेप-उसना उस समए में राजग्रही नामा नमरी गुणसिला नामा चैत्य, श्रीणक ? नामे राना, चिल्लणा नामे रानी ॥ १॥ तहां राजगृही नगरी में अर्जुननामे माली रहता था, वह ऋद्धिन्त यावत् अपराभवित था ॥२|| उस अर्जुन माली के वन्धुमति नाम की भारिया थी वह सुकुमाल यावत् सुरूप थी॥३॥उस अरजुन मालीका उस राजा गृहि नगरीके बाहिर यहां एक बडा पुष्पों का बगीचा था वह कृष्ण
48488+ षष्टम-वर्गका तृतीय अध्ययन Bet
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48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमालक ऋषिनी +
गारस्स रायगिहस्स बहिया एत्थणं महं एगे पुफारामहोत्था, किण्हहे. जाव निकुरंबभूए..... दसवन्नं कुसुम कुममइ, पासादिए दरिसणीजे अभिरुवे पडिरुवे ॥ ४ ॥ तस्सणं पुप्फारामस्स अदूरसामंते एत्थणं अज्जुणयसे मालागारस्स अजय पजयागत, अणेग- . कुलपुरिसे परंपरागते मोग्गरेपाणी जक्खस्स जक्खायणहोस्था, पोराणेहिवे. सच्चे जहा पुण्णभद्दे ॥ ५॥ तत्थणं मोग्गरपाणीस्स पडिमा एगं. महं पलस्सहस्सणिप्पणं अउमयं... १
मोयरं महायांचटुंति॥६॥ तस्स अज्जुणमालागारे. बालाप्पमिति चेव मोग्गारपानीयक्ख .. अयावन्त यावत् निरंकुरम्ब (सधन) भूत था वह पांच वर्ण के फूलोंकर सदैव फुला हुवा था वह चित्तको प्रसन्न करनेवाला, देखने योग्य, अभिरूप प्रतिरूप था ॥ ४ ॥ उसपुष्पाराम-बगीचे में मोगर पानी नामक यक्षका यक्षायतन मंदिरा था, वह अर्जुनमाली के दादे परदादे अनेक पीढीयों से परम्परा से मनिता पूराना था. उस में रहा देव सत्य वादी यात जमा पूर्ण भद्र यक्षका उबवाइ सूत्रमें कथन चला है ऐसा इसका भी यहां जानना ॥ ५ ॥ तहां उस मोगरपानी यक्ष की प्रतिमा एक बड़ा हमारपल जितने बजनवाला + लोहेका मुद्गल ग्रहण करके रही थी ॥ ६ ॥ उस मुद्गल पानी यक्षका अर्जुनमाली बचपनसे ही भक्त था,
+ पांच रति का एक मासा , सोले मासा का एक सोनैया, ( अर्थात् तीन टांक का एक सोनेया) चार सोनैया का एक पल, ऐसे एक हजार पल का वह मुद्गल जानना..
.प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदवसहाय की ज्वालाप्रसादजी
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488+ अष्टमांग-अंतगड दशांग मूष 4882
भत्तेयाविहोत्था, कल्लाकालि वत्थिय पडिलए गिण्हइ २ ता, राएगिहाओणयरिओ . पडिणिक्खमइ २ त्ता जेणव पुप्फारामे तेणेव उवागच्छइ २ ता पुप्फचयं करेइ२त्ता अग्गाइं वराई. पुप्फाई गहाय जेणेव मोग्गरपाणीस्स जक्खायतणेतेणेव उवागग्छइ २त्ता मोग्गरपाणीस्स यक्खस्स महरियं पुष्फचणं करेइ २त्ता जाणूपाए पडिए षणामं करेइ रचा तओ पन्छारायमगंसि वित्तिकप्पेमाणे विहरइ ॥७॥ तत्थणं रायगिहे गगरे ललिया
एणामं गोट्ठीपरिवस्सइ, अड्डा जाव अपरिभूया, जंकय सुकययाविहे. होत्था ॥ ८ ॥ सदैव वक्तोवक्त बांस की छाव ग्रहण करके राजगृही नगर से निकले, निकल कर जहां पुष्पाराम तहां माता, आकर पुष्पाचरन-फूलों को एकत्र करता, करके अगर वरास-कपूर फूल ग्रहण कर मोबर पानी यम का यक्षायतन या, तहां आता, तहां आकर मोगर पानी यक्ष का मम अर्थवाला पुष्पार्चन करता, करके घुटने जमीन को लगाकर पांव में पडता प्रणाम करता, प्रणाम करके फिर राज्य मार्ग में उन पुष्फादि को बेचकर अपनी बृति-आजीविका करता था ॥७॥ तहां राजगृही नगर में ललितादिनाम के छ गोठिले (मित्र ) पुरुष रहते थे, वे ऋद्धिवन्त थे यावर अन्य से अपराभावित थे, उन को किसी का 70 भी डर नहीं था. शुभाशुभ कार्य स्वेच्छा प्रमाने करते सदैव क्रीडा में रक्त हुवे विचरते थे ॥८॥ उस राजा
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षष्टम-वर्गका तृतीय अध्ययन
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A. Malai
ते रायगिहे गयरे अण्णयाकयाइ पमोदे घटेआविहोत्या ॥९॥ तत्तेणं से अज्जुगएमालागार कल्लं पभूयतरएहिं पुप्फेहिं कज्वहिं तिकटु, पञ्चुकाल समयंसी बंधुमतिए भारियाए सद्धिं वत्थिय पडियाए गिण्हइ २ त्ता, सयातो गिहातो, पडिनिक्खमा २त्ता रायगिहे णयरं मझमझेणं निगच्छइ २त्ता जेणेव पुप्फारामे तेणेव उवागच्छइ २ त्ता, बंधुमइए भारियाए साई पुप्फंचयं करइ २ चा ॥१०॥ तएणं तीसेललियाए गोट्ठीए छगोट्ठीए पुरिटा, जेणेव मोग्गरपाणीस्स जक्खस्स . जक्खायतणे तेणेव उवागता, अभिरम्ममाणे चिटुंति ॥ १०॥ तत्तेणं से अज्जुणए मालागारे वंधुमति भारियाए साई पुष्फचयं करेह २ ता पछिवभरेइ २ चा अग्गाहि ग्रही नगर में किसी वक्त प्रमोद महोत्सव आयाथा ॥९॥ तब अर्जुनमाली प्रातःकाल में बहुत पचम फूलों को ग्रहण करने बन्धुपति भारिया के साथ पीस की छाव ग्रहण की, प्रहण करके अपने घर से निकला, निकलकर जहां पुष्पाराम था, तहाँ आया, आकर बन्धुमति भारिया के साथ फूलों
संग्रह करने लगा॥१०॥उस वक्त वे ललितादि गोठिले पुरुष जहां मोगर पानी पक्ष का गलायतन या
तहां आये, आकर वहां क्रीडा करते हुवे रहे थे।॥११॥ तब वह अर्जुन माली बंधुमति मारिया के साथ फूलों 1*भेले किये, भेले करके गवडी में भरे, भरकर मन कपर पुष्पादि सुगंधी द्रव्य ग्रहण करके महा मोगर
48 अनुवादक-पालनमचारी मुनि श्री अमोलक ऋपिजी +
प्रकाशक-राजावहादुर लाला सुखदेवसहायजी बालापसादमी
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140 अहमांग अंतगड दांग मुब
घराहि पुप्फाइं गहाय, जेणेव मोग्गरपानीस्स जक्खस्स जक्खायतणे तेणेव उवागच्छदर स्ता॥१२॥ तएणं ते छगोट्ठिला पुरिसा अज्जुणय मालागारे बंधुमति भारियाए साई एजमाणे पासइ२ त्ता अगमणं एवं वदति-एमणं देवाणुप्पिया!अज्जुणय मालागारे बंधु. मतिभारियाए सद्धिं हवमागच्छति तसेयं खल देवाणुप्पिया! अम्हं अन्जुणयं मालागारं अवाउडय बंधणय करेत्ता, बंधुमतिए भारियाए सद्धिं विउलं भोगभोगाई भुंजमाणे विहरित्तए त्तिकदु, एयमटुं अणमणस्स पडिसुणेइ २ ता, कवाडतरेसु निलुकति, निचला निष्फंदा तुसिणया पछीणा चिटुंति ॥ १३ ॥ तत्तणं से अज्जुणमालागारे पानी पक्ष का यक्षायतन था, तहां आने लगा ॥ १२ ॥ तब उन गोठीले पुरुषोंने बंधुमति भारिया के साथ अर्जुन माली को आता दुवा देखा, देखकर परस्पर यों बोलने लगे-हे देवानुप्रिय ! यह अर्जुनमाली बन्धुमति भारिया के साथ शीघ्र आता है, इसलिये हे देवानुप्रिय ! अपने को श्रेय हे कि अपन अर्जुन-32 लीकी मुस्के (उलटा)बन्धकर पन्धुमति भारिया के साथ विस्तीर्ण भोगोपभोग भोगवते विचएला सुन उक्त
परस्पर मान्य किया, मान्य कर उम यशालय के द्वार के कियाड के पीछे छिपकर निश्चल चुपचाप पपने खडे रहे ॥ १३ ॥ तब वह अर्जुनमाली पन्धुमति भारिया के साथ जहां मोगर पानी यक्ष का
428 पम-वर्गका तृतीय अध्ययन 48
न
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अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी -
बंधूवती भारियाए सद्धि जेणेव मोग्गरपानी जक्खस्स जक्खायणे तेणेव उवागच्छइ२ त्ता आलोए पणामं करेइ २ त्ता, महरिहं पुप्फंचणं करेइ २ ता जाणूयाए पडिए पणामं करोति ॥ १४ ॥ तत्तणं ते छगोहिलापुरिसा दवदवस्स कवाडंतरेहितो निगच्छइ २ मज्जुणयं मालागारं गिण्हति २ ता अवउडग बंधणकरेइ २ ता बंधुमतिए मालागारणिए सद्धिं विउलाई भोगभोगाई भुंजमाणे विहरति ॥ १५ ॥ तएणं तस्स अज्जुणयस्स मालागारस्स अयं अज्झथिए जाव समुपजित्था-एवं खलु
अहं बालप्पभित्ति चेव मोग्गरपाणीस्स भगवतो कल्लाकलिं जाव कप्पेमाणे विहरामि । यक्षालय था तहां आया,आकर प्रतिमा को देखते ही नमन किया, नमस्कार कर महामूल्य पुष्फों से आर्चन किना, पुग्ने जमीन को लगाकर पांव पड़ा ॥ १४ ॥ उस वक्त वे छ ही गोठीले पुरुष दवादब कवाड के पीछे से एक ही माथ निकले निकलकर अर्जुनमाली को पकडा, पकडकर उलटी मुस्को बन्धकर (गोडे लकही देकर ) गुडा दिया और छे ही बन्धुमति भारिया के साथ विस्तीर्ण भोगोपभोगवते विचरने लगे ॥१५॥ तब उस अर्जुनपाली को इस प्रकार का अध्यवसाय यावत् उत्पन्न हवा-यों निश्चय में बचपने से इन मोगार पानी भगवंत का भक्त हूं, सदैव वक्तोवक्त महुमूल्य पदार्थों से पूजा करता हूं. इसलिये यदि
*प्रकाशक राजाबहादुर लाला सुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादजी
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+ अष्टमांग-अंतगड दशांग सूत्र 488
तं जइणं मोगरपानी जक्खो इहसणिहि तेहोति सेणं किं मम एएरूचे आवइया पाविजयामाण पासेति, तेणं णत्थिणं मोगरपानीजक्खे, इहं सणिहिते मुच्चत्तणं एस कट्टे ! ॥१६॥ तत्तेणं से मोग्गरपाणिजक्खे अज्जुणमालाग्गस्स अयमेव अज्झत्थियं जाव वियाणं अज्अणयस्स मालागारस्स सरिरगं अणपविस्सइ.२त्ता तडतड तस्स बंधणाई छिदंति, तंपलसहस्स णिप्पणं अयोमयं मोग्गरं गिण्डइ२ ता, तेइत्थिसत्तमे छपुरिसे घाएई ॥ १७ ॥ तत्तेणं से अज्जुणए भालागारे मोग्गरपाणी यखणं अणाइटे समाणे रायाहस्स णयरस्स परिपेरंतेणं कल्लाकल्लिं छइथि सत्तमे पुरिसे मोगार पानी यक्ष यहां सानिध-नजदीक होते तो वे किस प्रकार मेरी यह अवस्था होती हुई सकते, इस लिये नहीं है यह मोगार पानी यक्ष यहां सानिध जो मुझे छोडावे, यह तो प्रतिमा तो काष्ट हैलकडा है ॥२६॥ तब वह मोगार पानी यक्ष अर्जुन माली के उक्त अध्यवसाय को जानगया, उसही वक्त अर्जुम माली के शरीर में प्रवेश किया, प्रधेश कर उन बन्धन को शीघ्र तोडडाले और वह हजार पलके वजन वाला मुद्गल, उठाकर उस अपनी स्त्री को और उन छही पुरुषों को यों सातों को मारडाले ॥ १७ ॥ तब अर्जुन माली मोगर पानी यक्षके आधिष्टता करके राजगृह नगर के बाहिर आस पास फिरता हुवा. वक्तो.
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अनुवादक - बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी *
अर्थ
घायमाणे २ विहरइ ॥ १८ ॥ तत्तेणं रायगिहे नगरे सिंघाडग जात्र महापएस बहुजण अणमणस्स एवं माइक्खति ४ एवं खलु देवाणुपिया ! अज्जुण मालागारे मोग्गर पाणीणा अणाइट्ठे समाणे रायगिहे नगरे बहिया छइत्थिसचमे पुरिसे घायमाणे विहरई ॥ १९ ॥ तर्ण से सेणिएराया इमिल कहाए लडट्टे समाणे कोडुबियपुरिसे सदावेइ २ ता एवं वयासी एवं खलु देवप्रिया ! अज्जुणे मालागारे जात्र घाएमाणे विहरति, तेमाणं तुब्ने देवाणुविया ! केइ कटुसवा, तणरसवा, पाणियरसवा, पुप्फ-फलाणिवा, अट्ठाए सचिरंतिगच्छं तुम्हाणं तस्स सरीरस्स वावचि भविस्सति, वक्त एकत्री और छ पुरिस यों मात मनुष्य सदैव मारताहुवा विवरने लगः || १८ || नवराजगृही नगरी में श्रृंगाटक पंथमें यावत् महापंथमें बहुत लोगों परस्पर इस प्रकार बातों कहने लगे-यों निश्चय दे देवानुप्रिया ! अर्जुनमाली यक्ष अधिष्टित होने से राजगृही नगरी के बाहिर एक स्त्री के पुरुषों की घात करता हुदा विचरता है। [ ॥ १९ ॥ तब श्रेणिक राजा उक्त सामाचार श्रवण करके कोटुम्बिक पुरुष को बोलाया, बोलाकर यों { कहने लगा निश्चय हे देवानुप्रिया ! अर्जुन माली यावत् सात मनुष्यों को मारता हुवा विचरता है, { इसलिये तुम इस प्रकार उदघोषना करो कि अहो लोगों ! तुम कोई भी काष्ट केलिये, तृण पानी केलिये, फूलके फलकेलिये, नगर के बाहिर जाना नहीं क्यों कि तुमारेको अर्जुन माली के
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* प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वाला प्रसादजी
घांस के लिये शरीर से बाधा
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1448- अष्टमांग-अंतगह दशांग सूष488+
भ
त्तिकद्द, दोश्चंपि तचंपि घोसणायं घोसह २ खिप्पामेव पञ्चप्पिणह ॥ २०॥ तत्तेणं कोडुबिय जाव पञ्चपिणंति ॥ २१ ॥ तत्थणं रायागिहे णयरे सुदंसणे नामं संट्टि परिवसइ अद्वे ॥२१॥ तएणं से सुदंसो समाणे वासयावि होत्था अभिगया जीवाजीव जाव विहरति ॥ २२ ॥ ते कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे जाव समोसढे जाव विहरइ ॥ २३ ॥ तएणं से रायगिहे पयरे सिंघाडग जाव बहुजणो
अण्णमण्णस्स एवमाइक्खंति २ जाव किंमग पुण विउलस्स अट्ठस्स गहणत्ताए होगी, यों रो वक्त तीन वक्त उद्घोषना करो, दंदेश पोटो, यह मेरी भाशा पीछी मेरे सुपुत करो॥ २० ॥al तब कोदुम्बिक पुरस ने तैसा ही किया यावत् आज्ञा पीछो मुपरत की॥ २१ ॥ स राजगृही नगरी में सुदर्शन नामका गायापति रहता था, वहा ऋद्धिवंत यारत् अपरामासया ॥ २२ । बा सुदर्शन श्रमणो पासक श्रावक था, उसने जीवादी नव पदार्थों का जान पना किया था, यावत चौदह प्रकार का दान देता हुवा विचरता था ॥ २२ ॥ उस काल उस समय में श्रमण भगवंत श्री महावीर स्वामी यावत गुनमिला चैत्य में तपसंयम से आत्मा भावते हुने विचरने लगे २३॥ तब राज्यगृही नगरी के शृंगाटक पंथ में यावत् गुत लोगों परस्पर यों कहने लगे यावन् प्ररूपने लगे-यों निश्चय हे देवानुपिया ! श्रमण* भगवन्त श्री महावीर स्वामी यावत् गुनसिला चैत्य में विचरते हैं, उनका नाम श्रवण करने काही महाफल ।।
48488पष्टम-वर्गका तृतीय अध्ययन 4884
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mammaminawimmaamanawinner
। अनुषादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी'
॥ २४ ॥ तएणं तस्स सुदंसणस्स बहुजणस्स अंतिए एयमटुं सोचा निसम्म अयमेव अज्झथिए जाव समुप्पजित्था एवं खलु समणे जाव विहरंति, तंगच्छामिणं : समणेणं भगवया महावीरेणं बंदमि नमसामी एवं संपेहेइ २ त्ता जेणेव अम्मापियरो तेणेव उवागच्छइ. २ त्ता करयल जाक तिकटु, एवं वयासी-एवं खलु अम्मायाओ समणे जाव विहरति, संगच्छामिणं समजेणं भगवया महावीरेणं वंदामि जाव पज्जुवासामि ॥ २५ ॥ तएणं तं सुदसणसेटुिं अम्मा पियरो एवं वयासी-एवं खलु पुत्ता !
