________________
मुनि श्री अणेला अमिती
41 वियरसे अहपजिति अणुजाइहत्ताए, महत्ताइड्डी सक्कार समुद्दएणं तीसेनिक्खमणं
करेइ, दोचंपि तच्चपि घोसेणं घोसेह, ममं एयमाणत्तियं पञ्चप्पिणह ॥ २१ ॥ तत्तेणं कोडुविय जाव पच्चप्पिणंति ॥ २२ ॥ ततेणं पउमावइं अरहंतो अंतिए धम्मंसोच्चा निसम्महट्ठा जाव हियया, अरहं अरि? नेमीवंदति णमंसति एवं क्यासी-सदाभिणं
भंते!निग्गंथे पावयणे, से जहेय तुब्भेवदह, जं णवरं देवाणुप्पिया! कण्हवासुदेवस्स | उन का पीछे जो कुटुम्ब रहेगा उस की चिन्ता उस का निर्वाह कृष्ण करेगा और दीक्षा ग्रहण करनेवाले
का दीक्षा उत्सव महा ऋद्धि सत्कार समुदाय करके करेगा, इस प्रकार दो वक्त तीन वक्त उदघापना करो, उद्घोषना कर यह मेरी आज्ञा पीछी मेरे सुपरत करो ॥ २१ ॥ तब कुटुम्बिक पुरुषने उस ही प्रकार उद्घोषना की, करके कृष्ण वासुदेव को आज्ञा पीछी सुपरत की ॥ २२ ॥ तब पद्मावती देवी अरिहंत, अरिष्ट नेमीनाथ भगवान के पास धर्म श्रवण करके अवधाकर हर्षसन्तोषपाइ यावत् हृदय में 'विक्सायमान हुई, अहन्त अरिष्ट नेमीनाथ भगवंत को पंदना नमस्कार कर यों कहने लगी-अहो भगवान ! मेने श्रद्धे
निग्रन्थ के प्रवचन जिस प्रकार आपने कडे वे सब सत्य हैं, विशेष इतना ही है कि अहो देवानुप्रिया ! मैं काष्णवासुदेवको पूछकर देवानुप्रिय के पास मुण्डित होगी-दीक्षा धारन करूंगी।भगवंतने कहा हे देवानुपिया।
प्रकाशक राजावहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी
For Personal & Private Use Only
Jain Education International
www.jainelibrary.org