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अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी +
'अन्नया कयाइ व्हाया जाव विभूसिया वहुहिं खुजाहिं जात्र परिखित्ता सयातो गिहाओ पडिनिक्णमइ २ त्ता जेणेव रायमग्गा तेणेव उवागच्झइ २ त्ता रायमग्गंसि कणगमइ डूसएणं किलमाणी २ चिटुंति ॥४६ ॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं अरहा अरि?णेमी समोसड्डे परिस्सा निग्गया ॥ ४७ ॥ ततणं से कण्हवासुदेवं इमिसे कहाएलट्रसमाणे व्हाए जाव विभसिते, गयसुकमालेणं कमारेणं साई हत्थि खंधबरगते;
सकोरंट मलदांमणं छत्तेणं धारिजमाणेणं, सेयवर चामराइ उधूवमाणेहि, वारवतिए कर वस्त्र भूषण से भूपित हो बहुत खोजे यावत् परिवार से परिवारा हुई स्वयं के घर से निकली, निकलकर जहां राज्यपन्थ था तहां आई, आकर राज्यपन्थ में सुवर्ण की गेंद कर क्रीडा कररही थी ॥ ४६ || उस काल उस समयमें अरिहंत अरिष्ट नेमीनाथनी सहश्रम्बवागमें पधारे थे, उनको परिषदा वंदन करने गइ ॥ ४७ !! तब कृष्ण वासुदेव को इस प्रकार बधाई. मिलने से हृष्ट तुष्ट हुवे, स्नान किया यावत् विभूषित होकर गजसुकुमाल कुमार के साथ हाथी पर बैठे कोरंट लक्ष की माला का छत्र धराते हुये श्वेत दुलते हुवे द्वारका नगरी के मध्य २ में होकर आरिहंत अरिष्ट नेमीनाथ के पांव वंदन करने जाते हुवे सोमा लडकी को देखी, देखकर सोमा लडकी के रूप यौवन लावण्यता में यावत् आश्चर्य प्राप्त हवे ॥ तव कृष्ण वासुदेव कोटुम्बिक पुरुष को बोलाया, बोलाकर यों कहने लगे-जात्रो तुम हे देवानुपिया : है।
प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेव सहायजी
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