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अर्थ
48+4 अष्टमांग अंतगड दशांग सूत्र
अपुच्छामि तत्तेणं अहं देवाणुपियाणं अंतिए मुंडे जाव पव्त्रयामी ॥ अहा सुहं ॥ २३ ॥ तत्तेणं सा पउमावइदेवी धम्मियं जाणपररं दुरुहइ २ त्ता जेणेव वारवतिणयरिए जेणेव सएगिहे तेणेव उवागच्छ २ न्ता धम्मियातो जाणप्पञ्चरातो पचरुहइ, जेणेव कण्हवासुदेव तेणेव उवागच्छ २ चा करयलकडु कण्हवासुदेवे एवं वयासी - इच्छा. मिणं देवापिए ! तुब्भेहि अन्न वायासमाणा अरहतो अरिठमेमीस्स अंतिए मुंडे जाव पव्वय हूं || आहामुहं ॥ २४ ॥ तत्तेनं मे कहवासुदेवे कोडुंबिय पुरिसे साइ २ ता एवं बयासी खियामेव भो देवाणुथिए ! पउमावइए महत्थ ३
सुख होवे सो करो. ॥ २३ ॥ तव पद्मावती देवी धार्मिक रथ पर स्वार होकर जहां द्वारका नगरी थी जहां स्वयं का घर था तहां आई, तहां आकर धार्मिक रथ से नीचे उतरी, नीचे उतर कर, जहां कृष्ण वासुदेव थे. तहाँ आई, आकर हाथ जोडकर कृष्ण वासुदेव से ऐसा बोली- अहो देवानुप्रिय ! आपकी आज्ञा हो तो मैं अरिहंत अरिष्ट नेमीनाथ के पास मुण्डित हो दीक्षा धारन करूं ? तब कृष्ण वासुदेव ने कहा- जैसे सुख हो वैसा करो ॥ २४ ॥ तब कृष्ण वासुदेव कौटुम्बिक पुरुष को बोलाया, बोलाकर कहने लगे हे देवानुमिय ! शात्रतासे पद्मावती देवीका महा अर्थवाला बहुमूल्य बहुत खरचबाला दीक्षा अभिशेष उपस्थापों, यह मेरी आज्ञा पीछी मेरे सुपरत करो. कौटुम्बिक पुरुषने बैसा ही काम करके
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48-4 पंचम वर्गका प्रथम अध्ययन
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