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तृतीयोन्मेपः
३२५ करते हैं तथा अपने सृष्टि विधान के कार्यों से निवृत्त होकर अपने आप अपने में ही लीन हो जाते हैं ।। ४६ ।।। ____ इत्यभिधीयने, तदपि निःसमन्वयप्रायमेव । यस्मादत्र वास्तवेऽप्यभेदे. काल्पनिकमुपचारसत्तानिबन्धनं विभागमाश्रित्य तद्वयवहारः प्रवर्तते । किञ्च, विश्वमयत्वात् परमेश्वरस्य परमेश्वरमयत्वाद्वा विश्वस्य पारमार्थिकेऽस्यभेदे माहात्म्यप्रतिपादनाथ प्रातिस्विकपरिस्पन्दविचित्रां ... जगत्प्रपञ्चरचनां प्रति सकलप्रमातृतास्वसंवेद्यमानो भेदावबोधः स्फुटावकाशतां न कदाचिदप्यतिक्रामति । तस्मादत्र परमेश्वरस्यैव रूपस्य कस्यचित्तदाप्यमानत्वाद्वेदनादेः क्रियायाः कर्मत्वम् , कस्यचित् साधकतमत्वात् करणत्वमिति। उदाहरणे पुनरपोद्धारबुद्धिरिति कल्पनयापि न कथञ्चिद्विभागो विभाव्यते । तस्मात्
स्वरूपादतिरिक्तस्य परस्याप्रतिभासनात् ।। ४७ ॥ इति दूषणमत्रापि सम्बन्धनीयम् ।....."पक्षे च यदेवालङ्कार्य तदेवालङ्करणमिति प्रेयसो रसवतश्च स्वात्मनि क्रियाविरोधात
_ आत्मैव नात्मनः स्कन्धं कचिदप्यधिरोहति ॥ ४८ ।। इति स्थितमेव ।
ऐसा कहा जाता है, तो भी यह समन्वय को नहीं उपस्थित कर पाता। क्योंकि यहाँ पर वास्तविक अभेद के विद्यमान रहने पर भी काल्पनिक औपचारिक सत्ता वाले विभाग का आश्रय ग्रहण कर (उभयरूपता का ) व्यवहार किया गया है। और भी, परमेश्वर के विश्वमय होने के कारण अथवा विश्व के परमेश्वरमय होने के कारण वास्तविक अभेद के विद्यमान रहने पर भी ( उन परमेश्वर के ) माहात्म्य का प्रतिपादन करने के लिए अपने अपने परिस्पन्द के कारण विचित्र जगत्प्रपन्च की रचना के प्रति समस्त प्रमाताओं के द्वारा स्वसंवेद्यमान भेदप्रतीति स्पष्ट रूप से कभी भी निरवकाश नहीं होती। अतः यहाँ पर परमेश्वर के ही किसी रूप का उस समय भी प्रमाणाभाव के कारण वेदन (वेत्सि ) आदि क्रिया का कर्मत्व, तथा किसी (स्वरूप ) का साधकतम होने के कारण करणत्व (वर्णित किया गया) है ( यद्यपि वस्तुतः अभेद ही है।)। ___ यदि यह कल्पना कर ली जाय कि उदाहरण में अपोद्वार ( अर्थात् अवास्तविक भी विभाग ) दुद्धि से काम लिया जाय तो भी (प्रेयस् अलङ्कार के उदाहरण में अलङ्कार और अलङ्कार्य का ) किसी भी प्रकार विभाग समझ में नहीं माता। अतः