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अनुवादक बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी +
अणगारे सोमिलस्स माहणस्स समणस्स आप्पट्रसमाणे तं उज्जलं जाच अहिवालेति ॥ ६९ ॥ ततेणं से गयमुकमाले अणगारे तं उज्जलं जाव अहियासेमाणस्स मुभेणं परिणामणं पसत्थेहिं अज्झवसाणेणं तदावरणिज्जा कम्माणं खएणं कम्मरविकिरण करणेणं अपुवकरणं अमुप्पविट्ठस्स अणते असुत्तरे जाव केवलवरनाणदंसणे समुप्पन्ने, ततो पच्छासिद्धे जाव पहिणे ॥ ७० ॥ तत्थणं अहासणितेहिं देवेहि सयं
आराहित तिकह दिव्वे सरभिगंधोदए वटे, दसवण्ण कसमे निवाडिए चेलक्खेवेकत्ते दिवेगाएगंधब्बतिनायकएयावि होत्था ॥७१॥ ततेणं से कण्हवासुदेवे कलं पाउन्भए ॥ ६८ ॥ तब गजसुकुमाल अनगार सोमिल ब्राह्मन के ऊपर मन से भी किंचित द्वेष रहित रहे हवे अतिउज्वल वेदना को सहन करने लगे ॥ ६१ ।। तब गजमुकमाल अनगार उस उज्वल वेदना को सहन करते हुवे शुभ परिणामकर प्रसस्त अध्यवसाय कर केवल ज्ञान के आभरण (पड्डल ) भूत कर्मों क्षयकिये, कर्मरूपरज दूरकी, अपूर्व करन में प्रवेश किया अनन्त प्रधान यावत् केवल ज्ञान केवल दर्शन उत्पन्न हुवा, तब फिर सिद्ध हुवे यावत् सर्व दुःख रहित हुवे ॥ ७० ॥ तब तहां नजीक में रहे हुवे देवोंने गजसुकुपाल अनगार को सम्यक प्रकार मार्ग का आराधन कर संमार से पार हुवे जान दिव्य गंधोदक की वृष्टी की पांच वर्ण के फूलों की वृष्टीकी,वस्त्रोंकी वृष्टि की,दिव्य गंधर्व गीत गानका नादं करने लगे।।७१॥तब वे कृष्
प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायनी मालाप्रसादजी *
अर्थ
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