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अर्थ
4 अांग-अंतगुड दशांग सूत्र
अप्पाणं भाव माणाविहिरए ? अहा सुहृदेवाणुप्पिया ! मापडिबंधंकरेह ॥ ३ ॥ तत्ते छगारा अरहा अरिट्ठनेमीणं अन्भणुणाया समाणा जाव जीवाए छटुं छट्टेणं जाव विहरति ॥ ४ ॥ तत्तणं ते छअणगारा अण्णयाकयाइ छट्ठखमणपारणयांस पढमाए पोरिसी सज्झायं करेति, जहा गोतमसामी जाव इच्छामिणं भंते ! छटुक्खमणस्स पारणाए तुम्नेहिं अब्भणुणाय समाणा तिहिं संघाडएहिं बारवति नगरीए
आपकी आज्ञा हो तो जावजीव पर्यन्त छठ २ (बले २ ) निरन्तर तप कर्म कर संयम तप कर अपनी आत्मा को भावते विचरे ? भगवन्तने कडा--जैने सुख होवे वैसे करो प्रतिबन्ध ( विलम्ब) मत करे ॥३॥ तक छेड़ी अनगार साधु अस्ति अरिष्ट नेमीनाथजी की आज्ञा से जावजीव पर्यन्त वेले २ तप कर्म कर आत्मा को भारत हुने विचरने लगे ॥ ४ ॥ तत्र वे छेही अनगार अन्यदा किसी वक्त छठखमन (बेले ) का पारा आया, उसदिन के प्रथम पहर में स्वाध्याय की, दूसरे पहरमें ध्यान किया, तीसरे पहर में मुहपति (पात्रादि की प्रतिलेखना की, जिन प्रकार गौतम स्वामीजी श्रमण भगवंत श्री महावीर स्वामीजी की आज्ञा ( ग्रहणकर गौचरी जानेका कथनचला है उसी प्रकार वे छही अनगार मी अरिहंत अरिष्टनेमीनाथ भगवंत की आज्ञा ग्रहण करते वोले कि अहो भगवान ! दो साधुका एकसंघाडा, ऐसे के सांधुके तीन संघांडेकर अलगर
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तृतीय वर्गका अष्टम अध्ययन
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