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श्रीमद्राजानककुन्तकविरचितं वक्रोक्तिजीवितम् हिन्दीव्याख्योपेतम्
प्रथमोन्मेष जगत्रितयवैचित्र्यचित्रकर्मविधायिनम् ।
शिवं शक्तिपरिस्पन्दमात्रोपकरणं नुमः ॥१॥ आचार्य कुन्तक अपने ग्रन्थ 'वक्रोक्तिजीवित' की कारिकाओं की वृत्ति लिखते समय, ग्रन्थकारों की परिपाटी का अनुसरण करते हुए, ग्रन्थ के आरम्भ में इस ग्रन्थ की निर्विघ्न परिसमाप्ति के लिए आदि में अपने अभिमत देव परमशिव की वन्दना करते हैं
· शक्ति के परिस्पन्दमात्र उपकरण ( सामग्री) वाले, तीनों लाकों के वैचित्र्य रूप चित्रकर्म का विधान करने वाले शिव (परमशिव) को हम नमस्कार करते हैं ॥ १॥
टिप्पणी :-उक्त श्लोक द्वारा ग्रन्थकार ने परम शिव की वन्दना की है। आचार्य कुन्तक कश्मीरी थे । कश्मीर शैवागम (प्रत्यभिज्ञादर्शन) के अनुयायी थे। उक्त पद्य में उन्होंने शिव, शक्ति, परिस्पन्द एवं जगत् शब्द का उपादान किया है, जिनका सम्बन्ध शैवागम से है, तथा इस ग्रन्थ में 'स्पन्द' अथवा 'परिस्पन्द' का तो अनेकशः प्रयोग किया है। अतः इस पध का अर्थ समझने के पूर्व यह जानना अत्यावश्यक है कि शवागम में इन शब्दों का क्या अर्थ है। ... . प्रत्यभिज्ञा दर्शन के अनुसार एकमात्र परमतत्त्व 'परम शिव' (शिव ) है जो अद्वैत, निर्विकार एवं सच्चिदानन्द स्वरूप है। इस अनुभूयमान जगद्वैचित्र्य को वह अपनी शक्तियों द्वारा उद्भावित करता है। उसकी शक्तियां यद्यपि असंख्य हैं फिर भी मुख्य रूप से वह पांच शक्तियों (चित् , आनन्द, इच्छा, ज्ञान और क्रिया ) पर निर्भर रहता है । शक्ति और शक्तिमान में बभेद होता