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अपांग-अंतगड दशांग सूत्र
कण्डा ! तुम मम पाएवंदणं हवमागच्छमाण वारवतिए णयरिए एगपुरिस तं पासति जाव अणुपविति, जहणं कण्हा ! तुम्ह तस्स पुरिसस्स साहजेदिणे, एवामेव कण्हा! तेणं पुरिसणं गयसुकुमालस्स अशगारस्स अणेगभव सहस्स संचियं कम्मं उदीरमाणेणं बहकम्भ णिजरत्थं साहिजे दिण्णे ॥ ८४ ॥ तत्तेणं से कण्हवासुदेवे अरहं अरिठनेमि एवं वयासी-सेणं भते ! पुरिसे भएकहं जाणित्ते ? ॥ ८५ ॥ तत्तेणं अरहा अरिट्रनमी कण्हं वासुदेव एवं वयासी-जणं कण्हे! तुम वारवतिणयरीए अणुप्पवेसमाणे
पासित्ता ट्ठितेचच ट्ठितिभेदेणं कालं करिस्संति, तेणं तुम जाणिसामी एसणं पुरिसे॥८६॥ वासदेव से ऐसा बोले-यों निश्चय हे कृष्ण ! तुम मेरे पाँव चंदन कस्ने शीघ्र आते हुवे द्वारका नगरी में एक पुरुष को देखा, यावत अनुकम्पा कर तुमने उस पुरुष को साहायदिया ( ईंटों उठाकर घर मे घराकर उनके फेरे मिटाय) इस ही प्रकार हे कृष्ण! उम पुरुषने गजसुकुमाल अनगार को अनेक महों भव में मंचित किये हुवे कर्म की उदीरणा करके बहुत कमों की निर्जराकी भव भ्रमण मिटाया, यह साहायदिया श्री ॥ ८४ ।। तब कृष्ण वासुदेव अईन्त अरिष्ट नेमीनाथ से ऐसा बोले-अहो भगवान ! उस पुरुष को में किस कारपेछान॥८६॥तब अन्ति अरिष्ट नेमीनाथ कृष्ण वासुदेव से ऐसा बोले-हे कृष्ण ! जब तुम द्वारका नगरी में प्रवेश करेंगे तब तुमको देखकर पकाकर जमीनपर गिरपडेगा, स्थितिका भेद होने से कालपूर्ण ।
488+ तृतीय-वर्गका अष्टम अध्ययन
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