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[ xv ] द्वितीय उद्देश्य है-वर्तमान युग में प्रचलित भ्रम का निवारण कि जैनों के पास योग नहीं है। किन्तु जैन साहित्य के विशाल वाड्मय में दृष्टिपात करते ही वर्तमानकालीन इस प्रचलित मान्यता की अछूती भूमि का स्पर्श होता है कि आगम साहित्य से लेकर अठारहवीं शताब्दि तक के समग्र जैन साहित्य में विविध योग साधना का स्वरूप उपलब्ध है। हाँ, इतना अवश्य है कि जैनों की योगविधि अत्यधिक गूढ, रहस्यात्मक और मार्मिक रही है। साथ-साथ गुरु गर्भित होने से अनेक प्रक्रियाओं का अभाव हो गया है । तथापि जड़-चैतन्य का विवेक, ज्ञान, ध्यान, संयम
और समाधि से प्राप्त चित्त की एकाग्रता, एकाग्रता से वृत्तिओं का निरोध और मन, वचन, काया के परिवर्तन का प्रायोगिक विश्लेषण प्राप्त होता है।
साहित्य सम्बन्धी योग विषयक में तात्त्विक और अतात्त्विक उपाय, ज्ञान-दर्शन और चारित्र का सम्यक बोध और अधिकार प्रक्रियात्मक रूप से पाया जाता है। अनेक साहित्यों में ग्रन्थिभेद की गूढात्मकता स्पष्ट नज़र आती है जिससे साधक यौगिक रूपान्तरण करने में समर्थ हो सकता है। इतिहास साक्षी है कि योग अनादि है तथापि, मानवीय धरातल पर अवतरित योगियों का जन्म जहाँ से प्राप्त होता है वहाँ से योग का प्रारम्भ मान लो तो जैन दर्शन में योग ऋषभदेव भगवान् से माना गया है। भगवान् ऋषभदेव जैन तीर्थंकरों में प्रथम तीर्थंकर हैं। कालगणना के अनुसार वे असंख्य वर्ष पूर्व थे। अतः जैन दर्शन के अनुसार वे आद्ययोगी हैं और उन्हीं से परम्परागत योग मार्ग का प्रवर्तन हुआ है।
जैनों के अंतिम तीर्थंकर परमात्मा महावीर के तत्त्वावधान में योग प्रक्रिया को दर्शाने का माध्यम आचाराग सूत्र आदि आगम में प्राप्त होता है। जैसे-स्वयं परमात्मा का ध्यान तत्सम्बन्धी विविध आसन, आहार, निद्रा आदि प्रयोगों के दिग्दर्शन के लिए आचारांग प्रमाण है।
आचारांग सूत्र की भांति सूत्रकृतांग, स्थानांग, भगवती सूत्र आदि में भी प्रकीर्णक रूप में भावना, आसन, ध्यान, व्रत, नियम, संवर-समाधि आदि का वर्णन उपलब्ध होता है। उत्तराध्यन सूत्र के २८वें अध्ययन में मुक्तिमार्ग का संक्षिप्त किन्तु सुव्यवस्थित शोधन प्रक्रिया का प्रतिपादन किया गया है। इसी सूत्र के २९, ३० एवं ३२वें अध्याय में इन्द्रिय-विजय, मनोविजय, मन-स्थिरता और मन-सम्बन्धी विविधताओं के परिणाम आदि का विशिष्ट स्वरूप नियोजित है।
आगम साहित्य के अतिरिक्त नियुक्ति साहित्य में भी साधना की प्रक्रियाओं के विपुल स्वरूप का दर्शन होता है । आवश्यक नियुक्ति के कायोत्सर्ग अध्ययन में भी यौगिक प्रक्रियाओं का सुनियोजित रूप और आत्म-दर्शन का विशिष्ट सुप्रयोग वर्णित