________________
4. 8
+8+
8
पंडूराय पुत्ताणं पासं पंडूमहुरं सपत्थिते कोसंबकाणेणं नगोहवरपायस्सअहे पुढवि सिलापट्टए पियएवछाईयसरीरे जराकुमारे तिणणंकोडंडविप्पमुक्केणं उसूणा वामपादे विहसमाणे कालमासेकालंकिच्चा तच्चाए वालुप्पभाए पुढवीए उज्जलिए नरएत्ताएं उववजिहिसि ॥ १८ ॥ तएणं से कण्हवासुदेके अरहा अरिटुनेमी अंतिए एयमटुं सोचा निसंम्म ओहयं जाव झियाइं ॥ १९ ॥ कण्ह ! अरहा अरिट्ठनेमी कण्हेवासुदेवेणं एवं वयासी माणं तुम्ह देवाणुप्पिया ! उहया जाव झियाहि । एवं
खलु तुम्हं देवाणुप्पिया ! तच्चाओ पुढविओ उज्जलित्तए नरयाओ अणंतरं उवट्टित्ता अर्थ शरीर से जराकुमार के तीक्षण धनुष्य से बाण मुक्त किये वह बाण वांयें पांवको विन्धनेसे काल के अवसर
काल करके तीसरी धालुप्रभा पृथ्वी में उज्यल वेदना में नरक में नेरीयेपने उत्पन्न होवोगे ॥ १८॥ तब
कृष्ण वासुदेव अरिहंत अरिष्ट नेमीनाथ भगवान के मुख से उक्त अर्थ श्रवण कर अवधारकर चिन्ता * ग्रस्त बने यावत् आध्यान ध्याने लगे ॥ १९ ॥ कृष्ण ! अरिहंत अरिष्ट नेमीनाथ कृष्ण बासुदेव से यो
कहने लगे-हे देवानुप्रिय ! तुम चिन्ता मत करो, यावत् आर्तध्यान मत ध्यावो. यों निश्चय तुम हे देवानुप्रिय ! तीसरी नरक की उज्वल वेदना भोगवकर तीसरी नरक से निकल कर अन्तर रहित । |
अष्टमांग अंतगड दशांग मूत्र 4
पंचम-वर्गका प्रथम अध्ययन 4.88
498
For Personal & Private Use Only
Jain Education International
www.jainelibrary.org