अज्जुण मालागारे जाव घाएमाणे विहरति, तमिणं तुम्भे पुत्ता ! समणं भगवं है तो फिर धर्म कथा श्रवण करने का और प्रश्नोत्तर कर लाभ प्राप्त करने का फलकातो कहना ही क्या? ॥ २४ ॥ तब सुदर्शन श्रावकने बहुत लोगों पोस से उक्त कथन श्रवण किया अवधारा इस प्रकार विचार उत्पन्न हुवा–यों निश्चय श्रमण भगवंत श्री महावीर स्वामी यावत् विचर रहे, हैं इसलिये जावू में भगवंत श्री महावीर स्वामी को वंदना नमस्कार करूं, यो विचार किया, विचार करके जहां मातपित तहां आया, तहां आकर हाथ जोडकर यों कहने लगा-यों निश्चय अहो माता पिताओं ! श्रमण भगवंत श्री महावीर स्वामी पधारे हैं इसलिये जावू में श्रमण भगवंत श्री महावीर स्वामी को वंदना नमस्कार करके यावत् भक्तिकरूं ॥ २५ ॥ तब सुदर्शन शेट से मातापिता यों कहने लगे-यों निश्चय हे पुत्र अर्जुन
प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहाय
HIG CIT *
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48488* अष्टमांग-अंतगड दशांग सूत्र 484881..
wwwmarwinnamommarimmammmmmanand
महीवार वदति निम्गछिहि माणं तव सरीरयरस वावात भविस्सइ, तुमेणं इहंचेवर समणं भगवं महावीरं वदाहि ॥ २६ ॥ तएणं से सुंदसणे से?अम्मपियरे एवं वयासी-किणं अहं अम्मयातो समणं भगवं महावीर इहमागया, तंइह संपत्तं, इहसमोसळू इहगतेचेव वंदिसमि,तंगच्छामिणं अहं अम्मयाओ तुब्भहि अब्भणु णायसमाणे. समणं भगवं महावीरं वंदामी ॥ २७ ॥ तएणं तं सुदसणंसदि अम्मापियरी जाव नो संचएति बहुइं आघवणहिय जाव परूवणहिप, ततो तेही एवं व्यासी-अहासुहं .
॥ २८ ॥ ततणं से सुदंसणे अम्मापियरेहिं अब्भणुणाए समाण व्हाए सुद्धपावसाइ. माली यावत् घात करता विचरता है, हे पुत्र! तूं जो श्रमण भगवंत महावीर स्वामी को वंदना करने जावे गातो तुझे अर्जन माली से शरीर को बाधा होगा इसलिये तू यहाँ रहा हुवा श्रमण भगवंत को वंदना नमस्कार करो ॥ २६ ॥ तब सुदर्शन शेठ मातापिता से यों कहने लगा-किस प्रकार मैं अहो मातापिता ! श्री महावीर स्वामी यहां आये, यहां पाप्त हुवे यहां समोसरे, यहां रह, उनको यहां घर में रहा वंदना करूं? इसलिये अहो मातापिताओं! जो तुमारी आज्ञा हो तो मैं श्रमण भगवंत श्री महावीर स्वामी का पंदन जानूंगा॥२७॥ तब सुदर्शन शेठको उनके मातापिता बहुत प्रकारसे अग्रहकर प्ररूपनाकर, रोकने समर्य न हुवे तब वे इसप्रकार बोले-तेरेको सुखहो सो करो॥२८॥तब वह सुदर्शन मातापिताकी आज्ञाप्राप्तझेते, स्नानकिया,
48 पष्टम-वर्गका तृतीय अध्यायन *
अर्थ
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+2 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी :
28 जाव सरीरे सयातो गिहातो पहिनिक्खमई २ ता पायविहार चारेणं रायगिह नयरं ।
मझं मझेणं निगच्छइ २ ता मोग्गरपाणीरस जक्खायणस्स अदूर सामंतेणं जेणेव गुणसिल चेइए जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव पहारत्य गमणाए ॥ २९॥ तत्तेणं से मोग्गरपाणीजक्खे सुदंसण समणोवासएणं अदूरेसामंत्तेणं वितिवएमाणे पासइ २ त्ता आसुरत्ते तंपलसहस्त निप्पनं अयओमय मोगारं उलालेमाणे २ जेणेव सुंदसण समणासए तेणव पहारस्थ गमणाए ॥ ३०॥ तत्तणं से मुदंसणे
समणावासए मोग्गपाणी जक्ख एजमाणे पासइ २त्ता अभिए अतत्थे अणुविग्ग अक्खू. शुद्ध वस्त्र पहने यावत् शरीर को विभूषित कर अपने घर से निकला,पांवों से चलता दुवा राजगृही नगरी के मध्य मध्य में होकर मांगर पानी यक्षके यक्षालय के पास हो जहाँ गुनसिला चैत्य है, तहाँ श्रमण भगवंत श्री महावीर स्वामी उस रास्ते में गमन करने लगा ॥ २९ ॥ नत्र मोगार पानी यक्षने सुदर्शन सेठ को, अपने नजीक हो जाता हुवा देखा, देखकर अमरक्त हुवा, उस हजार पल प्रमान वजनवाले लोहे के मुद्रल को उछालत्ता वा २ जहां मुदर्शन श्रारक रहा था उस के सन्मुख आने लगा ॥३०॥ तब श्रावकने मोगारपानी यक्षको आताभादेखा, देखकर डरपाया नहीं, भासपाया नहीं उदेगपाया नहीं, लोमित वा नहीं, चलित वा नहीं, मगा नहीं, घबराया नहीं, परन्तु बनकर वहां की भूमी का पूंजी (शारी) पंचा:
.भकाशक-रामाबहादुर लाला सुखदेवमहायजी ज्वालामसादनी
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448+ अष्टांग-अंतगड दर्शन सूत्र +4+
भित्ते अचलिए असंभमेणे वत्येणं भूमि पमज्जति २ ता करयल जाव एवं वयासी नमोत्थुणं अरिहंताणं जात्र संपेत्ताणं, णमोत्थुणं समणस्स भगवओ जाव संपाविओकामस्स, पुव्विणिं भंते ! मए समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियाओ थूलए पाणाइ वाए पच्चक्खर जात्र जीवाए, थूलए मोसाइवाए, थूलए अदिन्नादाणे, सदारा संतोसेकर जाव जीत्राए, इच्छा परिमाणकत्ते जावजीवाए, सेतं इदार्णिपि तस्सेव अंतिए स पाणा इवायं पञ्चक्खामि जावजीवाए मुसाइवायं अदत्तादाणं- मेहुणंपरिग्गहं पञ्चखामि जावजीवाए सव्वं कोहं जाव मिच्छादसणसह पञ्चक्रखामि
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कर बैठा डावेढीचन खडारख उसपर हाथ जोड़े हुबे रखकर यों बोला- नमस्कार होवो अर्हन्त मगन्तको यागत् मुक्ति पधारे उन को || नमस्कार होवो श्रवण भगवंत श्री महावीर स्वावीजी मोक्षके अभिलाषी हैं को, अहो भगवन् ! पहिले भी मैने श्रमण भगवंत श्री मरावीर स्वामीजी के पास, स्थूल-बडे प्राणातिपात का जावज्जीव प्रत्याख्यात किया था, ऐसे ही स्थूल मृपाबाद का, स्थूल जदचादान का, स्वस्त्री संतोष कर उपासन्त मैथुन का और धन की इच्छा का इन का जावजीरू का प्रमान किया था, वही इस वक्त भी उन के ही पास मर्वथा प्राणातीपात का प्रत्याख्यान करता हूं जावज्जीव पर्यन्न, सर्वथा मृषावाद का मदचादान का मैथुन- परिग्रह का मत्वाख्यान करता हूं चावज्जीव पर्यन्त, सर्वथा प्रकारे क्रोध का यावत् ।
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43*+ षष्टम वर्गका तृतीय अध्ययन -44+
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प्रकाशक :राजाबहादुर ला
अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी
. जाव .. जीवाए, जइणं. . एतो. . उवसगाओ.... मुच्चिस्सामि; : तोमेव : कप्पा..
परितत्ते, अहणं एत्तो उवसग्गओ नमुच्चिस्सामि तोते तहा पञ्चक्खाइ, तिकटु.. सागारिय पडिमं पडिवज्जइ ॥ ३१ ॥ तत्तेणं से मोग्गपाणी. जक्खे तं पलसहस्स निप्पणं अयोमयं मोम्गरं उल्लालेमाणे २ जेणेव सुदंसणे समणोवासए लेणेव उवाग-... च्छइ २ ता, नो चेवणं संचाएति, सुदंसणे समणोवासए तेअसासमडि पडित्तए.. ॥ ३२ ॥ तएणं से मोरगरपाणीजक्खे सुदंसण समावासयं सवओ समंता. परि
घोलेमाणे २ जाहिं नो संचाएति सुदंसणे समणो वासयं तेयसांसमभिपडितत्ते, सिध्यात्व दर्शन शल्यका प्रत्याख्यान करता हुं जावजीव पर्यन्त यदि इस उपसर्ग में मुक्त होवूमो मुझे कल्पे । इन प्रत्याख्यानो को पारना और जो इस उपसर्ग से मुक्त नहीं होQतो यह किये तैसेंही प्रत्याख्यान- मेरेरहो.. ऐसा कर सागारी अनशनः अङ्गीकार किया ॥ ३१ ॥ तय वह मोगार पानी यक्ष वह हजारपल जितने . भारबाला लोहेका मुद्गस उलालताहुवा २ जहां सुदर्शन श्रमणोपासक था तहां आया, आकर सुदर्शन भ्रमणो पासक को उपपर्ण करने शरीर को दुःख उत्पन्न करने समर्थ नहीं हुवा ॥ ३२ ॥ तब वह मोगार पानी यक्ष सुदर्शन श्रावक के चारों तरफ फिरने लगा, फिरता हुवा भी जब सुदर्शन श्रावकका तेज सहन करने, समर्थ नहीं हुवा तब सुदर्शन. शेर के सन्मुख से पीछे आकर खडा हुवा, सुदर्शन श्रमणो पासक को
लामुखद
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अष्टमांग-अंतगड दशांग सूत्र 8.48
ताहे. सुदंसणस्स समोवासयस्स पुरतो सपक्खि सपडिदिसं टिच्चा, समोवासयं अणिमिस्साए दिट्ठीए सुचिरं निरक्खेत्ते २ अज्जुणमालागारस्स सरीरं विप्पजहइ २ त्ता संपलसहस्स निप्पन्नं आउमयं मोग्गरं निगाहिय, जामेवदिसिं पाउब्भए तामेवदिसिं पडिगए ॥ ३३ ॥ तएणं से अज्जुणमालागारे मोग्गर पाणीणा जक्खेणं विप्पमुक्कसमाणो धसति धरणीतलसि सव्वंगेहिं संनिवंडए ॥ ३४ ॥ तएणं से
सुदंसणे समणोवासए निरुवसग्गमिति तिकटु पडिमा पारेति ॥ ३५॥ तएणं से __ अज्जुणमालागारे तत्तो मुहुत्तेतरेणं आसत्थेसमाणे उदिति २ सुदंसणस्स
समणोवासए एवं वयासी-तुब्भणं देवाणुप्पिए के ? किहिंवा संपत्थिई? ॥३६॥ तत्तेणं । मेषोन्मेष देखता हुवा, बहुत काल तक देखता रहा देखता रहता हुवा अर्जुन माली के शरीर को छोडकर उस हजार पलभार के निष्पन्न लोहके मुद्गल को लेकर जिस दिशा से आया था उसदिशा ( देवालय में ) पीछा चलेगया ॥ ३३ ॥ तब अर्जुन माली मोगर पानी यक्षसे विमुक्त हुवे धसकाकर जमीनपर ममि से , पडा ॥ ३४ ॥ तब सुदर्शन श्रावकने उपसर्ग निवारन हुवा जाना, उस सागरीक प्रतिज्ञा के प्रत्याख्यानपारे
३५ ।। तब अर्जुन माली मुहुर्त के बाद विश्राम पाय हुवा उठा, उठकर जहां सुदर्शन श्रावक था तहां १० आकर यों कहने लगा-हे देवानुप्रिया ? तुम काने हो ? कहां जाते हो ? ॥ ३६ ॥ त . सुदर्शन शठ।
8488+ षष्टम-चर्गका नृतीय अध्ययन
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सत्र
48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी +
से सुदंसणे समणोबासए अजुणयंभालामारं एवं वयासी-खलु देवाणुप्पिया! अहं सुदंसणे गामे समणोवासए अभिगया जीवाजीवे, गुणसिलाचेतीते समणं भगवं महावीर वंदित्ते संपत्थितो ॥ ३७ ॥ तएणं से अज्जुणए मालागारे सुदंसणं समणोवासयं एवं वयासी-इच्छामिणं देवाणुप्पिया ? अहंमवि तुमएसद्धिं समणं भगवं महावीर वादित्तए जाव पन्जुवासित्तए ? अहासुहं देवाणुप्पिया ! ॥ ३८ ॥ तएणं से सुदंसणे समणावासए अज्जुणए मालागारेणं सद्धिं जेणेव गुणसिलए चइए जेणेव समणं
मगव महावीरे तेणेव उवागच्छइ २ ता अज्जुणएमालागारेणंसद्धिं समणं भगवं श्रमणोपासक अर्जुन माली से यों कहने लगा-यों निश्चय. हे देवानुप्रिय ! मै मुदर्शन नाम का श्रपणोपासक हूं जीवाजीव का जान हूं, गुणसिला चैस में श्रमण भगवंत श्री महावीर स्वामी पधारे हैं उन को. वंदना करने को जा रहा हूं ॥ ३७॥ तब अर्जन माली सुदर्शन शेठ से ऐसा थोला-हे देवानुप्रिय ! मैं भी तुमारे साथ श्रमण भगवंत श्री महावीर स्वामी को वंदन करने यावत् सेवा करने आयूँ ? तब सुदर्शन बोलानेरी आत्मा को सुख होवे सो कर ॥ ३८ ॥ तव मदर्शन श्रावक अर्जुन माली के साथ जहां गुणसिला चैत्य जहां श्रमण भगवंत श्री महावीर स्वामी थे, वहां आये, आकर अर्जुन माली के साथ श्रमण भगवंत
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*प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादजी.*
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महावीरं तिखंतो जाव पाजुवासति ॥ ३९ ॥ तत्तणं समणे भगवं महावीर सुंदसणं समणोवासयं अज्जुणयस्स धम्मकहा मण्णइ ॥ ४० ॥ मुदसण पडिगत्ते ॥४१॥ तत्तेणं से अज्जुणे समणस्त भगवओ महावीरस अतीए धम्मसोचा निसम्महट्ठा एवं वयासी-महामिणं भंते ! णिगंथे पारयणं जाव अब्भुट्ठति ? अहासुहं ॥४२॥ तत्तेणं से अज्जुणओ उत्तर पुरत्थिन दिसिविभागं सयभव पंचभुट्टियं लोयं करेइ २ त्ता जाव अणगारे जाए विहरंति ॥ ४३ ॥ तएणं से अञ्जण अणगारे जंचव दिवसं
- अष्टमांग-अंतगड दशांम मूत्र
पष्टम चर्गका तृतीय अध्ययन 8
श्री महावीर स्वामी को तीन वक्त नमस्कार किया वंदना नमस्कार कर यावत सेवा करने लगे ॥ ३९॥
तब श्रमण भगवंत श्री महावीर स्वामीने सुदर्शन श्रावक को और अर्जुन माली को धर्मकथा मुनाइ ॥४०॥ लसुदर्शन धर्मकथा श्रवण कर पीछा गया ॥ ४१ ।। तब अर्जुन माली श्रमण भगवंत श्री महावीर स्वामी है
पास धर्म कथा श्रवण कर हृष्ट तुष्ट हुवा-यों कदमलगा. अहो मगरल ! श्रद्ध मैंने निग्रन्थ के प्रवचन यावत् मेरी आपके समीप दीक्षा लेने की अभिनपा है भगवन्त ने कहा-हे देवानुपिय ! जेस, सुख हो बैसे करो ॥ ४२ ॥ तव अर्जन ईशानकौन में जाकर अपने हाथ से पंचमुष्टिलोच किया, लोच । करके यावत् अनगार साधु हो विचरने लगा ॥४३॥ तब अर्जुन माली अनगार जिस दिन दीक्षा धारन ।
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मुंडे जाव.पव्वाइए, तंचेव दिवसं समणं भगमहावीरं वंदइनमसइ, बंदिता नमंसिताएया. रूवउग्गहं उगिण्डिता कप्पडमे जाव जीवाए छह छटेणं अणिक्खित्तणं तत्रोकम्मेणं अप्पाणंभावमाणस्त विहरित्तए, तिकद अयमेवरू अभिमाई गिइ जाव जीवाए जाव विहरति ॥ ४४ ॥ तएणं से अजग अगगारे छक्खग पारणयंसि पढमाए पोरिसाए सज्झायं करेति जहा गांतमसामी जाव अडति ॥ ४५ ॥ तत्तेणं अन्ज़ अणगारं रायगिहेनयरे उच्च जाव अडमाणे बहवे इत्थियाओ परिस्त
18 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिनी +
की उस ही दिन श्रमण भगवंत श्री महावीर स्वामी को वंदना नमस्कार कर इस प्रकार अभिग्रह धारन किया-मुझे जावजीव पर्यन्त छठ २ [बेले २] तप अन्तर रहित कर अपनी आत्मा को भावते हुवे विचरना, कल्पता है इस प्रकार अभिग्रह धारन किया यावत् आत्मा भावते विचरने लगा॥४४॥ तब अर्जुन अनगारन बेले के पारने के दिन प्रथम महर में स्वाध्याय की, दुरी प्रहर में ध्यान किया, तीरसे पहर में जिस प्रकार गौतम स्वामी भगवंत की आज्ञा ले गौचरी जाते हैं उस ही प्रकार अर्जुन साधु भी राजगृही नगरी में
भिक्षार्थ गया फिरने लगा ॥ ४५ ॥ तर अर्जुन अनगार को राजगृही नगरी में ऊंचनीच कुल में फिरते महुवे, बहुत खीयों, बहुन पुरुषों, छोटे बच्चे. बडे कुमारों युवावस्थावन्त यों कहने लग--इसने मेरापिता मारा,
इसने मेरी माता को मारी, इसने हमारे भ्रात को, बहिन को, सो को, पुत्र को, पुत्री को, पुत्र वधु को
. प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेव महायजी ज्वालाप्रसादजी.
