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मुनि श्री अमोलक ऋषिजी * 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी
अट्ठाए वारवतिनगरीओ बहिया पुवनिगच्छंति समिहातोय दब्भय कुसुमेय पत्ते मोडच गिण्हइ २ त्ता तत्तोपडिनियात्त २ त्ता महाकालस्स सुसाणरस अदुरसामंतेणं वितिवयमाणं २ संज्झाकालसमयंमि पविरल मणुसंसि गयसुकुमालं अणगारं पासति २ त्ता तं वेरंसुमरत्ति २ अकुरुत्ते ४ एवं वयासा-एसणं भोगयसुकुमालेकुमार, अपस्थिय पत्थिया जाव परिवजिए, जेणं ममधूयं सोमासिरीए भारियाए अत्तया सोमादारिया अदिट्रविसो पत्ततं आलवत्तियं कालभित्तिगं विप्पजहित्ता मुण्डे जाव पवइए, तं सेयं खलु ममं गयसुकुमालस्स कुमारस्स वेणिज्जातेणं विचरनेलगे॥६६॥ इनवक्त सामिल ब्राह्मण लपके यज्ञ करने की मामग्रो लिये द्वारका नगरी के बाहिर दी हुवे पहिले ही निकला था, वह काष्ट दोष पत्र वगैरह ग्राणकिये, ग्रहणकर वहां से पीछा निकला, निकलकर यहाकाल स्ममाण के पास होकर जाता हुआ मंध्याकाल की वक्त थोडे-विरले मनुष्यों के ममना गमनकी वक्त गनसुकुमाल अनगार को देखे, देखकर पूर्व वैरका स्मान हुया, स्मरनकर आसुरक्त-कोपायमान
हुवा मन मे यों कहने लगा-भो! यह गनसुकमाल कुसर अप्रार्थिकका प्रार्थनेवाला यावत् लज्जा रा ल जिसने मरी पुत्री मामश्री की आत्मज मोया का विना दोष देखे यौवन अवस्था को प्राप्त हुइ को कि
मुख भोगवने की वक्त उस छोडकर मुण्डित हुवा यावत् दीक्षा ली. इस लिये श्रेय
अर्थ
प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवमहायजी ज्वालाप्रसादजी.
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