Book Title: Vakrokti Jivitam
Author(s): Radhyshyam Mishr
Publisher: Chaukhamba Vidyabhavan

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Page 466
________________ तृतीयोम्मेवः ( संसृष्टि का उदाहरण जैसे )___ नई केसर की तरह लाल सूर्य के दर्शन मात्र का आश्रयण करने वाले, भुवन भर में फैले लम्बे छोर वाले अम्बर वालीध्यान के भीतर आकर सन्ध्या के द्वारा आलिङ्गित और चन्द्रमा की किरणों के समूह और फलियों के बीच व्याकुलचित अन्धकाररूपी भ्रमर वाले प्रदोष का आगमन इस समय महारानी के द्वारा सम्पादित दोहद वाले कुरवक में सुशोभित हो रहा है ॥ १७० ॥ (यथा प) म्लानिं वान्तविषानलेन नयनव्यापारलब्धात्मना । नीता राजभुजङ्ग पल्लवमृदुर्ननं लतेयं त्वया । अस्मिन्नीश्वरशेखरेन्दुकिरणस्मेरस्थलीलाञ्छिते कैलासोपवने यथा सुगहने नैति प्ररोहं पुनः ॥ १७१ ॥ ऐ राजभुजङ्ग, तुमने किसलयकोमल इस लता को नेत्रों की कारगुजारी से स्वरूप को पाने वाली वमन की गई हुई विषाग्नि के द्वारा इस तरह मुरझा दिया है कि शिवजी के मस्तक पर स्थित चन्द्रमा की किरणों के कारण मुस्कराती हुई स्थलियों से उपलक्षित होने वाले कैलाशपर्वत के इस घने उपवन में अब यह फिर से अङ्कुरित नहीं हो सकती ॥ १७१ ॥ ___ इस प्रकार संसृष्टि के तीन उदाहरण देकर, जिसमें से दो को उधृत किया गया है। कुन्तक ने संकीर्ण के भी तीन उदाहरण प्रस्तुत किए हैं, जो इस प्रकार हैं( सङ्कीर्ण यथा) रूढा जालैर्जटानामुरगपतिफणैस्तत्र पातालकुक्षौ प्रोद्यद्बालाङ्कुरप्रीर्दिशि दिशि दशनै रेभिराशागजानाम् । अस्मिन्नाकाशदेशे विकसितकुसुमा राशिभिस्तारकाणां नाथ त्वत्कीर्तिवल्ली फलति फलमिदं बिम्बमिन्दोः सुराद्रेः ॥१७२ ( संकीर्ण का उदाहरण जैसे ) पाताल के उदर में शेषनाग के फणरूपी जटाजालों के अन्दर उगी हुई और दिग्गजों के इन दांतों के अन्दर हर दिशा में निकले हुए छोटे-छोटे अंकुरों की शोभा वाली तथा इस आकाशदेश में तारों की राशि में खिले हुए फूलों वाली तुम्हारी कीर्तिलता, महाराज ! सुमेरु के ऊपर यह चन्द्रबिम्ब रूपी फल फल रही है।। १७२॥

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