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अष्टगंग अंतगड दशांग मूत्र8488
महलिया जुवणिए: एवं बयासी-इमं मे पितामारिया, इमेणं मे मातामारीया, भाया-भगिणी-सया-पुत्त ध्या-सुन्नाइ, इमेणंमे अणयरे सयणं संबंधि परिजणे मारित्तिकदृ, अप्पेगइया अक्कोसंति, अप्पगइया हिलंति-निदंति-खिसंति-गरहंति-सेतज्जनि-तालेति ॥४६॥ तत्तणं से अज्जुणए अणगार तेहिं बहुहिय इस्थिहिय पुरिसहिय डहरेहिय सहलेहिय जुवाणेहिय, आउसेजमाणे जाव तालेजमाणे तेसि मणसावि अप्पउसमाणे समंस हति, सम्मखमति, तितिवखइ अहियासेइ, रायगिहनयरे उच्चनीय जाव मज्झिमाई.
कुलाई अदृमाणे, जइभत्तं लभति तोपाणं नलभति, अह पाणं लभति तो भत्तं नल.. में और भी अन्य स.जन को सम्बन्धीयों को परिजन को मारे, ऐसा कहकर कितने जने तो अक्रोश कर
कितनेक हीलना करते थे-हलकी जबान बोलते थे, कितनेक निन्दा करते थे, कितनेक खिशाने हेलपथ, में कितनेक ग्रहण करते थे. बहुतों के सम्मुख दर्गुण प्रगट करते थे, कितनेक तर्जनी अंगुली से तर्जना तथा
थे. कितन्क ताडना करते थे-मारते थे ॥ ६ ॥ तब अर्जुन अन्गार उन बहुत स्त्रीयों को पुरुष को करत बच्चों को वडे कुमरों के युव को को अक्रोश करते हुवे पर यावत् मारते हुवे पर मानकर भी द्वेष . छ करता हुवा सब प्रकार के उपसर्गोंको समभाव कर सहता हुवा, समभाव-क्षमाशव से क्षमता हुवा, तिल परिसह अहियासता हुना, राज्यगृही नगरी के ऊंचनीच यावत् मध्यम कुलों में फिरते हुबो यदि आहार क्षण
क्षण
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१ षष्टम वर्गका तृतीय अध्ययन
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48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमालक ऋषिजी
भति ॥४७॥ तत्तेणं से अज्जुणए अणगारे अदीणे, अविमणे, अकलुसे, अणाइले, अविसादिय, अपरितंतेजोगी अंडीत २ रायगिहे नगराओ पडिणिक्खमइ २ त्ता जेणेव गुणासिलते चेइए जेणेव समणे भगवं महावीरे जहेब गोतमसामी जाव पड़िदंसेडु र सयणं भगवं महावीरं अब्भणुणायसमाणे अमुच्छिते ४ विलमिव पन्नग भएणं अप्पाणेणं तंमहारे आहारइ २ ता ॥४८॥ तत्तेणं समणे भगवं महावीर
अण्णयाकयाई रायगिहातो पडिनिक्खमइ २ ब्रहिया जणमय विहारं विहरति ॥४९॥ तो पानी नहीं मिले और पानी मिले तो आहार नहीं मिले ॥ ४७ ॥ तव वह अर्जुन अनगार इस प्रकार अपूर्ण प्राप्ती से प्रयासों को हीन-दीन नहीं करता हुवा, कलुषता नहीं धरला हुवा, ममत्व नहीं करते हुवो, विषवाद नहीं करता हुवा, पापका नियोग नहीं करता हुवा. परिभ्रमण कर, फिर करके राजगृही नगरी से निकलकर जहां गुणसिला चैत्य जहां श्रमण भगवंत महावीर स्वामी तहां आया, आकर गौतम स्वामी की तरह आहार वृताया, बताकर श्रमण भगवंत श्री महावीर स्वामी की आज्ञा से प्राप्त हुवे आहार में अमूच्छित अगृद्धता से जैसे विल में सर्प प्रवेश करता है इस प्रकार व आहार किया ॥ ४८ ॥ तव श्रमण भगवंत श्री महावीर स्वामी अन्यदा किभी वक्त राज्यगृही नगरी से निकले निकलकर शहिर जन पद।
*प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी.
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अष्टमांग-अंतगड दशांग सूत्र
ततेणं मे अज्जणय अणगारे तेणं उरालेणं विउलेणं पयत्तणं परिगाहिएणं महाणभागेणं तवोकम्मेणं अप्पाणं भावमाणे बहु पहिपुण्णे छमासेसामन्न परियगं पाउणित्ता अद्वमासियाए संलेहणाए अप्पाणं झुति २ तीसं भत्ताइं अणसणाए छिद्देत्ति २ जस्सट्राए किरंति तंमद्रं अराहेति जाव सिद्धे ॥ ५० ॥ छटस्स वग्गरस सत्तिय अज्झयणा सम्मत्तं ॥ ६ ॥३॥ . + तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहेणगरे गुणसिले चेहए ॥ तत्थणं सेणियराया,
कासवनाम गाहावई, परिवसई, जहा मकाति, सोलस्सवास परियाओ विउले सिद्धे ।। देश में विचरने लगे ॥ ४२ ॥ तब अर्जुन अनमार उस उदार विपुल-विस्तीर्ण प्रयत्न से ग्रहण किया हुवा तप करके, महानुभाग्य तप करके अपनी आत्मा को भावते प्रतिपूर्ण छ महीने दीक्षा पाली, आधा महीना
पत्रह दिन का ] संथारा किया, सलेषना से आत्मा की झोसना कर तीस भक्त अनशन का छेदन में किया. छदन कर जिम लिये उठे थे-सावधान हुवे थे वह अर्थ सिद्ध हुवा यावत् सिद्ध बुद्ध हो
सर्व दुःख का क्षय किया ॥५०॥ इति छठा वर्ग का तीसरा अध्याय संपूर्ण ॥६॥३॥ x ०४ उस काल उस समय में राजगढी नगरी, गुनासला चैत्य, तहां श्रेणिक राजा ॥ कासव नामक Yगाथापति रहता था, जैसा मकाइ गाथापति का कथन कहा तैसा सब इनका भी जानना. सोले वर्ष संयम
88 षष्टम-वर्गका चतुर्थ अध्ययन 49882
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वादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिडी
छट्टरस चउत्य अज्झयणं मम्मत्तं ॥ ६ ॥ ४ ॥ एवं खेमेवि गाहावइ, णवरे काकंदीए, सोलस्सवासाए परियाओ, विउले पव्वए सिद्धे ॥ छटुस्स वग्गस्स पंचम अझयणं सम्मतं ।। ६॥ ५ ॥ एवं धित्तिधार गाहावई काकंदीए णयरे, सोलस्स वासाइं परियाओ, जाव विउले सिद्धे ॥ छठुस्स वग्गस्स छटुं अज्झयणं सम्मत्तं ॥ ६ ॥ ६ ॥ एवं केलासेवि गाहावइ, नवरं साएय नगरे, बारस्स वासाई परियाओ विउले सिद्धे ॥ सत्तमं अज्झयण समत ॥ ६ ॥ ७ ॥ एवं हरिचंदणे ते गाहावई साएतो वारस्सवासाइं परियाए । अट्रमं अज्झयणं सम्मत्तं जावसिद्धे ॥६॥ ८ ॥ एवं वीरस्स गाहवई, णवरं रायगिहे गरे, बारम्सा वासा परियाओ विउलंसिद्धे ॥
नवयं अज्झपणं सम्मत्तं ॥ ६ ॥ ९ ॥ एवं सुदंसणेवि गाहावइ, णवरं वाणियगाम पालकर विपुलगिरीपर सिद्ध हुवा | छठा वर्ग का चौथा अध्ययन समाप्तम् ॥६॥४॥ ऐसे ही क्षेप गाथापति.. का अधिकार, जिस में इतना विशेष-कंकदी नगरी में हुवा मोलवर्ष संयम पाला सिद्ध हुन । ॥५॥ ऐसे ही घृतिधर गाथापति, कंकादी नगरी सोलेवर्ष संयम पाला, सिद्ध हु ॥६॥७॥ एमेही कैलास माथापीत विशेष साकेत पुर नगरमें हुवा बोरवर्ष संयय पाला, सिद्ध हुवे ॥६॥८॥ ऐसेही हरिश्चद्र गाथापति सकेत पुर नगर, वारे वर्ष संयम पाला सिद्ध हुवे ॥६॥२॥ ऐसेही सुदर्शन गाथापति विशेष में-वाणिज्यग्राम नगर द्युतिषलास
• प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालामसादजी*
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मूत्र
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428 अष्टांग-अंतगड दांग सूत्र 8488
णयरे दूइपलासे, पंचवासाए परियाओ, विउलेसिद्धे॥ दसमं ज्झयणं सम्मत्तं॥६॥१०॥ एवं पुण्णभदेवि गाहावई, वाणिगाम नयरे, पंचवासाइं परियागं विउले सिद्धे । एक्कारसमं अज्झयणं सम्भत्तं ॥ ६ ॥ ११ ॥ एवं समणभद्देवि गाहावइ, सावथिए णयरिए, बहुवास परियाओ, सिद्धे । बारसमं अज्झयणं सम्मत्तं ॥ ६ ॥ १२ ॥ एवं सुपइंट्ठवि गाहावइ, सावत्थिए णयरिए, सत्तावीस वासाइं परियाओ, विउले सिद्धे तेरस मंज्झणं समत्तं ॥६॥ १३॥ एवं मेहाग्गहाबई रायगिहेणगरे, बहुई वासाइं परियातो विउले सिद्धे ॥ चउद्दसमं अज्झयणं सम्मत्तं ॥ ६ ॥ १४ ॥
तेणं कालेणं तेणं समएणं पोलासपुर णयरे, सिरिवणे उजाणे, तत्थणं पोलासपुरे चैत्य, पांचवर्ष संथम पाला सिद्ध हु॥॥१०॥ऐनेही पूरणभद्र गाथापति वाणिज्यग्राम नगर पांचवर्ष संयम पाला सिद्धहुवा॥६॥१॥एसेही श्रमणभद्र गाथापति श्रावस्ति नमरी, बहुतवर्ष संयप्रपाला सिद्धहुव॥६॥२२॥ ऐसेही सुप्रतिष्ट माथापति श्रावस्ति नगरी, सत्तावीस वर्ष मंयमपाला विपुल पर्वतपर सिद्ध हो ॥6॥३१॥ऐसेही मेघ
गायाथतिभी राजग्रही, बहुतवर्ष पर्यायवालो यावत् विपुलगीरपर सिद्ध हुवे॥इतिछठवर्गका चउद्दवा अध्ययन समान V॥६॥१४॥उसकाल उससमय में पोलास पुरनामका नगस्था, ईशान कोंन में श्री वन नामका वीचाथा॥ तहां,
षष्टप-वर्गका १०.१५ अध्ययन
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अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी +
नगरे विजएनामं राया होत्था ॥ १ ॥ तस्सणं विजयरेस रन्नो सिरिनाम देवीहोत्या वण्णओ ॥ २ ॥ तस्सणं विजयस्स रणो पत्ते, सिरिए देवीए अत्तए, अइमुत्ते नामे , कुमारे होत्था, सुकुमाले ॥ ३ ॥ तेणं कालणं, तेणं समएणं, समणं भगवं महावीर जाव सिरिवणे विहरंति॥४॥ तेणं कालेणं तेणं समएणस्त समण भगवओ महावीरस्स जेठे अंतेवासी इंदभूइए जहा पन्नत्तीए जाब पोलासपुरे णयरे उच्चनीय जाव अडत्ति
॥ ५ ॥ इमंचणं अतिमुत्ते कुमारे व्हाए जात्र विभूसिए, बहुहिं दारएहिय, कारिहिक पोलास पुरनगर में विजय नाम का राजाराज करता था ॥ १ ॥ उन विजय राजा के श्री देवी नामे की रानीथी वर्णन योग्य ॥ २ ॥ उन विजय राजा का, पुत्र, श्री देवी रानी का आत्मजं अतिमुक्त नाम का कुमार था, वह सुकोमल शरीर का धारक था ॥ ३ ॥ उम काल उस समय में श्रमण भगवंत श्री महावीर स्वामी यावत् श्री वन उध्यान में तप संयम से अपनी आत्मा को भावते हुवे विचरने लगे ॥४॥ उससे काल उस समय में श्रमण भगवंत श्री महावीर स्वामी के बडेक्षिष्य इन्द्रभूती (गौतम) नामक अनगार के शरीरादि का सब वर्णन भगवती सूत्र प्रमाने जानना यावत् वेला के पारने में भिक्षार्थ पोलास पुर नगर में ऊंच नीच मध्यम कुल में अटन कर रहे थे ॥५॥ इधर अतिमुक्त कुमार यावत् विभूषित होकर बहुत
.प्रकाशक राजावहादुर लाला सुक्देवसहायजी ज्वालाप्रसादजी ।
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agg><अष्टमांग-अंतगड दशंग सूत्र *
कुमारहिय, कुमारियाहिय, सदिसंपरिबुडे; सातो गिहातो निक्खमह २ सा. जेणेव . इंदट्ठाणे तेणेव उवागच्छइ २ ता, तेहिं बहुहिं दारएहिय जाब परिवुडे आभिरम्स माणे २ विहरत्ति ॥६॥ तत्तेणं भगवं गोयमे पोलासपुरे णयरे उच्चनीय जाव अडमाणे इंदट्ठाणस्स अदूरसामंतेणं वितिवयंतिमाणे पासइ २त्ता॥ ६ ॥ तत्तेणं से अइमुत्ते कुमारे भगवं गोयमं अदूरसामंतेणं वितिवयमाण पासइ, जेणेव भगवं गोयमें तेणेव उवागच्छइ २ ता भगवं गोयमं एवं वयासी-केणं भंते ! तुब्भे, किंवा अडह ? ॥ ७॥
तएणं भगवं गोयमे अइमुत्तं कुमारं एवं वयासी-अम्हणं देवाणुप्पिया! समणे लड के लड की कुमार कुमारीका के साथ परिवरा हुवा अपने घर से निकला. निकला कर जहां इन्द्रक
खेलने का स्थान था तहां आया, आकर उन ही लडके लडकी कुमार कुमारिका के साथ परिवरा हुवाई ॐ क्रीडा करते हुवे विचरता था ॥ ६॥ भगवंत गौतय स्मामी पोलास पुर नगर में भिक्षार्थ फिरते हुवे उस 3e
इन्द्रस्थ स्थान के पास हो जाते हुवे अतिमुक्त कुमारने देखे, उसीचक्त जहां भगवंत गौतम स्वामीजी थे। तहां आया आकर भगवंत गौतम स्वामी से इस प्रकार बोला- कहो भगवन् ! आप कौन हो? और किस कारण फिरते हो ? ॥ ७ ॥ तब भगवंत गौतम अतिमुक्त कुमारा से यों बोले-ई देवानुप्रिय ! हम निग्रन्थक
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अनुपादक रालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी -
णिग्मथे इरियासमिया जाव बंभयारी, उच्चनीय जाव अडामो ॥ ८॥ तेत्तेणं अइ-. मुत्ते कुमारे भगवं गोयम एवं वयासी-एएणं भंते ! तुन्भे जेणेव अहं तुभं भिक्ख दावावेमि, तिकटु, भगवं गोयमं अंगुलियाते गिण्हइ २ ता जेणेव सएगिहे तेणेव उवागते ॥ ९ ॥ तत्तेणं से सिरिदेवी भगवं गोयमं एजमाणं पासइ २ त्ता हट्ट, असतो अब्भुठइ २ त्ता जेणेब भगवं गोयमे तेणेव उवागता, भगवं गोयमं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहीणं बंदइ नमसइ २ त्ता, विउलेणं असणं पाणं खाइमं
साइमं पडिलाभेइ २ त्ता पडिविसज्जइ ॥ १० ॥ तत्तेणं से अइमत्ते कुमारे भगवं साधु इर्या ममिति यावत् गुप्त ब्रह्मचर्य के पालकहू. और मोचरी ( भिक्षा ) के निमित ऊंच नीच कुल में फिररहा हूं ॥८॥ तब अतिमुक्त कुमार भगवंत गौतम स्वामी से इस प्रकार बोला-अहो अगवन् ! तुम हमारे घर चलो मैं तुमारे को भिक्षादिलाईंगा, ऐसा कहकर भगवंत गौतम स्वामीकी करांगुली अतिमुक्त कुमारने । ग्रहण की (पकडी ) ग्रहण कर जहां अपना घर है उधर लेचला ॥ ९ ॥ उस वक्त अतियुक्त कुमार की माता श्री देवी रानी भगवंत गौतम स्वामी को आते हुवे देखे, देख कर तत्काल आसन ग्रेड खडी हुई जहा भगवंत गौतम ये तहां आइ. भगवंत गौतम को तीन वक्त हाथ जोड प्रादक्षणावंत फिराकर बंदना तमस्कार किया, वंदना नमस्कार कर विस्तीर्ण अन्न पानी क्वान मुखवासादि प्रतिलामा [ वेहराया ) *!
