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[ xvi ] है। नियुक्तिकार भद्रबाहुस्वामी का रचना काल विक्रम की चौथी पांचवीं शताब्दी माना जाता है। इन्हीं भद्रबाहुस्वामी ने बारह वर्षीय महाप्राण ध्यान की साधना की थी। जैन इतिहास में ऐसे अनेक साधकों की "सर्वसंवरयोगसाधना" नामक साधकों का उल्लेख भी प्राप्त होता है।
सूत्रकृतांग नियुक्ति में समाधि का निरूपण, स्थानांगवृत्ति में ध्यान सम्बन्धी विवेचन, बृहत्कल्पनियुक्ति, वृहत्कल्पभाष्य, व्यवहार नियुक्ति, व्यवहार भाष्य, आदि में श्रमण- श्रमणियों का योग प्रक्रियात्मक आचार प्रणाली का विस्तृत विवरण मिलता है। इन आगमों में वर्णित साध्वाचार का अध्ययन करने से स्पष्ट परिज्ञात होता है कि पांच महाव्रत, समिति, गुप्ति, तप, ध्यान, स्वाध्याय, कायोत्सर्ग आदि जो योग के मुख्य अंग हैं, उनको श्रमण-साधना का प्राण माना है।
द्वितीय विभाग में यौगिक उपलब्धि से वीर्य, लेश्या, बन्ध, ब्रह्मचर्य और वृत्तियों का निरोध क्रम रूप उपाय की अनुभूति का आनन्द प्रस्तुत किया गया है।
जैन दर्शन के आद्य साहित्य योगी कुंदकुंदाचार्य (विक्रम की प्रथम शताब्दी) रचित अष्ट पाहुड़, नियमसार, समयसार, प्रवचनसार इत्यादि ग्रन्थों में पारिमार्जित स्वरूप में योग प्रक्रियाओं का तात्त्विक बोध प्राप्त होता है। वीर्य, लेश्या, बन्ध आदि का मार्गदर्शन कराने वाला तात्त्विक, साहित्यिक और सैद्धान्तिक योग प्रक्रियाओं का श्रेय तत्वार्थ सूत्र का निर्माता उमास्वाति [वि. सं. २-३ शताब्दी] को मिला । तत्त्वार्थ सूत्र पर टीका, वृत्ति, भाष्य, वार्तिक आदि का निर्माण हुआ है जिसमें योग का विषय पर्याप्त मात्रा में परिलक्षित होता है।
__ इस द्वितीय विभाग में अष्टांग योग का जो प्रतिपादन हुआ है वह जैन पूर्ववर्ती और उत्तरवर्ती सभी साहित्यों से वेष्टित है। क्योंकि पांच महाव्रत-यम, ३२ (बत्तीस) योग संग्रह-नियम, कायाक्लेश-आसन, भाव प्राणायाम-प्राणायाम, प्रतिसंलीनताप्रत्याहार, धारणा, ध्यान कायोत्सर्ग-समाधि स्थान-स्थान पर प्राप्त होते हैं ।
तृतीय विभाग में योग के स्वरूप का विश्लेषण किया गया है। साधना की फल-श्रुति सम्यकज्ञान है, बीज फलित होने के लिए उपयुक्त भूमि आवश्यक है, वैसे ही सद्प्रवृत्ति को फलित होने के लिए सम्यकज्ञान की आवश्यकता अनिवार्य है। संवर योग ही उर्वराभूमि है, कर्म-आवरणों से मुक्त होने के लिए शुद्धोपयोग के बीज वपन करने होंगे।
भक्ति में शक्ति है समर्पण के भाव पैदा करने की और कर्मों के बन्धनों को तोड़ने की फलतः कर्मयोग से साधक योगी हो सकता है और बन्धनों से मुक्त होकर अयोगी भी हो सकता है।