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वक्रोक्तिजीवितम विषय होने के कारण अलंकार्यता होती है, इसलिए उसे ( अलंकार मानने में) प्रेयः अलङ्कार में गिनाये गए दोष उपस्थित हो जाते हैं ।
इस प्रकार "आशीः" अलंकार की अलङ्कार्यता सिद्ध कर उसके अलङ्कारत्व का खण्डन कर कुन्तक विशेषोक्ति अलङ्कार की भी स्वतन्त्र अलङ्कारता का खण्डन भामह के विशेषोक्ति के उदाहरण को उद्धृत करते हुए इस प्रकार करते हैं कि
विशेषोक्तेरलङ्कारान्तरभावेनालङ्कार्यतया च भूषणत्वानुपपत्तिः । ( यथा)
स एकस्त्रीणि जयति जगन्ति कुसुमायुधः।।
हरतापि तनुं यस्य शम्भुना न हृतं बलम् ।। १७७ ।। विशेषोक्ति के अन्य अलंकार रूप होने से तथा अलङ्कार्य होने के कारण मलङ्कारत्व की सिद्धि नहीं होती। ( जैसे-)
फूलों के अस्त्रवाला वह (कामदेव) अकेले ही तीनों लोकों पर विजय प्राप्त करता है, जिसके शरीर का हरण करते हुए भी शङ्कर ने शक्ति का हरण नहीं किया ।। १७७ ॥
अत्र सकललोकप्रसिद्धजयित्वव्यतिरेकिकन्दर्पस्वभावमात्रमेव वाक्यार्थः ।
यहाँ समस्त लोकों में विख्यात विजय से अतिरिक्त कामदेव का केवल स्वभाव ही वाक्यार्थ हैं ( अतः स्वभाव होने के कारण वह अलङ्कार्य है, अलङ्कार नहीं हो सकता।)
इस तरह विशेषोक्ति का खण्डन कर कुन्तक दण्डी द्वारा अभिमत हेतु, सूक्ष्म तथा लेश अलङ्कार का खण्डन करते हैं। इसके समर्थन में वे भामह को उद्धृत करते हैं। तथा 'सूक्ष्म' के उदाहरणस्वरूप 'सङ्केतकालमनसं विटं ज्ञात्वा' मादि श्लोक को तथा 'लेश' के उदाहरण रूप में दण्डी के 'राजकन्यानुरक्तं माम्' आदि श्लोक एवं 'हेतु' के उदाहरण रूप में दण्डी के ही 'अयमान्दोलितप्रोट' मादि श्लोक को उद्धृत कर उनका खण्डन करते हैं।
कुन्तक के अनुसार इन सभी अलंङ्कारों में केवल स्वभाव ही रमणीय होता है, अतः ये सभी अलङ्कार्य होते हैं, अलङ्कार नहीं। प्राप्त विवेचन इस प्रकार है
हेतुश्च सूक्ष्मो लेशोऽथ नालङ्कारतया मतः । __ समुदायाभिधानस्य वक्रोक्त्यनभिधानतः ॥ १७८ ।। समुदाय के कथन ( अर्थात् साधारण कथन ) के वक्रोक्ति का प्रतिपादन न करने के कारण हेतु, सूक्ष्म तथा लश को ( हमने ) अलङ्कार रूप में नहीं स्वीकार किया है ॥ १७८ ॥