अप्रकाशक-राजावहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी*
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गोयम एवं क्यासी-कहणं भंते ! तुब्र्भ परिवसह ? ॥ १॥ तसेणं भगवं गोयम अइमंत्ति कुमार एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया ! ममधम्मायरिए धम्मावदेसए धम्मनेवारं भगवं महावीरे आदिकरे जाव संपाविउकामे इहेव पोलासपुरेणयरें
बहियासे सिरिवणे उजाणे अहा पहिरवे उग्गहं उगिहित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं __भावमाणे विहरंति, तत्यणं अम्हे परिक्सामी ॥ १२ ॥ तत्तेणं से अइमुत्तेकुमारे
भगवं गोयम एवं पयासी-शामिण भैते ! अहं तुम्भे सहिं समण भगवं
महावीर पायबंदणयत्ते ? अहासुहं देवाणुप्पिया ॥१३॥ तत्तेणे अइमंतकुमारे प्रतिसाय कर पहोंचाये ॥१०॥ तब या अतिमुक्त कुमार भवंत मौतमस्वामी से ऐसा बोला-गे। भगवान ! भाप किस स्थान रहते हैं? ॥११॥ सब भगवंत गौनमस्वामी अतिमुक्त कुमार सेन व बोले- देवानुपिय ! मेरे धर्माचार्य धमेपिदेशक धर्मपंथगवर्तक भगवंत पहावीर स्वामी है।
धर्मकीमादि के करता यावत् मोक्ष के आभिलापी इस पोलासपुर नगर के पाहिर श्रीवन पागये. 13साके कस्पने योग भनिग्रह ग्रहणकर संयम तपसे अपनी मास्माको भावते हुवे विचर रो में उनके पास का ॥ १२ ॥ तब भगवंत गौतमस्वामी से अतिमुक्त कुमार यो पोसा-महो भगवान ! में श्रमण
भनव मावीर स्वामी को पंदना करमे भाप के साथ भाई भगवंत गौतमने काले देवानुप्रिया ! वेरेको
RP सांगतगररांग मष4.83+
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भगवं गोयमेण साई जेणव समणे भगवं महावीरे तेणैव उवागच्छति । समणं.. भगवं महावीरए तिक्खतो आयाहीणं पयाहीणं वदति जाव पज्जुवा संति ॥ १ ॥ तत्तेणं भगवं गोयमे जव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागते जाव पडिसेलिर, संयमेणं तवसा अप्पाणं मात्रमाणा विहरति ॥ १५ ॥ तत्तेणं समणे भगवं महावीरं अतिमुत्ते कुमारस्स तीसेय धम्मकहा ॥ १६ ॥ तएणं. से अतिमुत्ते कुमारे
समणस्स भगवओ अंतिए धम्मं सोचा निसम्म? जं. नवरं देवाणुप्पिया! अम्मा
" पियरो अपुच्छति तत्तेणं अहं देवाणुप्पियाणं अंतिए जाव पव्वयामि ॥ १.७॥ IE सुख होवेसो करो॥१३॥तब अतिमुक्त कुमार भगवंत गौतम स्वामी के साथ जहां श्रमण भगवंत महावीरस्वामी
थे तहां आया, श्रमण भगवंत महावीर स्वामी को तीन वक्त हाथ जोडपदक्षिण वर्त फिराकर वंदना नमस्कार कीयावत् सेवा भक्ति करने लगा।॥१४॥तब भगवंत गौतम जहां श्रमण भगवंत महावीर स्वामीथ तहाँ आये आहार आदि लाये थे वह बताया यावत् तप संयम से स्वात्मा भावते हुवे विचरने लगे ॥ १५ ॥ नस पक उस अतिमुक्ति कुमार को भगवंत, महावीर सामी ने धमेपिदेश मुनाया ॥ १६ ॥ तब अतिमुक्त कुमार श्रमण भगवंत महावीर स्वामी के मुखाविन्द से धर्मोपदेश श्रवण कर हर्ष तुष्ट हुवा और कहने लगा अहो देवांनुपिय ! इतना विशेष है कि मैं मेरे माता पिता से पूछकर देवानुपिया के पास पावन
अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी
.शानाजाबहादुर लाला मुखदेव सायजी ज्वालामसाद
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अर्थ
44* अष्टमांग-अंतगड दशांग सूत्र 18+
अहासु देवाणुपिया ! मपडिवध करेति ॥ १८ ॥ तत्ते से अतिमुते कुमारे जेणेव अम्मापय तेणेव उवागते जात्र पत्रइन्त ते ॥ १९ ॥ अतिमुत्ते कुमारे अम्मापियरो एवं वयासी बालेसिणं तुम्हे पुत्ता ! असंबुद्धेत्ति, कि तुम्हे जाणसिधम्मं ॥ २० ॥ तत्ते से अतिमुत्ते कुमारे अम्मापियरो, एवं क्यासी एवं खलु अम्मयाओ ! जाचेत्र जाणामि तंत्र णयाणामि, जं चेवणं न जाणामि तंश्चेव जानामि ॥ २१ ॥ तचेणं
अतिमुते कुमारं अम्मापियरी एवं वयासी कहिणं तुम्हे पुते ! जं वेत्र जाणामि तं वेत्र न जाणामि जं चैव न जाणामि तथेत्र आगामि ? ॥ २२ ॥ तन से अतिमुते
दीक्षा धारन करूंगा ॥ १७ ॥ भगवन्तने कहे हा देवानुप्रिय ! सुख होवे वैसे करो. परंतु धर्म काम में विलम्ब मत करो ! || १८ | उस वक्त अतिमुक्त कुमार मातापिता के पास आये और कहने लगे कि { यावत् मुझे आज्ञा दो में दीक्षा लेखूंगा ॥ १९ ॥ तब अतिमुक्त कुमार के मातापिता अतिमुक्त कुमार से इस प्रकार कहने लगे हे पुत्र ! तू बालक है. अशध, अज्ञ है. तू क्या समझे धर्म में साधुपने में ? ॥ २० ॥ } तब मातापिता से अतिमुक्त कुमार इस प्रकार बोला- अहो मातापिताओं ! मैं जिसे जानता हूं उसे नहीं {जानता हूं और जिसे नहीं जानता हूँ उसे जानता हूं ॥ २१ ॥ तव मातापिता अतिमुक्तकुमार से ऐसा बोले- हे पुत्र ! क्या तू जानता है सो नहीं जानता है, और नहीं जानता है सो जानता है ? ॥ २२ ॥
अतिमुक्तकुमार
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-पप-वर्गका पंचदश अध्ययन 488+0
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कुमारे अम्मापियरी एवं पयासी जागालिणं अहं अम्मलाते जहा जातणा अवस्स | मरियन्वं, न जाणामि अहं अम्मायातो कहवा कहिंवा कहवा केवचिरेणंवा । न जाणामिणं अम्मलातो कहिणं कम्मं बंधणेहिं जीवा मेरइयतिरिक्खजोणिय मणुस्स देवेषु उवबजइ । जाणामिणं अम्मतातो जहा सत्तेहि कम्मं बंधणेहिं जीवा नरइया जाव उववजहिति॥एवं खलु अहं अम्मसातो जंचत्र जाणामि तं व न आणामि,जं क्षेत्र न जाणामि तं चेव जाणामि, तं इच्छामिणं अम्मयातोसुब्भेहिं अभणुणाते जाव
पम्बहत्तए ॥ २३ ॥ सत्तेणं अतिमुसेकुमार अम्मापियरो जाव नो संचाएपि बहुर्हि अर्थ माता पिता से ऐमा बोलाहो मातपितो ! मैं जानता है कि जो जन्मा यो अवश्यही परेगा.
परंतु मैं ऐसा नहीं जानता हूं कि किस स्थान किस प्रकार किस प्रयोग कर महंगा. भौर भी हो मातापिताओं ! ऐसा नही जानता हूँ कि किम कर्म करके जीव नरक तिर्यंचादिगति में उत्पन्न होते हैं. किन्तु
सा जानता है कि जो जीच कशिस्त हैं वे नरकादिगीतमें अवश्य पस्पन होते हैं, महो पातपिनाओं में इस
बहार जिसे जानता उसे नहीं मानता हूं और जिसे नहीं जानता हूं उस जानता हूँ. इसलिये हो पाता है। ITी पहाता कि, जो भापकी भाशा हो तो दीक्षा ले५ ॥ २७ ॥र बातिमुक्त कुमार है।
ऋषिनी दक कालमारी मुनि श्री भयोलक
प्रकाशक-रात्रावहादुर खाला मुखदेवमामी मालाणसादनी
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आवेहि पण्णवहिं ॥ तं इच्छामते जाया! [ग दिवस्ममबि रायसिरि पासि॥ २४ ॥ तत्तेणं से अतिमुत्तकुमारे अम्मापिङ क्यण मणूपन्न माण तुसणिए संचिट्ठइ ॥ २५ ॥
अभिसेस जहा महाबलस्स, मिक्खमण जाव अणगारे जाए जाव सामाइय माइयाइ, मातापिता अतिमुक्त कुमारको बहुत अग्रहकर प्ररूपना-समझाकर संमार के सुख संयम के दुःख कहवताकर संसार के भीगोंमें लुन्गने समर्थ नहीं हुवे-रोक नहीं सके. तब कहने लगे कि-रे पुत्र! हम देखना चहाने हैं कि
एक दिन ता भी राजलक्ष्मीको भोक्त बन ॥ २४ ॥ तब वह अतिमुक्त कुमार मातपिताका मन रखने उस वचन को उत्यापन न करता मौन रहा ॥ २०॥ जिस प्रकार भगवती सूत्र में महावल कुमार का राज्याभिषेक का, दीक्षा उत्सव का अधिकार चला है उस ही प्रकार सब यहां जानता यामत् दीक्षा धारन कर अ..गार साधु हवे. [भगवती सूत्र के पांचवे शतक के चौथे उद्दशे में कहा है कि-उस काल उस समय में श्रमण भगवंत श्री महावीर स्वामी के भद्रिक निनीत प्रकृतिवाले अतिमुक्त अनगार-कुमार श्रमण एकदा यहा वृष्टी हुए बाद बाहिर भूमि को गये. वहां उन अतिमुक्त कुमार श्रमनने पानी के बहते हुवे 14
मनिकाकी पाल बंध कर का, उस पानी में पात्री रख कर कहने लगे. यह-मेरी नाव तीरती
करते उपपात्री रूप नावको नाविक की तरह पानी में तिराहाने लगे. यह ख्याल अन्य साथवाले स्थविर, 1ोंने देखा और आपण भगवंत श्री महावीर स्वामी के पास आकर कहने लगे कि-आपका शिष्य अति-14
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1348+ पम-धर्ममा पंचदश अध्यायन
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43 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी *
एकारस्स अंगाइ अहिजइश्वहुई वासाई सामन्नारियागं पाउणिचा, गुणरयण संवद्यार
तवोकम्मं जाव त्रिल सिद्धे॥१०॥ पन्नस्सम अज्झयण सम्मत्तं ॥ ६ ॥१५॥ मुक्त कुपार साधु कितने भवका मुक्ति जायगा ? भगवनने का अहो आपों ! मेरा शिष्य अतिमुक्त कुमार साधु चरिम शरीरी है वह इस ही भव से मुक्ति जायगा. इसलिये अहो आर्यो! नुम अतिमुक्त कुमार साधु की हीलमा निम्दा मत करो परंतु अग्लानपने उन की भक्ति करो भक्तापानादि वैयावृय करो. स्थविर भगवंतने वैसा ही किया ] अतिमुक्त कमार श्रमनने इग्यारे अंगपद. पदकर गुणरत्न नामक संवत्र तप किया, [ जिसनप का पत्र और विधी ५०३ पृष्ट में देखो] बहुन वर्ष यमपाला यावत् विपुलगिरी पर संथारा करके मुक्ति गये ॥ इति षष्टम वर्ग का पंचदश अध्ययन संपूर्ण ॥ ६ ॥ १५ ॥
काशक राजाबहादुर लाला सुखदेवमहायजी ज्वालाप्रसादजी.
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48498+ अष्टांग-अंतगड दबांग सूत्र 49+8+
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गुणरत्न
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पारा
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सर्वदिन
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इस की विधी- पहिले महिने एकान्तर उपवास, दूसरे महिने बेले २ पारना तीसरे महिने तेलेर पाना, यावतू सोलवे महिने में सोले २ उपवास के पारना करे दिनको उक्तटासन से सूर्यकी आतापना लेवे और रात्रिको वस्त्र रहित
वीरासन से ध्यानकरे. इस तपके सब तपदिन ४०७ पारणे के दिन ७३ यो
सबदिन ४८ ० होते हैं जिसके १४ महिने होते हैं इतने में यह तप पूर्ण होता है.
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कापनी+ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अपोलक
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तेणं कालेणं तेणं समएणं वाणारसीए नयरीए काम महावणे चेहरातस्थणं वाणारसीए अलक्खनामं सयाहोत्थाn ॥तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे जावः समोसरिए विहरति ॥ परिसाणिगाया ॥ २ ॥ तत्तेणं अलक्खराया इमिसे कहा लट्ठ हट्ठ जहा कुणिए जाव पज्जुवासति ॥ ३ ॥ धम्म कहा ॥४॥ तचेगं से अलक्खराया समणस्स भगवओ महावीरस्स जहा उदाइतो तहा निक्खते, नवरं जेठे पुस्तं रयं अभिसंचति ॥ ५ ॥ एकारस्स अंगाइ अहिजइ, बहुवासापरियाओ पाउणित्ता, विउलेसिई ॥ सोलरसमं अज्झयणं सम्मत्तं॥६॥१६॥ इति छटो वग्गो सम्म॥६॥ सोलहवा मध्ययन-उस काल उस समय में बनारसी नामक नगरी थी. कामवन नामक बाग था, वहा बनारसी नगरी में अलख नाय का राना राज्य करता था ॥१॥ उस काल उस समय में श्रमण भगवंत श्री महावीर स्वामी पधारे, परिषदा आइ ॥२॥ तब उप अलब राजा को यह खबर लगने से उववाद सूत्र में की कोणिक राजा की तरह सजाइ मजकर दर्शनार्थ आया यावत् भक्ति करने लगा ॥३॥ मगवंतने धर्मकथा मुनाइ ॥४॥सर मलख रामा भगवती मूत्र में कहे. उदायन राजा की तरह अमण भगवंत श्री महावीर स्वामी के पास दीक्षा धारन की, जिसमें इतना विशेष उदायनने अपने मानज (पहिन के पुत्र) को राज्य दिया था, और इनने अपने बड़े पुत्र को राज्य दिया ॥५॥ दीक्षा धारन बरग्यारे अंग पवे, पडत वर्ष साधुपना पाला यावत् विपुलगिरी पर्वतपर संथारा कर मुक्ति मये ॥३॥ तिमोरम अध्ययन संपूर्ण ॥ ६॥ इति षष्टम वर्ग ममाप्त ॥ ६॥
.प्रकाशक-राजाबहादुर मला मुखालसहायजी बालापसादनी.
