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43 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी *
एकारस्स अंगाइ अहिजइश्वहुई वासाई सामन्नारियागं पाउणिचा, गुणरयण संवद्यार
तवोकम्मं जाव त्रिल सिद्धे॥१०॥ पन्नस्सम अज्झयण सम्मत्तं ॥ ६ ॥१५॥ मुक्त कुपार साधु कितने भवका मुक्ति जायगा ? भगवनने का अहो आपों ! मेरा शिष्य अतिमुक्त कुमार साधु चरिम शरीरी है वह इस ही भव से मुक्ति जायगा. इसलिये अहो आर्यो! नुम अतिमुक्त कुमार साधु की हीलमा निम्दा मत करो परंतु अग्लानपने उन की भक्ति करो भक्तापानादि वैयावृय करो. स्थविर भगवंतने वैसा ही किया ] अतिमुक्त कमार श्रमनने इग्यारे अंगपद. पदकर गुणरत्न नामक संवत्र तप किया, [ जिसनप का पत्र और विधी ५०३ पृष्ट में देखो] बहुन वर्ष यमपाला यावत् विपुलगिरी पर संथारा करके मुक्ति गये ॥ इति षष्टम वर्ग का पंचदश अध्ययन संपूर्ण ॥ ६ ॥ १५ ॥
काशक राजाबहादुर लाला सुखदेवमहायजी ज्वालाप्रसादजी.
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