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चतुर्थोन्मेषः
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निर्भीक ( धनुर्धर राजा दशरथ ) ने कन्दराओं से सामने की ओर उछल कर आते हुए, हवा से भग्न खिले हुए बन्धूक ( पुष्प के वृक्षों ) की आगे की डालों के समान ( स्थित ), अभ्यास के आधिक्य से सिद्धहस्त होने के कारण पल में बाणों से भर दिए गये मुखविवर वाले उन व्याघ्रों को निषङ्ग बना दिया ||
भर
अपि तुरगसमीपादुत्पतन्तं
मयूरं न स रुचिरकलापं बाणलक्ष्यीचकार । सपदि गतमनस्कश्चित्रमाल्यानुकीर्णे
रति विगलितबन्धे केशपाशे प्रियायाः || २४ ॥
उस ( राजा दशरथ ) ने ( अपने ) घोड़े के अत्यन्त पास से उड़े हुए ( सुप्रहार योग्य ) भी मनोहर पूंछ वाले मयूर पर ( उसकी पूंछ से साम्य होने के कारण ) विविध वर्णों वाले पुष्पों की माला से गूँथे गए एवं सम्भोग के समय खुल गई गाँठ वाले प्रिया के केशपाश में प्रवृत्त चित्त वाले होकर बाण का निशाना नहीं बनाया || २४ ॥
लक्ष्यीकृतस्य हरिणस्य हरिप्रभावः
प्रेक्ष्य स्थितां सहचरीं व्यवधाय देहम् । आकर्णकृष्टमपि कामितया स धन्वी
बाणं कृपामृदुमनाः प्रतिसञ्जहार || २५ ॥
( विष्णु या ) इन्द्र के समान पराक्रम वाले धनुर्धर उस ( राजा दशरथ ) ने ( अपने बाण के ) लक्ष्य बनाये गये मृग की देह को ( प्रेमवश ) छिपाने के लिए ( उसके सामने ) खड़ी हो गई ( उसकी ) सहचरी को देख कर ( स्वयं ) कामुक होने के कारण करुणा से आर्द्र हृदय होकर श्रवणपर्यन्त खींच लिए गए बाण को भी ( धनुष पर से ) उतार लिया ।। २५ ।।
स
ललितकुसुमप्रवालशय्यां ज्वलितमहौषधिदीपिकासनाथाम्
नरपतिरतिवाहयाम्बभूव
1
क्वचिदसमेत परिच्छदस्त्रियामाम्
॥ २६ ॥
उस राजा ( दशरथ ) ने परिच्छद ( अर्थात् परिजनों अथवा शयनादि की सामग्री से रहित होकर कहीं ( या कभी-कभी ) मनोहर फूलों एवं पत्तों की सेजवाली तथा अत्यन्त प्रकाशमान महोषधियों रूप दीपिकाओं से युक्त रात्रि को बिताया । ( भाव यह कि वे शिकार में इतने व्यस्त हो गए कि सभी साथी एवं सामग्री पीछे ही छूट गई अत: इन्हें फूलों एवं पत्तों पर ही सोकर कभी-कभी रात बितानी पड़ी । ) ।। २६ ॥