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अष्टमणिभंतगर दांग मूत्र
* सप्तम्-वर्ग * एवं खलु जंबू ! समणेणं जाव संपत्तेणं छट्टस्स वग्गस्स अयम? पण्णते,जहणं भत! सत्तमस्स उखयो जाव तेरस्म अज्झयणा पन्नत्ता तंजहा-नंदा, नंदावती, चेव, नंदुत्तरा, नंदसेमिया, चेव ॥ मरूता, समरुत्ता, महामरुत्ता, मरुदेवीय, अट्ठमा ॥१॥ महातहा सुभद्दा,सुजाया, सुमणीइयाभयदीणाय,बोधवा,सेगिय भज्जा णानामाइं॥२॥ जहणं भंते ! तेस्स अझयणा 'पण्णता, पढमस्सणं भंते ! अडायणस्स समणेणं जाव संपत्तेणं के अटे पण्णवे ॥ • ॥ एवं खलु जंबु ! तेणं कालण तेणं समयणं यो निमय, जम्मू ! श्रपण भगवंत श्री महावीरसामी यावत् यावत् मुंकि पधारे उनोंने पहम वर्ग का ता उक्त कथन कहा और सातवे पर्य के नरें अध्ययन कई हैं. उनके नाम- नंदा सणी काका
२ नंदवती.राजी का, ३ नन्दुत्तरा राणी का, ४ नंदसेना राणीका, ५ मरूता राणी का, ६ सुमरुत्ता 4राना का, महायस्ता राणी का,८ मरुदेवी राणीका॥१॥९ भद्दा राणीका,१० सुभदा गणीका, १३ मुजाता
राबी का, १२ मुपतीराणी का, और १३ भूतदीना राणो का. इस प्रकार यह तेरे ही श्रेणिक राजा की रामायों मानना ॥ २॥ यदि अहो भगवन् ! सातवे वर्ग के तेरे अध्ययन कह हैं तो प्रथम अध्यय काका या सर्व गा ! ॥२॥ योनिश्रय, जम्बू ! उस काल उस समय में रानगृही नगरी, गुष..
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4-8488ससप-वर्गका प्रवन अध्ययन
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3: रायोगहे जयरे, गुणसिल चेइए, सेणिए राया, वण्णओ ॥ ३ ॥ तस्सणं सेणियस्स
रणो नंदा नाम देवीहोत्था वण्णओ ॥ ४ ॥ सामीसमोसड्डे परिसाणिग्गया ॥ ५ ॥ तत्तेणं सानंदादेवी इमिसे कहालहटेसमाणे हट्टे, कोडुबिय पुरिसे सहावेइ २ चा जाव णवरं जहा पउमावइ जाव एक्काररस अंगाई अहिजित्ता वीसंवासाई परियाओ पाउमित्ता, जावसिद्ध ॥ सत्तमस्स वग्गस्सपढमझायणं ॥७॥३॥ एवं तेरस्सवि देवीओ
नंदागमेणं नेयवा, निखवतो तेरस्सम्म अझयणं सम्मत् ॥७॥१३॥सत्तमो वग्गस्स॥७॥ सिला चैत्य, श्रेणिकराजा, इनका वर्णन जानमा । उस श्रेणिकराजा के नंदानामे रानी मुखमाल पावत् सुरूमाधी ॥ श्रमण भगवंत श्री महावीर स्वामीजी पधारे, परिषदआइ, ॥ तब वह नन्दादेवी भगवंत का आगम मुनकर हर्षपाई, कोदुम्निक पुरुष को बाला कर किरथ सज्जकराया. पद्मावती रानीकी तरह आइ धर्मकथा सुनी, श्रेणिक राजा से पूछ कर दीक्षा ग्रहण की, इग्यारे अंग पढी, बीस वर्ष दीक्षा पाली यावत सिद्धगति को प्राप्त हुई । इाते सप्तम वर्ग का प्रथम अध्ययन संपूर्ण ॥ ७॥१॥ जिस प्रकार नंदा
राणी का कथन कहा, इस ही प्रकार उक्त नाम प्रमाणे तेरेही राणीयों के तेरे अध्ययन अलग २. जानमा. 10वि मेरे अध्ययन संपूर्ण ॥ इति सप्तम वर्ग समात ॥७॥
वादक-बालप्रमचारी मुनि श्री अमोलक अपिजी
• प्रकाशक-राजाबरादुर खाला सुखदेवसहायणी
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॥ अष्टम-वर्ग । जइणं भंते! अट्ठमस्स वग्गरस उक्खेवओ जाव णवरं दस अज्झयणापण्णचा, तंजहा काली, सुकाली, महाकाली, कण्हा, सुकण्हा, महाकण्हा, वीरकण्हाय बोधवा; रामकण्हा तहेव पियसेणकण्हा, नवमा, दसमी महासेनकण्हा ॥१॥ जइणं भंते ! अट्ठमस्स गस्स दस अज्झयणा पण्णता पढमस्स अज्झयणस्स के अटे पण्णत्ते ? ॥ २ ॥ एवं खलु जंबू ? तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपाएनामं नगरी
होत्था, पुणभद्दे चेइए, कोमिएराया ॥ ३॥ तत्थणं चंपाए णयरीए सेणियरण्णो में यदि अहो भगवन् ! आठमा वर्ग का उक्षेप-यावत् इतना विशेष-दश अध्ययन कहे. जन के नाम१. काही राणी का, २ मुकाली राणी का, ३ महाकाली सनी का, ४ कृष्णा राणी का, ५ मुकृष्ण राणी का, ६.महाकृष्ण राणी का, ७ वीरकृष्ण राणी का, ८ रामकृष्ण राणी का, ९प्रियसेन कृष्ण राणी का, और १० महासेन कृष्ण राणी का ॥ १ ॥ यदि अहो भगवन् ! आठवे वर्ग के दश अध्ययन * कहे, तो अहो भगवन् ! प्रथम अध्ययन का क्या अर्थ कहा है ? ॥२॥ यों निश्चय, हे जम्मू ! उसः
काल उस समय में चम्पा नामकी नगरी थी, ईशान कौन में पूर्णभद्र नामका चैस था, कोणिक नामे रामा17 राज्य कस्ता या ॥ ३॥ वहां चम्पा नगरी में श्रेणिक राजा की भारिया, कोषिक राजा की छोटी माता! .
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49488 अहवांग-बंतगड दर्शनसब4888
23421एमवर्गका प्रथम अध्ययन 438
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42 अनुवादक बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी
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कोणिस्सरण कुलमाउ कालीनाम देवी होत्या पण्णओ, जहा नंदा जान साभाई माईयाइं एक्कारस्स अंगाई अहिज्जति, बहुई चउत्थ जात्र अप्पार्क मात्रेमाणे त्रिरहति ॥ ४ ॥ तत्तेणं सा काली अज्जा, अण्णया कयाई जेणेव अज चंदणा अजा तेणेव उवागता, एवं वयासी-३च्छामिणं अजाओ! तुन्भेहि अन्मणुणाय समाजी रयणाबालें तो कम्मं उवसपजित्ताणं विहरितए ? अहा सुहं ॥ ५॥ ततेनं से काली अज्जा अदाए अन्भणुणाया ममाणी रयणावलिं तवोकम्मं उवसंपजित्ताणं विहरति तंजा - चउत्थं करेति चउत्थं करिता सन्य काम गुणियं पारेइ पारेइता टुं
काली नाम की देवी रहती थीं. वर्णन दोग्य, जिस प्रकार नन्दा रानी का अधिकार कहा बेसा सप) {इमका भी जानना, यात्रत् दीक्षा धारणकर सामायिकादि इम्यारे अंगपढी, बहुत उपवास बेला बेला आदि । तप करती हुई पयसंय लेाभावती हुइ विचरने लगी ॥ ४ ॥ तत्र काही अर्वा अन्यदा किसी बक जहां मार्थ चन्दवालजी आर्जिका यी तहां आकर यों कहने लगी- अशे भार्याजी तुमारी माझा होतो में रत्नावली तप अङ्गीकार कर के विवरूं ? चंदनवालाका मार्जिकाने कहा- जैसे सुख दो ऐसे करो ॥- ॥ तब काली भर्जिका भार्य चन्दनबालाजी की आज्ञा मानकर रत्नावली व अङ्गीकार किया ।
* प्रकाशक- राजाबहादुर लाला ऐलदेवसहायजी याला मसादजी
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रत्नावली तपकी एक परपाटीके तपदिन ३४८ . पारणे८८जिम के महिने १५और दिन.२२
होते हैं चार परपाटी५वर्षरमास २८दिन में wwwoos ।ती हैं यह तप काली आणिकाने किया. 0999929899aasgao300033333333333399999999 1999agaae99999aesaasaas
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RANPS दूसरे अध्ययन में कही हुई सुकाली आणिकाने इस रत्नावली तप के जैसा ही कन्कावली तप किया जिस में -
इतना विशेष रत्नावली तपमें तो दोनों फूल स्थान आठ २ छठ भक्त (बेले ) किये हैं. और पान स्थान ३४ छठ भक्त केले] किये हैं. और कन्कावली तप में दोनों फुल स्थान आठ २ अष्ठम भक्त [तेले] किये और पान स्थान ३४ अष्टम भक्त किये कन्कावली तप की एक लडके तपदिन ४३४ होते हैं और पारना ८८ होते हैं. जिस के महीने १७ और दिन १२ होते हैं. चारों लडो ४ वर्ष ९ महिने १८ दिन में होती है. पारने की विधी सूत्र में कहे प्रमाने जानना. .
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अनुवादक-शलब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋपिजी 24
__ करेइ २ ता सबकामगुणिय पारेइ २ ता, अट्टम करेइ २ चा सवगुण
पारेइ २ त्ता, अट्ठ छट्ठाई करेति २ त्ता, सव्व काम गुण पारेइ २ त्ता, चउत्थ करति २ त्ता सव्व काम गुणियं पारेति २ त्ता, छटुं करति २ त्ता सन्त्र कामगुणियं पारेति २त्ता अट्ठमं कति २,ता सबकामगण पारिति, दसमं करेति २त्ता, सव्व काम गुन परिति, दुवालसमं करेति, सव्व काम ,चौदसमं करेति, सव्व सोलरसमं करेति, सम्वकाम०, अट्रारस्ममं करेत्ति सन्न काम.. वीसइमं करेति. सव्व काम.,
बावीसइमं करेति, सब काम ०. चवीसनं करेति २, सव्व काम. छब्बीसइम तद्यथा-चौथ भक्त (एक उवास) किया, चउत्थ भक्त कर, सर्व प्रकार के रसोपभोगकर पारना किया, पारनाकर छठ भता [ला ] किया लाकर सर्व प्रकार के रसोपभोगकर पारना किया, पारना कर अटम (तेला) किया, तेराकर सर्व प्रकार के रसोपभोग का पारना किया, फिर आठ छट भक्त [बेले किये, फिर पारना किया च उत्थ भक्त किया, पारना किया, छठ भक्त कर पारना किया, हर म (सेला ) कर पारना किसा, दशम भक्त (चोला) कर पारना किया द्वादशम भक्त (पचोला) कर पारनाया , चौदह भक्त (छ उपावास) कर पारना किया, सोलेह भक्त [सात उपवास कर पारना किया, अठारा भक्त (आठ उपवास) कर पारना किया, बीस भक्त [नव
.प्रकाशक राजावहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालामसादजी.
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4.31
अष्टमांग-अंतगढ दशांग मूत्र
करेति, सव्व काम, अट्ठावीसइमं करेति, सव्व काम गुण ०, तीसइमं करेति, सव्व काम, बत्तीसइमं करेति २ त्ता, सव्व काम गुण परेति २ त्ता, चौतीसइम करेति २त्ता, सव्व काम गुण पारेत्ति २त्ता, चउत्तीस छट्राई करेति, २त्ता सब काम गण पारेति ।। च उतीसइमं करेइ,.२ त्ता, सबकाम गुण परेइ २ त्ता, बत्तीसइमं करेइ, सव्व काम गण, तीसइमं करेइ सब काम गु., अट्ठाइसमं करेइ सय काम०, छब्बीसइमं करेइ, सब काम०, चोवीसइमं करेइ,-सव्व काम.
बावीसइमं करेइ, सब काम गुण• बीसइमं करेइ, सब काम०, अट्ठारसमं उपवास ] कर पारना किया, बावीम भक्त (दश उपवास) कर पारना किया, चौबीम भक्त (इग्यारे उपवास) कर पारना किया, छब्धीस भक्त (बारे उपवास ) कर पारना किया, अठावीस भक्त (तेरे उपवास) कर पारना किया, तीम भक्त (चौदे उपवास) कर पारना किया, बत्तीस भक्त [ पारे उपवास कर पारना किया, चौतीस भक्त (साले उपवास) कर पारना किया, फिर चौंतीम छठ भक्त (बेले) किये, फिर पलटे चौंतीस भक्त (सोले उपवास) कर पारना किका, बत्तीत भक्त कर पारना किया, तीस भक्तई पारना किया, अठाइस भक्त कर पारना, छन्नीस भक्त कर पारना किया, चौवीस कर पारना किया, बावीस भक्त कर पारना किया, बीस भक्त कर पारना किया अठारा, भक्त कर पारना किया, सोस
अष्टम बसेका प्रथम अध्ययन4.88
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48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी "
करेइ २त्ता सव्व काम गुण• सोलस्सम करेति, सबकाम• चउद्दसमं करेइ, बारसमं करेइ सव्व काम सव्व काम०, दसमं करेइ, सव्व काम० अट्ठमं करेइसव्व काम• छ? करेइ २ त्ता, सब काम गुण पारेइ, चौथ पारेइ २ त्ता, कामसव. अट्ठ छट्ठाई करेइ २त्ता, सव्व काय गुण पारेइ, २ त्ता, अठमं करेइ २त्ता, सव्व काय गुग पारेइ २त्ता, छटुं करेइ २ त्ता, सव्व कमा• चउत्थं करेइ २ तासव्व काम गुणं पारइ २ त्ता ॥६॥ एवं खलु एसा रयणावलीए तवो कम्मस्स पढमापरिवाडी; एगेणं संवच्छरेणं तिहिंमासेहिं .
