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आवेहि पण्णवहिं ॥ तं इच्छामते जाया! [ग दिवस्ममबि रायसिरि पासि॥ २४ ॥ तत्तेणं से अतिमुत्तकुमारे अम्मापिङ क्यण मणूपन्न माण तुसणिए संचिट्ठइ ॥ २५ ॥
अभिसेस जहा महाबलस्स, मिक्खमण जाव अणगारे जाए जाव सामाइय माइयाइ, मातापिता अतिमुक्त कुमारको बहुत अग्रहकर प्ररूपना-समझाकर संमार के सुख संयम के दुःख कहवताकर संसार के भीगोंमें लुन्गने समर्थ नहीं हुवे-रोक नहीं सके. तब कहने लगे कि-रे पुत्र! हम देखना चहाने हैं कि
एक दिन ता भी राजलक्ष्मीको भोक्त बन ॥ २४ ॥ तब वह अतिमुक्त कुमार मातपिताका मन रखने उस वचन को उत्यापन न करता मौन रहा ॥ २०॥ जिस प्रकार भगवती सूत्र में महावल कुमार का राज्याभिषेक का, दीक्षा उत्सव का अधिकार चला है उस ही प्रकार सब यहां जानता यामत् दीक्षा धारन कर अ..गार साधु हवे. [भगवती सूत्र के पांचवे शतक के चौथे उद्दशे में कहा है कि-उस काल उस समय में श्रमण भगवंत श्री महावीर स्वामी के भद्रिक निनीत प्रकृतिवाले अतिमुक्त अनगार-कुमार श्रमण एकदा यहा वृष्टी हुए बाद बाहिर भूमि को गये. वहां उन अतिमुक्त कुमार श्रमनने पानी के बहते हुवे 14
मनिकाकी पाल बंध कर का, उस पानी में पात्री रख कर कहने लगे. यह-मेरी नाव तीरती
करते उपपात्री रूप नावको नाविक की तरह पानी में तिराहाने लगे. यह ख्याल अन्य साथवाले स्थविर, 1ोंने देखा और आपण भगवंत श्री महावीर स्वामी के पास आकर कहने लगे कि-आपका शिष्य अति-14
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1348+ पम-धर्ममा पंचदश अध्यायन
Crimamarparde
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