Book Title: Vakrokti Jivitam
Author(s): Radhyshyam Mishr
Publisher: Chaukhamba Vidyabhavan

View full book text
Previous | Next

Page 511
________________ ४५. वक्रोक्तिजीवितम् मुद्राराक्षस में । वहां पर श्रेष्ठ प्रज्ञा के प्रभाव से वितत अद्भुत नीति के व्यापार परिस्फुरित होते ही हैं । तापसवत्सराज का उद्देश्य पहले ही व्याख्यात हो चुका है । इसी प्रकार अन्य उदाहरणों को स्वयं समझ लेना चाहिए । वक्रतोल्लेखवैकल्य.............'लोक्यते । . प्रबन्धेषु कवीन्द्राणां कीर्तिकन्देषु किं पुनः ।। ४५ ।। इत्यन्तरश्लोकः । इसके अनन्तर कुन्तक का 'वक्रतोल्लेख' आदि अपूर्ण अन्तर श्लोक प्राप्त होता है। अतः उसका सुसंश्लिष्ट अर्थ नहीं दिया जा सकता। इस अन्तरश्लोक को पूर्ण करने का स्वतन्त्र प्रयास आचार्य विश्वेश्वर के संस्करण में दृष्टिगत होता है परन्तु इस प्रकार के स्वेच्छासमावेश की कोशिश सर्वथा उचित नहीं मानी जाती है। रूपान्तरकार अथवा व्याख्याकार का उद्देश्य उपलब्ध मूल के अंश को ही समझाना हुआ करता है उसमें परिवर्तन या परिवर्धन करना सर्वथा अनुचित है। डा० डे ने इस ग्रन्थ के असमाप्त होने का ही संकेत दिया है। परन्तु ग्रन्थ के विवेच्य विषय से यह पता लगता है कि थोड़ा ही अंश अवशिष्ट है। उसके विषय में अभी कोई सुनिश्चित मत देना समीचीन नहीं। द्वितीयाचन्द्रवन्धेयं कुन्तकस्य कृतिर्मुदे । स्यात्कविसहृदयानां व्याख्यातृणां सदैव वै॥ शास्त्रकृत्प्रतिभास्वर्णकषणे निकषायितम । क्व मन्दा मम बुद्धिश्च क्व च वक्रोक्तिजीवितम् ॥ राष्ट्रभाषां समाश्रित्य गुरूणामनुकम्पया। व्यवायि व्याख्या मिश्रेण राधेश्यामेन मेधया ॥ असमाप्तोऽयं ग्रन्थः L

Loading...

Page Navigation
1 ... 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522