बावीसाए अहोरत्तेहिं, अहासुसं जाव आराहिया भवति ॥ ७ ॥ तयाणं तरंचणं दोच्चा भक्त कर पारना किया, चौदह भक्तकर पारना किया, वारेह भक्तकर पारना किया, दशभक्त कर पारना किया, अष्टम भक्तकर पारना किया, छद भक्तकर पारना किया, चौथ भक्तकर पारना किया, फिर आठ छठ भक्त किये, अष्टम भक्तकर पारना किया, छठ भक्तकर पारना किया,
और चौथ भक्त (एक उपवास कर सर्व प्रकार का रसोपभोगकर पारना किया ॥६॥ यों निश्चय यह रत्नावली तपकर्म की प्रथम पारपाटी हुई, इस के करने में एक वर्ष तीन महीने, बाइस अहो रात्रि लगी है, इस प्रकार सूत्र में कहे मुजब पावत् तपका आराधन किया।॥७॥ तब फिर उस कालीराणीने दूसरी
प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायनी ज्वालाप्रसादजी *
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अर्थ
- अष्टमांग-अंतगड दशांग मूत्र 40848
परिवाडीए-चउत्थं करेति २त्ता विगइवज पारेइ २त्ता, छटुं करेइ, विगइवजं पारेइ, एवं जहा पढमाए परिवाडीए तहा वीआएवी णवर सव्वत्थ पारणए विगइवजं पारेति जाव आराहिया भवइ ॥ ८ ॥ तयाणं तरंचणं तच्चा परिवडीए चउत्थं करेइ अलवाडं पारति जाव आराहिआ भव ॥ ९॥ एवं चउत्थाधि परिवाडी नवरं
सव्व पारणाइ आयंबिलं पारइ २त्ता सेसं तंचेव ॥ (गाथा) पढमंमि सब काम । वरवाडी अंगीकार की-उथ भक्त किया करके, विगय । दूध, दही, घी तेल मिठाइ) छोडकर बाकी आहार से पारना किया. ऐसे ही-छठ भक्त कर पारना किया, ऐसे ही अष्टम भक्तकर पारना किया, फिर भाठे वेले किये, उन का पारना भी विगय छोडकर किया, फिर चौथ भक्त से लगाकर चौतीम में भक्त तक चडता तप किया, फिर चौंतीप छठ भक्तकर पारना किया, फिर चौतीस भक्त से लगाकर चौथ भक्त तक उतरता तप किया, फिर आठ छट भक्त किये, अष्टम भक्त छठम भक्त और चौथ भक्त कर पारना किया, यों इस दूसरी परीपाटी तपका पारना सविनय रहित किया॥८॥फिर तीसरी परिपाट,
भी इस ही प्रकार की विशेष इतना कि-इस में तप के पारने सब निर्लेप (जिस का लेप न लगे जो *प्रवाही-पतला पदार्थ न हो) उस से पारना सिया ॥९॥ चौथी परीपाटी भी इस ही प्रकार तप किया, जिस तप के पारने में आयविज्ञ (एक प्रकार का मुंजा हुवा धान्य. पानी में भीजोकर खाकर )
- अषष्टम-वर्गका प्रथम अध्ययन 42
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सुत्र
48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋपिजी gh
गुण पारे, वितियंते विगय वजं; तइयांम अलेवार्ड, आयंबिलमी चउत्थंमि ॥ १॥ तत्तेणं सा काली अजा तं रयणावली तवो कम्मं पंचाहिं संश्च्छरोहिं दोहिंअमासे हिंय अठावीसाए दिवसेहि अहासुत्तं जाव आराहेत्ता, जेणेच अज्ज चंदणा अजा तणव उवागच्छति अज चंदणंच, वंदति नममंति, वंदित्ता नमंसित्ता वहहि चउत्थं जाव अप्पाणं भावमाणे विहरति ॥ ११॥ तत्तणं सा कालीअजाए तणं उरालणं जाव
धम्माणिसंतए जातेयावि होत्था से जहा नामए इंगाल सगडेइवा जाव हुयासणेइव भासा पारना किया ॥१०॥ गाथार्थ-प्रथम परिहाटी में सर्व प्रकार के रोपभोग कर पारना किया, दम परिपाटी में पांचो विगय को छोडकर पारमा फिया, तीसरी परिपाटी में जिस वस्तु का लेप लगे ऐसी वस्तु को छोडकर पारना किया, और चौथी लड में आयंबिल कर पार किया ॥ १०॥ तब वह काली
आर्जिका को उस रत्नावली तप करने में पांच वर्ष दो महिल, अठाचीस दिन रबि लगे. रस्नावली तप को काली थार्जिकाने सूत्रोक्त विधी प्राण आराध कर जहां चंदनवाला आका की लहां आई, चंदनवाला आर्जिका को वंदना नमस्कार किया, वंदना नयस्कार कर बहुत चौथ भक्त छठ भक्तकर यावत् अपनी आत्मा को भारती विचरने लगी ॥ ११॥ तब काली आर्जिका उस औदार प्रधान तप करके यावत् उस के शरीर की माशाजाल देखाने लगी, ऐसी दुर्वल बनगई किन्तु उस तप के तेज कर जिस प्रकार
प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादजी *
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अष्टमांग-अंतगड दांग सूत्र
रासि पलिछिणाति तयेणं तेएणं तवतेअसिरीए अतीव उवासोभेमाणी२चिटुती॥१२॥तएणं साकाली अजा तेअण्णयाकायाति पुत्वरत्ता वरत्तकाल समयसि अयं अज्झथिए जहा वखं धएस्सावि, जहा जाव अस्थिमे उहाण जाव परिसकार परकमे जावमे सेयकलं जाव जलंते अजचंदणा अजं आपुच्छित्ता, अजवंदगाए अजाए अब्भणुणाए समाणाए संलेहणा असणा भत्तपाणं पडियायक्ले कालं अणय कंखमाणं विहारित्तए तिकदृ, एवं संपेहेइ २ करूं जेणेव अज्जचंदणा अन्जा तेणेव उवागच्छइ २ त्ता भजचंदणस्स
वंदति ममंसंति वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-इच्छामिणं अजाओ तुब्भेहि अभण राख से ढकी हुइ अग्नि प्रादिस रहती है. उस प्रकार शोभा देने लगी ॥ १२॥ तप वह काली आजिका
अन्यदा किसी वक्त आधी रात्रि व्यतीत हुवे भगवती में कहे स्कन्धकजी के जैरा विचार किया यावत् जहां में सक मेरे शरीर में शक्ति है उत्थान कर्मवल वीर्य पुरुषात्कार पगक्रम है, तहां तक में मात:काल होते ही
आर्य चन्दनजी आर्जिका को पूछ कर, आर्य चन्दनजी की आज्ञा प्राप्त होते सलेपना झामना कर, आहार पानी का प्रत्यख्यान कर काल की वांच्छा नहीं करती हा विचर. एसा विचार किया, एमा विचार कर प्रातःकाल होते ही जहां आर्य आजिका चंदना थी तहां आइ, आकर चन्दना आजिका को वंदना नमस्कार किया, वंदना नमस्कार कर यों कहने लगी-अहो आणिकाजी ! जो आपकी आज्ञा
4860048 अष्टम-वर्गका प्रथम अध्ययन
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4.१ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी:
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णाएसमाणा संलेहणा जाव विहरति ? अहा सहं ॥ १३ ॥ तत्तेणं सा काली अजा - चंदणाए अब्भणूणायासमाणी संल्लेहणा ज्यूसिया जाव विहरित्तए ॥ १४ ॥ तत्तेणं सा कालीअजा चंदणाए अंतिए समाइमाइयाइं एक्कारस्स अंगाइ अहिज्जित्ता, बहु एडिपुणाई अट्ठ संबच्छराइं समणे परियागं पाउणित्ता,मासियाए सलहणाए अप्पाणं झसिस्ता सद्धिभत्ताई अणसणाए छेदित्ता जस्सट्टाए करेति जाव चरिमुसासेहिं सिद्धा ॥
॥ १५ ॥ अट्ठमस्स वग्गरम पढमज्झयणं समत्तं ॥ ८ ॥ ३ ॥ है तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपाएणामं णयरी होत्था, पुण्ण भद्देचेइए, कोणिएराया, हो तो मैं चहाती हूं कि सलेपना कर यावत् विचम् ? चंदनवाला आजिका बोली-जिस प्रकार सुख हो उस प्रकार करो ॥ १३ ॥ तब कालि भार्जिका चन्दवाला आर्जिका की आज्ञा से सलेपना झोंसना कर यावत् विचरने लगी ॥ १४ ॥ तब काली आनिका चंदनवाला आर्जिका के पास साायिकादि ग्यारे अंग पढी थी, उसे याद करती, वहुत प्रतिपूर्ण आठ वर्ष श्रमण-दी की पर्य:य का पालन कर, एक महीने
ना से आत्मा को झोंसकर, साठ भक्त अनशन का छेदन का, जिनके यि गण्डन ईई थी वह कार्य सिद्ध किया यावत् चरम उश्वास निश्वाम में सिद्ध हुई यावत् सर्व दुःख का अन्त किया ॥१५॥ इति । अष्टम वर्ग का प्रथम अध्ययत संपूर्ण ॥ ८ ॥ १॥ उस काल उस समय में चम्पा नाम की नगरी थी,
प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी
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तत्थणं सेणियरस रणो भजा, कोणियस्सरणो चुल्लमाउया, सुकालीणामं देवीहोस्था,
जहा काली तहा सुकाली निक्खत्ता जाव बहुहि चउत्थं जाव भावमाणे विहरइ 1. ॥१॥ तत्तेणं सुकाली अजा अन्नयाकयाइ तेणेव अजचंदणाए अजा जाव इच्छा
मिणं अज्जा तुब्भेहि अब्भणुणाए समाणी कणगावली तयोकम उवसंपजित्ताणं विह.. रित्ताए! एवं जहा रयणावली तहा कणगवाली, नवरं तीसुटाणेसु अट्टमाइ करेति, .
जहिय रयणावली, छट्ठाइ ॥ २ ॥ एकाएकाएपरिवाडिए संवच्छरे पंचमासा अर्थ पूर्णभद्र यक्ष का चैत्य था, कोणिक नाम का राजा था, तहां श्रेणिक राजा की भारिया, कोणिफ राजा
की छोटी माता, मुकाली नाम की राणी थी, जिस प्रकार काली राणीने दीक्षा ली उस ही प्रकार सुकाली
राणीने भी दीक्षा ली यावत् बहुत प्रकार चइत्य भक्त छठ भक्त अष्टम भक्त आदि तप करती हुई विचरने लगी॥२॥ है तब सुकाली आणिका अन्यदा किसी वक्त जहाँ चंदनवाला आर्जिका थी तहां आई, वंदना नमस्कार कर
कहने लगी-मैं चहाती हूं आपकी आज्ञा हो तो कनकावली तप कर्म अंगीकार कर विचरूं ? यों जिस है। 198 प्रकार रत्नावली तप का कथन कहा तैसा ही सब कनकावली तप का भी कहना, जिस में विशेष इतना 0
उम तप के तीन स्थान में ले किये थे, प्रथम स्थान में आठदुनरे स्थान में तप के मध्य में) चौंतीस, तीसरे स्थान 17 में आठ, और इस तप में तीनों स्थान में इतने ही तेले किये, और सब तैसे ही जानना. इन तप की एक परीपाटी में
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अष्टमांग-अंतगह देशांग सत्र
839 अष्टम-वर्गका द्वितीय अध्ययन 480%80
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22 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी
वारस्सय अहोरत्ता ॥ ३ ॥ चउण्हं पंचवरिसा, नवमासा अट्ठारस्स दिवसा सेसं तहेव ॥ नववासा परियातो जाव सिद्धा!। बीय अज्झयणं सम्मत्तं ॥ ८ ॥ २ ॥ एवं महाकालीबी, णवरं-खुडाग सीहनि कीलियं तबोकम्म उवसंपजित्ताणं विहरंति, तंजहा-चउत्थं करेइ २त्ता सव्वकामगुण पारइ २ त्ता, छटुंकरइ करेइ २ त्ता, सब्बकामगुण पारेइ २ त्ता, चउत्थं करेति २ त्ता, सव्वकामगुण, अट्ठम करेइ २, सव्वकामगुण ०, छटुंकरेइ २, सव्वकाम०, दसमंकरइ २, सब्बकाम ,अट्ठमंकरेइ २ सन्चकाम०, दुवालसमं करेइ, सव्वकामगु०, दसमंकरेइ २, सव्वकाम, चउपसमं ।
करेइ २, सव्वकामगु०, दुवालसमं करेइ २, सन्दकाम०, सोलस्समं करेइ, एक वर्ष पांच महीना बारे अहोरात्र लगी और चारों परीपाटी में पांच वर्ष नव पहीने अठारे दिन लगे. शेष अधिकार तैसा ही जानना. नव महीने दीक्षा पाल यावत् सिद्ध हुई ॥ इति अष्टम वर्ग का द्वितीय अध्ययन समाप्त ॥ ८॥२॥ऐसे ही महाकाली रानी का भी सब अधिकार जानना जिसमें इ विशेष-लघु सिंहकी क्रीडा का तप अंगीकार कर विचरने लगी-तद्यथा--चौथ भक्त किया, करके, सर्व प्रकार के रसोपभोगकर पारना किया, ऐसे ही छठ ५क्त कर पारना किया, चौथ भक्तका पारना किया, अष्टम भक्तका पारना किया, छठभक्तका पारना किया, दांगकर पारनाकिया,
.प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी
अर्थ
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F
富
43+42 अष्टमांग-अंतगड दशांग सूत्र +488+
~\r\n\n\n\*\~\s*/0/0/5/0/0/9/0
dece
लघुसिह क्रीडातप.
लघु (छोटे) सिंह के क्रीडा जसे तप के दिन १५४ पारणा ३३ सर्व मास ६ दिन २ चार ओली के २ वर्ष २८ दिन लगते हैं.
\\\\\\\\*\0/s/9/6/0/9/0
, अट्ठा
सव्वकाम • उदसमं करेइ, सव्वकाम •, अट्ठारस्समं करेइ, सव्वकाम०, सोलस्समं करेइ २, सव्वकामगु०, बीसइमं करेइ २, सव्वकामगु०, रस्समं करेइ, सव्वकामगु, बसिइमंकरेइ २, सबकाम",सोलस्सं करेइ२, सव्त्रकागुण, अट्ठारसमं करेइ, सव्वकमि०, चादंसमे करेइ २, सबकागुण, सोलस्समं करेइ २, सव्वकाम...
अष्ट भक्तकर पाना किया. द्वादश भक्तकर पारना किया, दशम भक्तकर पाना किया, चउदह भक्तकर पारनाकिया, द्वादश भक्तकर पारनाकिया सोलह भक्तकर पारनाकिया, चौदह भक्त कर पाना किया, अठारा भक्त पारनाकिया, सोलह भक्तकर वाना किया, वीसभक्तकर पारनाकिया, अठारा भक्तकर पारनाकिया बीसभक्त कर पारना किया, सोला भक्त कर पाना किया, अठार भक्त कर पारना किया, चौदह
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+++ अट्टम वर्गका तृतीय अध्ययन 50 498
११९.
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अनुवादक-पालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी +
बारसमे करैइ२, सव्वकागुण, चौदसमं करेइ २,सम्वकामगुण, दसमंकरेइ,सकाम. दुवालस्समं करेइ, सव्व काम गुण• अट्टमं करेइ, सव्व काम• दसमं करेइ, सव्व काम गुण., छटुं करेइ २ सव्व काम गुण पारेइ २ त्ता, चउथं करेइ सव्व काम गुण पारेइ ॥ १॥ तहेव चत्तारी परिबाडी ॥ एकाए परिवाडिए छमासा. सत्ताय दिवसा, चउण्हं दोवरिसा, अट्ठावीस दिवसा ॥ जाव सिद्ध। ॥ २ ॥ तत्तिय
अज्झयणं सम्मत्तं ॥ ८ ॥ ३. ॥ एवं कण्हावि णवरं महालियं सीहनि कीलियं तवो भक्तकर पारना किया, सोलह भक्तकर पारना किया, बारेभक्तकर पारना किया, चौदइ भक्तकर पारनाकिया, दशम भक्तकर पारना किया, द्वादश भक्तकर पारना किया, अष्टम भक्त भक्तकर पारगा किया, दशम भक्तकर पारनाकिया, छठ भक्तकरपारनाकिया, अष्टम भक्तकर पारना किया, चौथ भक्तकर पारना किया, छठ भक्त कर पारना किया और चौध भक्तकर सर्व प्रकार का रसोपोगकर पारना किया ॥ १॥ यह एक परपाटी हुई, इस ही प्रकार चारों परिपाटी जानना दुसरी के पारने में विगय छोडी तीसस के पारने में लेप आहार छोडा और चौथी परपाटीके तपके पारनेमें आबिलकिये॥२॥ इसकी एक परपाटी में छे महीने
और सात दिनलगे और चारों हा परीपारी में दो वर्ष अठावीस दिन लगे ॥ यावत् सिद्ध हुई ॥a इति अष्टम वर्ग का तृतीय अध्ययन समाप्त ॥ ८ ॥ ३ ॥ ऐसे ही कृष्ण रानी का भी जानना यावत् दीक्षा
प्रकाशक-राजाबहादर लाला मुखदवसहार जी ज्वालाप्रसादजी.
