Book Title: Vakrokti Jivitam
Author(s): Radhyshyam Mishr
Publisher: Chaukhamba Vidyabhavan

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Page 486
________________ तुम्बेव भ्रम रुचिरे ललाटफलके दूरं समारोपयेत् ४२५ व्यावृत्यैव समागते मयि सखीमालोक्य लज्जानता तिष्ठेत्कि कृतकोपचारकरणैरायासयेन्मां प्रिया ॥ ) भ्रूभङ्गं रुचिरे ललाटफलके तारं समारोपयन् बापाम्बुप्लुतपीतपत्ररचनां कुर्यात्कपोलस्थलीम् । व्यावृत्तैर्विनिबन्ध चाटुमहिमामालोक्य लज्जानतां तिष्ठेत्किं कृत कोपभारकरुणैराश्वासयैनां प्रियाम् ॥ २० ॥ ॥। ।। काश ! सुन्दर भालपटल पर काफी बड़ी भ्रभङ्गिमा को प्रस्तुत कर देती ओर गण्डस्थल को जल की धारा से चाट ली गई हुई ( धो दी गई हुई ) पत्ररचना वाली बना देती । ( साथ ही । मेरे पहुँच जाने पर अपनी सहेलो को देख कर मुड़ कर लाज के मारे झुक कर खड़ी हो जाती तथा क्या ऐसा हो सकता है। कि मेरी प्रियतमा बनावटी उपचार को कर कर के मुझे परेशान करती ॥ २० ॥ इसके बाद पब्चम अङ्क के 'किं प्राणा न' आदि श्लोक को कुन्तक उद्धृत कर व्याख्या करते हैं कि इस इलोक में वर्णित राजा की उन्मादावस्था करुण रस को अत्यधिक उद्दीप्त करती है । यह श्लोक तापसवत्सराज ५।२५ के रूप में उद्धृत है वहाँ कुछ पाठभेद इस प्रकार है - A. प्रतितरु B. विलोभितेन C. पुनरप्यूढं न पापेन किं । किं प्राणा न मया तवानुगमनं कर्तुं समुत्साहिता बद्धा किन्न जटा न वा प्ररुदितं भ्रान्तं वने निर्जने । त्वत्सम्प्राप्तिविलोभनेन पुनरप्यूनेन पापेन किं किं कृत्वा कुपिता यदद्य न वचस्त्वं मे ददासि प्रिये ।। २१ ।। तुम्हारा अनुगमन करने के हे प्रियतमे ! क्या मैंने तुम्हें पाने की लालच से लिये ( अपने ) प्राणों को समुत्साहित नहीं किया, क्या मैंने जटायें नहीं बांधी अथवा रोया नहीं या कि सुनसान जङ्गल में भटका नहीं फिर भी थोड़े से अपराध के कारण क्या क्या सोचकर तुम नाराज हो जो आज मुझे ( मेरी बातों का ) जवाब भी नहीं दे रही हो ॥ २१ ॥ इति । 'रोदिति' इत्यन्तेन मनागुन्मादमुद्राप्युन्मीलिता तमेव [ करुणरसमेव ] प्रोद्दीपयति । इस प्रकार 'रोता है' यहाँ तक थोड़ी उन्मीलित की गई उन्माद की अवस्था भी उसी ( करुण रस को ही ) भलीभांति उद्दीप्त करती है ।

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