Book Title: Vakrokti Jivitam
Author(s): Radhyshyam Mishr
Publisher: Chaukhamba Vidyabhavan

View full book text
Previous | Next

Page 500
________________ चतुर्थोन्मेषः ४३९ तीर्थयात्रा की प्रवृत्ति को प्रस्तुत करता है। पन्चम (प्रकरण) भी-वन के मध्य में..... कुछ लोगों द्वारा ) समुद्रदत्त के कुशल वृतान्त का निवेदन (प्रस्तुत करता है)। षष्ठ प्रकरण भी सभी के विचित्र बोध की प्राप्ति कराने वाले उपाय को सम्पादित करता है। इस प्रकार इन ....."रसनिष्यन्द में लगे हुए ( सभी प्रकरणों की) परम्परा किसी अनिर्वचनीय रमणीयता की सम्पत्ति को प्रस्तुत करती है। यथा वा कुमारसम्भ-पार्वत्याः प्रथमतारुण्यावतारवर्णनम् । हरशुश्रूषा दुस्तरतारकपराभवपारावारोत्तरणकारणमित्यरविन्दसूतेरुपदेशः । कुसुमाकरसुहृदः कन्दर्पस्य पुरन्दराद्देशाद् गौर्याः सौन्दर्यबलाद्विप्रहरतो हरिविलोचनविचित्रभानुना भस्मीकरणदुःखावेशविवशाया रत्याः विलपनम् । विवक्षितं विकलमनसो मेनकात्मजायास्तपश्चरणम् | "निरर्गलप्राग्भारपरिमृष्टचेतसा विचित्रशिखण्डिभिः शिखरिनाथेन वारणम् , पाणिपीडनम् इति प्रकरणानि पौर्वापर्यपर्यवसितसुन्दरसंविधानबन्धुराणि रामणीयकधारामधिरोहन्ति । अथवा जैसे कुमारसम्भव में -( पहले ) पार्वती के पहले पहल यौवन के प्रारम्भ का वर्णन । ( फिर ) तारकासुर के पराजय रूप दुस्तर सागर के पार उतरने की बीज शङ्कर की सेवा है, ऐसा कमलोद्भव ब्रह्मा का उपदेश (का वर्णन)। (तदनन्तर ) इन्द्र के निवेदन एवं पार्वती के सौन्दर्य बल से (शङ्कर पर) प्रहार करते हुए वसन्त के सखा कामदेव के शङ्कर के ( तृतीय ) नेत्र की अद्भुत आग से जलाये जाने के दुःखावेश से विवश रति का विलाप ( वर्णन )...."। उसके अनन्तर ) विह्वल हृदय मेनकात्मजा पार्वती की विवक्षित तपश्चर्या (का वर्णन)। (फिर) विचित्र मयूरों द्वारा (अध्युषित) विशृंखल ढलाने से परिमुषित मनोवृत्ति वाले पर्वतराज ( हिमालय ) के द्वारा वरण कराया गया हुआ विवाह (वर्णन)। ये प्रकरण पौर्वापर्य के कारण सुन्दर संविधान में परिणत होकर मनोहारी हैं और सुन्दरता की चरमसीमा को पहुंचे हुए हैं। इससे स्पष्ट है कि कुन्तक को जिस कुमारसम्भव का पता था वह भगवती पार्वती के विवाह के प्रकरण तक की ही कथा को प्रस्तुत करता था। मल्लिनाथ की टीका भी अष्टम सर्ग तक ही मिलती है । इससे सिद्ध होता है कि कालिदास की रचना निश्चिस रूप से अष्टमसर्गान्ता थी। बाद के सर्ग प्रक्षिप्त हैं। और वे कालिदासकृत नहीं माने जा सकते। एवमन्येष्वपि महाकविप्रबन्धेषु प्रकरणवक्रतावैचिश्वमेव विवेचनीयम् ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522