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अधमांग अंतगड दशांग मूत्र
कम्म, जहिव खुडागं, गवरं चौतीसइमं जाव नेयत्रं, तहेब उसारेयवं ॥१॥ एकाए परिवाडिए वरिसं छमासाय, अट्ठारस्सय दिवसा, चउण्हं छबरिसा, दोमासा धारसय अहोरत्ता, और जहा कालीए तहा, जाच सिहा ५ ॥ चउत्थं अज्झयणं सम्मत्तं ॥४॥ एवं सुकण्हावि गवरं सत्तमं सत्तमियं भिक्खू पडिमं उवसं
पजित्ताणं विहरति, तंजहा-पढमए सत्तए एकके भोयंणस्स दत्तिओ पडिग्गाहेति पारन कर इसने बड़े सिंहकी क्रीडा का तपकिया ॥१॥जिस प्रकार छोटे सीहकी क्रीडाके तपका कथन कहा
उसही प्रकार घडसिंहकी क्रीडाके तपका भी अधिकार जानना जिसमें इतना विशेष लघुसिंहकीफ्रिडा है केतप में तो बीस भक्त ( ९ उपवास तक ) तप करके पीछे फिरते और इस में चौंतीस भक्त
(१६ उपवासतप कर उसहा प्रकार पीछे फिर व २रोक्त रीति प्रामाणेही घाना चाहिये ॥२॥ इसकी एक पाटी में एक वर्ष छ महीने और अठारे दिन लगे, और चारों परीपाटी में छ वर्ष दो महीने बारे अहोई । रात्रि लगी॥ ४ ॥ शेष अधिकार काली रानी जैसा जानना यावत् सिद्ध हुई ॥ इति अष्टम वर्ग का चतुर्थ अध्ययन समासम् ॥ ८ ॥ ४॥ + ॥ ऐसे ही सुकृष्णा रानी का भी अधिकार मानना, जिस में इतना विशेष सातवी सातअहो रात्री की भिक्षुक की प्रतिमा अंगीकार कर विचरने लगी-तद्यथा-प्रथम सातदिन तक सदैव एक दाति आहार की और एक दाती पानी की ग्रहण की, दूसरे सप्त में सात
अष्ठम-वर्गका ४-५. अध्ययन
MAarunaurarunnura
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सूत्र
अर्थ
+3 अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी
एक्केकं पाणयस्स, दोचा सत्तए दो दो भोयणस्स दो दो पाणगस्स पडिग्गाहेति, तच्चासत्ताए तिणि भोयण पाण, चउत्थचर, पंचमेपंच, छटुंछ, सत्तमसन्ताए सत्त २ दत्ताओ भोयणस्स पडिग्गाहेति, सत्त पाणस्स || १ || एवं सत्तामियंचि भिक्खू पडिमं एक्कुणपणाएराई दिएहिं एगेणय छणउएणं भिक्खासणं ॥ अहासुतं जाव आराहितिन्ता ॥ २ ॥ जेणेव अज्ज चंदणा अज्जा तेणेव उवागया, अज्ज चंदणाय अज्जायं वंदेइ नमसेइ एवं वयासी - इच्छामिणं अजाओ ! तुम्भेहि अणुणाया समाणी, अट्ठट्ठमियं भिक्खु पडिमं उपसंपज्जित्ताणं विहरितए ? अहासुहं ॥ ३ ॥ तचेणं सा सुकन्हा अजा
दिन सदैव दो दाती आहाकी और दो दाती पानी की ग्रहण की, तीसरे सप्त में सात दिन तक सदैव तीन दाति आहार और तीन दाति पानी की ग्रहण की, इस प्राकारही चौथे सप्त में चार २ दाती, पांचवे { में पांच दाती छठे में छेछे दानी, और सांतवे सप्तमें सात दाती आहार की और मात दाति पानीकी ग्रहण की ॥ १ ॥ यों निश्चय पानी सात सहे की भिक्षुकी प्रतिमा में गुन पचाम अहो रात्रि लगी और सव दाति एक सी छिन् ई. जिसका यक प्रकार मे सुत्रोक्त विधी प्रमान यावत् आराधन किया ॥ २ ॥ जहां चंदन बाल का आर्जिका थी तहां आई, आर्य चंदन वाला आर्जिका को वंदना नमस्कार कह यों कहन लगी- चहाती हूं अहो आर्जिकाजी जो आपकी आज्ञाहा तो आठमी आठ २ दिन की भिक्षुकी प्रतिमा अंगीकार कर विचरू ? || चंदन वाला आर्जिकाने कहा जैसे सुख होवे वैसे करो || ३ || तब वह मुकृष्णा
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* प्रकाशक- राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वाला मसादजी *
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अष्टमांग-अंतगड दशांग सूत्र 4888
चंदणाए अम्भणुणाय समाणी अभियं भिक्ख पडिम उपसंपविताणं विहरति । पढमं अट्ठते एक भोयणस्त दत्ति,एक पागंगात जाव अ नार अभायणस्स एडि. गाहेति अटू पाणस्य एवं खलु एवं अनियंभिक्खु पडि उसई न देर हैं, दोहिय अट्ठसाहि भिक्खासतेहि।४॥अहा जावनवनवाभियं भिक्स्यू कहिन उपसा तिताविहर, पढमेनव के एककंभोयणदात्त,एकक पाणस्त जाव णवमे कनकंपत्ति मागणपडि० नव पाणस्स एवं खलु नवमियंभिक्खु पडिमं एकासीए राइदिएहि, चउहि पचुत्तरह, भिक्खासा एहिं, अहासुत्तं ॥५॥ दस दसमियं भिक्खू प.डमं उनसंपजित्ताणं विहरई, पढमे इसके
आजिवचरम लगी जिससे का दो दाति पानी इसी के सब दिन किस करके विग्नेदात आहार की
आजिका आर्य चंदना आर्जिकाजी की आज्ञा प्राप्त होते आठमी आउ२ दिन की भिक्षकी प्रतिमा अंगीकार कर विचरने लगी-जिस मे प्रथम आठ दिनतक एक दात आहार की एक दाति पानी की, दूसर आठ दिन तक दो दाति आहार की दो दाति पानी की यावत् आढो दिन तक आठ दाति आहार कि
और आठ दाति पानी की ग्रहण की । इस के सब दिन ६४ लगे और मत्र दाति दोसो अठ्य सी हुई ॥ ४॥ फिर नववी नत्र २ दिन की भिक्षकी प्रतिमा अंगीकार करके विचरने लगी-प्रथम के
नव दिन तक नव दाती आहार की नव दानी पानी की यावत् व बदिन तक नवदाति आहार की 90 है और ना दाती पानी की ग्रहण की ॥ यों निश्चय नवी भिक्षुक की प्रतिमा इक्यासी दिन में हुई 100 | जिस की दाती चारसो पचहतर हुइ ॥ ५ ॥ फिर दशमी दशदिन की भिक्षु की प्रतिमा अंगीकार करके ?"
-नर्गका पंचम अध्ययन 48862
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* नव दिन तक नव दाताण की ॥ यो निश्चय नवमा दशदिन की भिक्षुकी प्रति
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42 अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी +
एक्ककं भोयणदत्ति पडिमं एकेक पाण, जाव दस दस भोयणदत्ती, पडिग्गहेति दसपाण ॥ एवं खलु एयं दसमियं भिक्खू पडिमं एके पडिमं एकणराइंदिय सएणं अट्ठछटेहिव भिक्खासएहिं अहासुत्तं जाव आराहेति २ त्ता ॥ ६ ॥ बहुहिं चउत्थ जाव मासहमास विविहं तधोकम्मेणं आगणं भावमाणे विहरति ॥७॥ तएणं सा सुकण्हा अजा तेहिं, उरालेणं जाव सिहा ॥ निक्खेवओ ॥ पंचमं
अज्झयणं सम्मत्तं ॥ ८ ॥ ५ ॥ एवं मता कण्हावि, णवरं खुडुयं सवतो भदंपडिमं विचरनेलगी-जिसमे प्रथम के दशदिनतक में एकदाति आहारकी और एकदाति पानीकी, दुसरे दशदिनतक, दो दाति आहार की दो दाति पानी की यावत् दशवे दशदिनतक दश दाति आहारकी और दश दाति पानीग्रहण की ॥ यों निश्चय दशवी प्रतिमा में सब सो (१००) दिन लगे, और इसकी सबदाति पचास कम छमो [ ५५. ] हुइ ॥ यथा सूत्रोक्त विधी प्रमान आराधी ॥ ६ ॥ फिर बहुत से चउथभक्त छठ भक्त मासखमन आधामहीना आदि अनेक प्रकार के तपकर अपनी आत्मा को भावती हुई विचरने लगी ॥ ७ ॥ तब सुकृष्णा आर्जिका उन उदार तप कर दुर्बल हुई यावत् । सलेषना कर सिद्ध हुई ॥ ८ ॥ अष्टम वर्ग का पंचम अध्ययन संपूर्ण ॥ ८॥५॥ ऐसे ही महाकृष्णा राणी भी दीक्षा धारन कर विचरने लगी, जिम में इतना विशेष इमनें छोटी सर्वतो भद्र प्रतिमा की
• प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेव सझयजी ज्वालाप्रसादजी
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- अहमांग अंतगड दशांग मूत्र 4
उपसं पाजताणं विहरति, तंजहा-चउत्थं करेति २ त्ता, ५ भद्र प्रतिमा. सव्वकामगुणियं पारेता २, छटुं करेति २ ता सव्व १।२।३।४।५
कामं गु०, अट्ठमं करेति २ त्ता, सव्वकाम गुण०, ३।४।५।५।२.
दसमं करेति २ त्ता, सय काम गुणं, दुवाल सम ४२३४।५।१
करेति २, ता सबकाम गुण ० अट्ठमं करेति २ त्ता, ४।५।११२।३ Paasaasaassaasdasti भद्रपतिमा तपके तपा
सवकाम गुण ०, दसमं करेति २ ता, सव्व काम दिन७५पारण२५
गु०, दुवालसमं करेति २ त्ता, सव्व काम०,
चउत्थं करेति २, सयकाम, छटुं करेइ २, सव्व तयथा-चौथ भक्त किया, करके सर्व प्रकार के रसोपभोग भोगकर पारना किया, ऐसे ही छउ भक्त का
पारना किया, अष्टम भक्त का पारना क्रिया, दशम भक्त कर पारना किया, द्वादश भक्त कर पारना, Y० किया, अष्टप भक्त कर पारना किया, दशम भक्त कर पारना किया, द्वादश भक्त कर पारना किया,
च उत्थ भक्त कर पारना किया, छठ भक्त कर पारना किया, द्वादश भक्तकर पारना किया, चौथमा
अपश्य-वर्गका अष्टम अध्ययन 43
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49 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी+
काम; दुवालसभं करेति, सव्व काम• चउत्थं करेति, सब काम०, छट्टे करति २, सव्व कामगुण. अठम करेइ २, सयकाम०, दसमं करेति २, सव्व काम • छटुं करेति २; सबकाम• अट्ठमं करेइ २, सबकाम०, दसमं करेइ २, सवकाम०, दुवालसमं करेति २, सव्वकाम०, चउत्थं करेति, २ सव्यकाम गु०, दसमं करेति २, सव्व काम गु. दुवालसमं करेति २. सव्यकाम २, चउत्थं करेउ २, सव्वकाम०, छटुं करेइ २ सयकाम गु०, अट्ठमं करेइ, सव्वकाम
गुण, ॥ १ ॥ एवं खलु खुडाग सव्यतो भद्दरस तवो कम्मरस पढम पडिवाडी, भक्त कर पारना किया, छठ भक्त पारना किया, अष्टप भक्त कर पारना किया, दशम भक्तकर पारना किया, छठ भक्तकर पारना किया, अष्टम भक्तकर पारना किया, दशम भक्तकर पारना किया, द्वादश भक्तकर पारना किया, चौथ भक्तकर पारना किया, दशम भक्तकर पारना किया, द्वादश भक्तकर पारना किया, चौथ भक्तकर पारना किया, छर भक्तकर पारना किया, और अप भातकर सर्व रस का उपभोग कर पारना किया ॥१॥ यो निश्चय सर्वतोभद्रप कर्म प्रतिमा प्रथम परवाडी तीन महीने दश दिन में सूत्रोंक्त विधी प्रमाणे आराधी ॥२॥ फिर दूसरी पारवाडी अंगीकार की, जिसमें चोथ
.प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी
अर्थ
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तिहिं मासेहिंय, दसहिय दिवसेहि, आहासुतं जाव आराहेत्ता ॥ २ ॥ दोच्चाते पडिवाडाए, चउत्थ करति २, विगइ वजं पारेति ॥ जहा रयणावली तहा एत्थवि चत्तारी परिवाडितो, पारणा तहेर ॥ ३ ॥ चउण्हं कालो संवच्छरमारो सहिय दिवसा, सेसं तहेव जब सिद्धा॥ ४ ॥ निक्खवर छट्ठभं अज्झयणं सम्म ॥८॥६॥ एवं वीरकण्हावि, णवरं महालयं सबतो भदं तबो कम्मं उत्रसंपजित्ताणं विहरति ॥ तंजहा चउत्यं करेति २त्ता सव्व काम छटुं करेइ,मन्त्र काम०, अट्ठमं करेइ२,सन्यकाम,
दसमं करोति २ त्ता सव्वकामगु०, दुवालसमं करेद, सधकामगु०, चादसमं करइ, भक्तादि सर्व तप उक्त विधी प्रमाणे किया. इस में इताविप पारने में पांचों विगय का त्याग कियाई है तोसरे में लेप लगे ऐसे आहार का त्याग किया और चौथी लडके व पान में आयोयल किया
इस प्रकार चारों परिवाडी जानना. जिस की पारना को विधी २:वली तप मैसी जानना ॥ चारों परवाडी का काल-एक वर्ष एक महीना दश दिन, शेष कथन तैसा ही जानना यावत् सिद्ध हुई है। इति अष्टम वर्ग का षष्टम अध्ययन संपूर्ण ॥ ८ ॥ ६ ॥ ऐसे ही वीर कृष्णः राणी का मी जानना. यावत् + दीक्षा धारन कर विविध प्रकार के तप करने लगी, इस में इतना विशष बडी सनतोभद्र प्रतिमा रूप तप
कर्म अंगीकार कर विचरने लगी-तद्यथा-चौथ भक्त कर सर्व प्रकार के रस का उपभोग कर पारना [१ किया, ऐसे ही-छठ भक्त कर पारना किया, अठम भक्त कर पारना किया, दशम भक्त कर पारना ।
अष्टमांग-अंतगड दशांग सूत्र 4882
अषष्टम-बगेका सक्षम अध्ययन 4
2
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THREESECRECE5563
अनुवादक-वालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी 87
198666000000000ccceeds सर्वतोभद्र प्रतिमा.
सबकाम., सोलसमं करेइ,सवकामगुण, एकालया lessSECcccesssessess
श३.४ादा। ॥ १ ॥ दशमं करेति, सव्वकामगुण., दुवालसमं ७४।६।७।१२।
करेती सम्वगुण. चौदशमं करेती सव्व० सोलसमं ७ . २ ३ ।४।५।
करेती सव्व ० चउत्यं करेति स• छटुं करेति सब. ।७।१।२।३।४।५ अट्टमं करेति सव्व वीयालया ॥ २ ॥ सलसमं करेति २१३।४।५।६। ।
सम्बकामगण. चउत्थं करोति. सव्यकामा छटंकरेति. द ६ ।८। ३।३।४ namasaamaanaamarpaipaat सचकामगण, अट्रेकरेति, सव्वकाम०, दसमं करेति, महाभद्रमतिमातका तपी र दिन११६पारण ४१. सत्यकाम, दवालसमं करति २, सधकाम., चादसम
2093333333333892202927 किया, द्वादश भक्त कर पारना किया, चौदह भक्त कर पारना किया, सोले भक्त कर पारना किया, यह प्रथमलता ॥ १॥ दशम भक्त कर पाना किया, दाश भक्त कर पारसा दिया, चौदह भक्तकर पारना किया, सोला भक्त कर पारना किया, चौय भक्त कर पारा किया कर पारना किया, अष्टम वक्त कर पारना किया, यह दूसरीलता ॥२॥ सोलह भक्त कर पाना किया, चौथ भक्स कर पारना किया, छउ भकत कर पारना किया, अष्म भक्त कर पारना क्रिया दशम भरा कर पारना किया।
* प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवमहायजी ज्वालाप्रसादजी
अथ
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करेति २, सव्वकामगु० तइयालया ॥ ३ ॥ अमं करेइ २, सव्वकाम ०,दशकर २ सव्वकागु• दुवालस्समं करेइ २, सबकाम०, चोदसमं करेइ२, सबकामं०, मोलसमं करेइ२, सव्यकाम, चउत्थं करेइ२, सबकामगु० छ? करेइ २ त्ता, सव्वकाम गुणं पारेइ २ त्ता, चउत्थीलया ॥ ४ ॥ चउदसमं करेइ २, सबकाय०, सोलसमं करेइ २, सव्वकाम०, च उत्थं करेति २, सव्वकाम, छटुंकरेति, सव्वकाम• अट्टमं करेड २. सव्वकामगणं, दसमकरति. सव्वकाम.. दवालस्सम २. सव्वकाम,
पंचमलया ॥५॥ छटुं करेइं२, सव्वकाम०, अट्ठमं करेइ २, सव्वकाम, दसमं करेइ, दादश भक्त कर पाना किया, चौदह भक्त कर पारना किया, तीसरीलता ॥ ३ ॥ अष्टम भक्म कर पारना किया, दशम भक्त कर पारला किया, द्वादहा भक्त कर पारना किया, चौदह भक्त कर पारना किया, सोला भक्त कर पारना किया, चौथ भक्त कर पारना किया, छठ भक्त कर पारनाई
किया, चौथीलता ॥४॥ चउदा भक्त कर पारना किया, सोला भक्त कर पारना किया, चौथ भक्त कर Joपारना किया,छठ भक्तकरपारना किया,अष्टम भक्तकर पारना किया,दशम भक्तकर पारना किया.द्वादश भक्त कर
मारना किया पांचवीलता ॥५॥ छउ भक्त कर पारना किया, अष्टम भक्तकर पारनाकिया,दशम भाकर पारना ।
अष्टमांग-अंतगड दशांग सूत्र+438
अष्टप-वर्गका सप्लप अध्ययन
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अर्थ
अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी
सव्वकाम०, दुवालरस में क० सव्वकाम०, चोदसमं क० सव्यकाम०, सोलमं करेइ २ सव्वकाम०, चउत्थं सव्वकाम करेइ, छट्टीलया ॥ ६ ॥ दुवालसमं करेइ, सव्वकाम • चोदसमं करेइ २, सव्वकाम०, सोलमं करेइ, सव्वकामगुण, चउत्थं करेइ, सव्वकाम ० छट्ठे करेइ २, सव्वकामगु०, अट्ठमं करेइ, सव्वकाम० दसमं करेइ • सव्वकाम •, सत्तमलया || ७ || एक्क्क्कालो अट्ट २ मासा, पंचदिवसा, चउण्डं दोवासा अट्ठमासा, विसदिवसा, सेसं तहेव जाब सिद्धा || सत्तमं अज्झयणं सम्मतं ॥ ८ ॥ ७ ॥ x एवं रामकण्हावी, पणवर-भदुतर पडिमं उवसपजित्ताणं विहरति, तंजहा- दुबालसमं
०
किया, द्वादशम भक्त कर पारना किया, सोलेड भक्त कर पाना किया, चौथ भक्त कर पाना {किया, यह छठीलता ॥ ६ ॥ द्वादश भक्त कर पाना किया, वह भक्तकर पारना किया, सोलह भक्त
कर पारना किया, चौथ भक्तकर पारना किया, छाना किया, अटल भक्त कर पारना किया, दशम भक्तकर पाना किया,
वो लग
में एक परिवाड़ी में आठ २ महीने पांचर है सब अधिकार तैसे ही जानना यावत् सिद्ध
दिन लगते हैं, चारों में दो
दिन
{हुई || ८ || सातवा अध्ययन समाप्त ॥ ८ ॥ ७ | ऐसे ही रामकृष्णा रानी का अधिकार जानना. दीक्षा ले विचित्र प्रकार के तप करने लगी, विशेष-भद्रोचर प्रतिमा अंगीकार कर विचरने लगी, तद्यथा— द्वादश
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• प्रकाशक- राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी
१३०
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wimire
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శంకరపలక
मोर प्रतिमा तप... करेइ २ त्ता, सव्व काम गुणं पारेति, चउद्दसमं करेति
सय काम गुण. सोलोस्समं करेइ, सव्व काम• अट्ठा रसमं करेइ, सव्व काम०, वीसइमं करेइ सव्व काम पढमालया ॥ १ ॥ सोलरसमं करेइ, सव्व काम,
अट्ठारसमं करेइ, सब काम०, वीसइमं करेइ, सध्य
। काम• दुबालसमं करइ, सच काम०, चौदसमं करेइ, ॐ सर्वतोभद्र प्रतिमा तप तपा
सव्व काम० वीयालया ॥ २ ॥ वीसमं करेइ, सन्च दिन ३१२. पारणे ४९
। काम• दुवालसमं करेइ, सव्व०, चौदसमं करेइ सय सर्व ४४२ दिन में होत.
