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4. अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक पिजी
॥ ५२ ॥ ततेणं से गयसुकुमाले अरह अरिट्टनेमी अंतियं धम्मं सोचा, जाव एवं वयासी-जनवरं देवाणुप्पिया ! अम्मापियरो आपुच्छंति, जहा मेहो, महिलेयावजं,जाव वढियकुले ॥५३॥ ततेणं कण्ह वासुदेवे इमोसे कहाए लट्ठ समाणा जेणेव गयसुकुमाले तेणेव उवागच्छइ, २ ता गयसुकुमाले आलिंमति उछंगेनिवेसइ २ त्ता एवं वयासी तुम्हसिणं ममसहादरे कणियस्सभाया तुम्हाणं देवाणुप्पिया ! इयाणी अरहतो भुण्डे जाव पव्वयाहि ।। ५४ ॥ तहेणं तं गयलुकमालं कण्हवासुदेव अम्मापियरो जहे णो संचाइ बहुहिं विसयाणु लोमाहिय विसयपडिकुलाहिय अघवणाहिय अन्ति अरिष्टनेमी भगत के पास धर्म श्रानकर हर्ष तुष्टित हुत्रे वैराग्य उत्पन्न हुवा यावत् यों कहने लगे । इतना विशेष अहो देवानुप्रिया में मेरे मन पिताको पूछकर आप के पाम दीक्षा लेबूंगा, मेधकुमास्की तरह मात पिता को पूछा प्रश्नातर हुवे (इन के स्त्रीयों नहीं जानना,) यावतू कल वृद्धि कर दीक्षालेना ऐसा कहा ॥५३॥तक कृष्ण वासदेव इस प्रकार मामाचार सुनकर जहां मसालथा तहां आये,आकर गजसुकुमाल को अलिग्न दिया उठाकर गोद में बैठा ये, बैठाकर यों कहने लगे-तू मेरे एक ही महोदर छोटा भाइ है. इमलिये अभी अन्ति अरिष्टनेमी भगवंत के पास दीक्षाधारन करना है?॥५४॥तब उस गजसुकुमाल कुमारको कष्णवामदेव व उसके माता पिना बहुत विषयानुकुल वचनमे व विषय प्रतिकूल संयर के दुश्वरूप वचन
.मकाश-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी
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