FRE9999993379999999RTE कागुमण, सोलसमं करेइ, सव्य काम. अट्रारसमं. अर्थभक्तकर सर्व सो पभेमक पारना किया, चौदह भक्तकर पारना किया, अठारा भक्त कर पारना किया,* 1 बीसमक्तकर पारना किया, यह प्रथम लता ॥१॥ सोलह भक्तकर पारना किया, अठारा भक्तकर
पारना किया, वीस भक्तकर पारना किया, द्वादश भक्तकर पारना किया, चौदह 19. भक्तकर, पारना किया, दूसरा लता ॥ २॥ बीसभक्तकर पास्नाकिया द्वादश भक्तकर पारनाकिथा, चौदहका
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ఆరవదకర
480 अष्टमांग-अंतगड दशांग सूत्र
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षष्टम वर्गका अष्टम अध्ययन 49822
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मुनि श्री अमोलक ऋषिजी +
- कामीयालया ॥ ३ ॥ चौदसमं करेइ, सव्व का०, सोलसमं करेइ, सव्व काम०,
अट्ठारसमं करेइ, सव्वका. वीसमं करेइ, सव्व काम • दुवालसमं करेइ०सव्व काम. चउत्थी लया ॥ ४ ॥ अट्ठारसमं करेइ, सव्व कामगु०, वीसमें करेइ, सव्व काम. दुवालसमं करेइ, सब काम चोदसमं करेइ, सव्व काम गु० सोलसमं करेइ, सव्व काम०, पंचमलया ॥ ५॥ एकालो छमासा वीस दिवसा ॥ चउण्हं कालो दो वरिसा दोमासा वीसय दिवसा ॥ सेस तहेव जाव जहा काली, जाव सिद्धा
॥ ६ ॥ अट्ठमं अज्झयणं ॥ ८॥ ८ ॥. एवं पियसेणाकण्हावि, णवर मुत्तावली. पारना किया, सोलह भक्त कर पारना किथा, अठारह भक्त कर पारना किया, तीसरीलता ॥३॥ चौदा भक्त कर पारमा किया, मोला भक्त कर पारना किया, अठारा भक्त कर पारना. किया, बीस भक्त करना क्रिया, द्वादश भक्त कर पारना किया, चौथीलता ॥ ४ ॥ अठरा भक्त कर पारना किया, वीस भक्त कर पारना किया, बारा भका कर मारना किया, चौदह भक्त कर पारना किया, सोलह भक्त कर पारना किया, पाचवीलता ॥५॥ इसमे की एक परिवावी को छ. महीने वीसदिन लगते रेवाडीकाकालदोवर्ष दोपहीने वीस दिन होता है। शेष तैलेही जानना.जैसा काली रानीका कहा यावत्। ।। आठवा अध्ययन ॥८॥८॥ ऐसे ही प्रियसेन कृष्णाराणीका भी, विशेष में-मुक्तावली तपकर्म किया है।
प्रकाशक राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायेजी ज्वालाप्रसादजी
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तपः
मुक्ताव
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206464466666666666666se
|-|-|-|-|-|-·|-|-|-|-|-|·|-|||-|-|-|-|||||||||||
**පළළණ
case....6666600000000000000000000000066666666666666666666666666666666000cece
मुक्तावली तप की एक परपाटी के तपदिन ३०० पारणादिन ६० जिस का पूरा एक वर्ष होता है. चार परपाटी ४ वर्ष में पूरी होती हैं.
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€-=-=-=-=-=-=-|-|-|-|-|-|-|-|-|-|-|-|-|-|-|-|-|
तवो कम्मं उवसंपज्जित्ताणं विहरड़, तंजहा - चउत्थं करेइ २ त्ता, सव्वकामगुणं परित्ता, छटुं करता, सव्व काम, चउत्थं करेता •, सव्वकाम• अट्टमं क० सव्वकाम गु० चउत्थं करेत्ता, सव्त्र काम० दसमं करता, सव्त्र काम • चउत्थं • सव्व० दुवालसमं करेइ, सव्वकाम०, चउत्थं करेइ सव्वकाम • चोदसमं करेइ, सव्व
०
अंगीकार करने विचरने लगी, नद्या-चौथ भक्कम सोरभोग कर पारसा किया, छ भक्तकर पारना किया, चौथ भक्त कर प्रारना किया, अठम भक्कर परना किया. चौ भक्तकरना किया, दशम भक्तकर पारना कैसा, चौथ भक्तकर पारना किया. द्वादश भक्तकर पारना किया, चौथ भक्त पारना किया, चौदह भक्तकर पारना किया, चौथ भक्तकर प.रना किया, मोठा कर पाना किया, चौथ भक्तकर
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मा अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी -
कामगु० चउत्थंकरेइ,सव्वका सोलसमं करेइ,सम्यकाम गुण चउत्थंकरेइ,सम्वकाम, अट्ठारसम,सम्वकाम०,वीसइमं करेइ,सब्वकाम, चउत्थं०, सबकाम, वारीसमंकरे, सव्वकाम चउत्थंकरे०,सब चउवीसमंकरे०,सव०,चउत्थंकरे,सव्व०,छवीसमंकरे, सच काम, चउत्थंकरे०, सव्वका०,तीसमंक०, चउत्थंकरे०, सव्व०, बत्तीसमंकरे, सव्वका;चउत्थकरे सव्वका० चौतीसमंकरे,सव्व. चउत्थंकरे सन्नचोतीसमंकरे, सव्व० चउत्थकरे सव्वं बतीसमंकरे., सव्वका• चउत्थंकरे, सब्व का. एवं तहेव
उसारती२जाव चउत्थ, करेतिरत्ता,सव्व कामगुण पारेति॥१॥एक्कस परिवाडिए कालो पारना किया,अठारा भक्त कर पारना किया,चौथ भक्त कर पारना किया,बीस भक्त कर पारना किया,चौथ भक्त कर पारना किया,शवीम भक्त कर पारना किया,चौथ भक्त कर पारना किया,चौवीस भक्त कर पारना किया.चौथ भक्त कर पारना किया,अट्ठावीस भक्त कर पारना किया,चौथ भक्त कर पारना किया,तीस भक्तं . कर पारना किया,चीय भक्त कर पारना किया,बत्तीस भक्त कर पारना किया,चौथ भक्त कर पारना किया, चौतीस भक्त कर पारना किया,जीथ भक्त कर पारना किया। इस प्रकार सोलह उपवास कर वाचरमें एकेक उपार कर चंडे, फिर बत्तीस भक्त(सोला)उपवास कर पारना किया. चौथ भक्तकर पारना.किया, तीस भाकर पारना किया यों पं उतरे यावत् चौय भक्तकर मर्व प्रकारके रसापभोग कर पारना कियः॥१॥
*प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवमहायजी ज्वालाप्रसात
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एकारसम.सा पनरस्त दिवसा; च उण्हं कालो तिण्हय वासा दसमासा संसं तहेव जाय सिद्धा ।। २ ॥ नवम अज्झयण सम्मत्तं, ॥ ८ ॥ ९॥ एवं महा सण कण्हावि णवरं-आयंत्रिलं वढमाण तयो कम्म उवसंगजित्ताणं विहरति, तंजहा-आयं विलयं करतिरत्त,चउत्थंकरोति,बेआयंविलयं करेतः,चउत्थ करेत्ता, तिणि आयं बिलियंकरत्ता, चउत्थं करेत्ता, चत्तारि आयंबिलय करेत्ता, चउत्थं करेत्ता, पंच आयंबिलिवं करेत्ता, चउत्थं करेत्ता, छ आयंबिलियं करेत्ता, चउत्थं करेत्ता, सत्त आयंबिलियं
करेत्ता, चउत्थं करेत्ता, एए उत्तरियाएवठाए आयंबिलायं बलृति, चउत्थं तिवारई, ऐसे ही चारों परवाडी जानना. प्रथम में सर्व प्रकार आहार, दूपरी के पारने में विगय त्याग, तीसरी के पारने में लेप मात्र का त्याग और चौथी के पारने में आयंबिल तप किया ॥ २ ॥ इस की एक परिवारी
में इग्यारे महीने पनरह दिन लगते हैं, और चारों परिवाही में तीन वर्ष और दश महीने लगते हैं, शेष *अधिकार पूर्वोक्त प्रकार जानना यावत् सिद्ध हुई ॥ इति अष्टम वर्ग का नवमं अध्ययत संपूर्ण ॥ ८ ॥९॥
ऐसे ही महासेनकृष्णा राणी का भी जानना. यावत् दीक्षा धारनकर आयंबिल वृद्धमान तप करती
विचरने लगी-तद्यथा-एक आयंबिल कर एक उपवास किया, दो आयंबिल कर एक उपवास किया, 1Vतीन भायंबिल कर एक उपवास किया, चार आयंषिल कर एक उपवास किया, पांच आयंबिल कर एक
अष्टमंग-अंतगड दशांग सत्र
अष्टम-वर्गका दशम अध्ययन 488081
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जाव आयंबिलंसयं करेति २ ता, चउत्थं करेति । त्ता ॥१॥ तएणं सा महाकण्हा अज्जा, आयंलिबं बढमाणे तवाकम्मं चउदरस वासहि, तिहिय मासहिय वीसई अहारतेहिं अहामुनं जाव समंकाएणं फासेति जाव आराहे ति ५ त्ता, जेणेव अजा चंदणा अजा तेणेव उवागया २, वंदए नमंसइ त्ता बहुहिं चउत्थेहि जाव अप्पाणं भावेमाणे विहरति ॥२॥ तत्तेणं सा महासेणकण्हा अजा. ते उरालिणं जाव उवसोभेमाणे विहरंति ॥ ३ ॥ तत्तेणं सा महासेण कण्हाए अण्णया कयाइं पुवरत्ता वरत्त काल समयसि चिंता, जयणं जहा खंदयस्स जाव चंदणा
48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी +
aanwaranana
* प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसंहायजी ज्वालाप्रसादजी *
उपवास किया, छ मायबिल कर एक उपवास किया, यों एकेक आयंबिल की वृद्धी करती मध्य २ में एकेक उपवास करती यावत् सो अयावल कर एक उपवास किया ॥१॥ तब महाकृष्ण आर्जिकाने आयंबिल वृदमान सप चौदह वर्ष तीन महीने और बीस अहोरात्रि में पर्ण किया, उसे यथोक्त सूत्र विधि प्रमाणे. पाराश, आराधकर जहां चन्दवाला मार्जिका थी तहां आई,आकर
वंदना नमस्कारकी नमस्कार कर बहुत छत अउमादितप कर अपनी आत्माको भावती हुइ विचरने लगी B॥२॥ तब महाकृष्ण आर्जिका उस औदाः प्रधान तप कर अतिहीरशोभती हुइ विचरने लगी ॥३॥तब वह
महाकृष्ण आर्जिका अन्यदा किसी वक्त आधा रात्रि व्यतीत हुवे जिस प्रकार खंधजीने विचार किया जैसा यावत चंदनबालाजी को पूछकर यावत् सलेपना कर काल की बांच्छा नहीं करती हुइ विचरने लगी ॥३॥
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+ अष्टमांग-अंतगड दशांग मूत्र
अजं आपुच्छइ २ त्ता जाव सलेहणा जाव - कालं अणवकंक्खमाणा विहरति २ ॥ तसेणं सा महासेण कण्हा अजा चंदणाते अजा अंतीते सामाइमाइयाइं एकारस्स अंगाई अहिजित्ता बहुपडिपुण्णाति सत्तरस्स वासाइं परिया पाउणित्ता, मासियाए संलेहणाए अत्ताणं झूसिया सट्ठिभत्ताई अणसणा छेदित्ता जस्स मुडं किरति जाव तमढें आराहेति, चरमेहि उस्ससणिसासेहि सिद्धाहिं बुद्धाहिं ॥ इतिइसमं अज्झणं सम्मत्तं ॥ ८ ॥ १० ॥ गाथा ॥ अट्ठय वासा आदिए उत्तारियाए जाव सत्तरस्स ॥
एसो खलु परियातो, सेणय भजाण णायव्यो ॥ १ ॥ एवं खलु जंबू ! समणेणं तब महा कृष्ण आर्जिका चंदनवालाजी के पास सामायिकादि इग्यारे अंग पढी थी उमे याद करती हुई। बहुत प्रतिपूर्ण सत्तर वर्ष संयम प.लकर, एक महीने की सलेपना कर आत्मा को झोंस साठ भक्त अनशन .. छेद कर जिम के लिये उठी थी यह कार्य किया यावत अन्तिम श्वासोश्वास बाद सिद्ध मत्र दुःव का अन्तकिया ॥ इति अष्टम बर्ग का दशम अध्ययन ॥ संपूर्ण ॥ ८ ॥१०॥ गाथार्थ-प्रथम काली आनिकाने पाठ वर्ष संयपाला,दूरी सकाली२वर्ष, तीसरीने १०वर्ष यों एकेक वर्ष बडाते दमवीने है। सत्तर वर्ष संयम पाला. इस प्रकार निश्चय श्रेणिक रामा की राणीयों का संयम का काल जामना ॥ १ ॥
अष्टम-बगेका दशम अध्ययन 498-800
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________________ 14 भगवया महावीरेणं आदि करेणं जाव संपत्तेणं अट्ठमस्स अंगरस अंतगड साणं अयम? पण्णत्ते // अंतगड दसाणं अंगस्स एगो सुय खंधी अट्ठवगा, अट्टमचव, दिवसेसु उद्देसंति // अटुमं अंगसमत्तं // इति अंतगड दसांग सूत्रं सम्मत्तं // 8 // यो निश्चय श्रमण भगवंत श्री महावीर स्वामीनी धर्म की आदि के करता यावत् मुक्ति प्राप्त की उनोंने अष्टमांग अंतकृत दशांग सूत्र का यह अर्थ कहा // // इस अंतकृत दशांग का एक श्रुतस्कन्ध, आठ वर्ग निश्चय आठ दिन में उद्देशना // इति अष्टमांग अंतकृत दशांग सूत्र समाप्त // + 42 अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी + .प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी . // इति अष्टमांग / / ... 10 अंतकृत दशांग सूत्र समाप्तम् / विराब्द 2044 वैशाक शुक्ल 5 बुद्धवार. " AAAAAAAAmmunana Terrieswayamanist RON va o gia For Personal & Private Use Only