Book Title: Vakrokti Jivitam
Author(s): Radhyshyam Mishr
Publisher: Chaukhamba Vidyabhavan

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Page 484
________________ चतुर्थोन्मषः ४२३ बाद पाण्डुलिपि के - अत्यन्त भ्रष्ट होने के कारण वे उसे पढ़ नहीं सके। श्रीयदुगिरयतिराजसम्पत्कुमाररामानुजमुनि द्वारा प्रत्यवेक्षित अनङ्गहर्षापरनाम श्रीमात्र राजप्रणीत 'तापसवत्सराजनाटकम्' के द्वितीय अङ्क का यह तेईसवाँ श्लोक है । इसका उत्तरार्द्ध इस प्रकार है तष सुकृतिनः सम्भाव्यते प्रसादमहोत्सवा ननुगतदशाः सर्वैः ( सर्वे ) सर्वश्शठो न वयं यथा ।। अत: पूरे श्लोक का अर्थ इस प्रकार होगा ) (ऐ देवि वासवदत्ते ! ) कुरवकवृक्ष तुम्हारे गाढालिङ्गन को, वकुलवृक्ष तुम्हारे मुख की मदिरा से लालना को और रक्ताशोक तुम्हारे चरणप्रहार को प्राप्त कर ये सभी पुण्यात्मा तुम्हारे प्रसादरूप महोत्सव को प्राप्त होकर अनुकूल स्थिति वाले हैं । ( ठीक ही है ) सभी हमारी तरह शठ नहीं हैं। ( अर्थात् मैंने शठता की है अतः तुम्हारा प्रसाद मुझे नहीं प्राप्त हुआ ये सभी शठ न होने के कारण तुम्हारे प्रसाद भाजन बन गए हैं ) ॥ १५ ॥ धारावेश्म विलोक्य दीनवदनो प्रान्त्वा च लीलागृहा निश्वस्यायतमाशु केशरलतावीथीषु कृत्वा दृशः। किं मे पार्श्वमुपैषि पुत्रककृतैः किं चाटुभिः क्रूरया मात्रा त्वं परिवर्जितः सह मया यान्त्यातिदीर्घा भुवम् ।। १६ ॥ ( राजा वासवदत्ता के पालतू हरिण को सम्बोधित कर कहते हैं कि ) हे पुत्र ! धारागृह को देखकर ( वासवदत्ता को न पाने से ) मलीन मुख वाला होकर, क्रीडागृहों में घूमकर ( वहाँ भी न पाने से , बड़ी बड़ी उसांसें भर कर, शीघ्र ही बकुलवृक्ष की लताओं की गलियों में नजर दौड़ा कर मेरे पास क्यों आ रहा है ? (झूठे ) प्रियवचनों से क्या लाभ ? ( क्योंकि ) कठोर हृदय ( तुम्हारी ) माता ने बहुत दूर देश ( स्वर्ग ) को जाते हुए मेरे ही साथ तुम्हें भी त्याग दिया है । (अब उससे मिलना असम्भव है ) ॥ १६ ॥ कर्णान्तस्थितपद्मरागकलिकां भूयः समाकर्षता __ चब्च्वा दाडिमबीजमित्यभिहता पादेन गण्डस्थली । येनासौ तव तस्य नर्मसुहृदः खेदान्मुहुः क्रन्दतो निःशाळून शुकस्य किं प्रतिवचो देवि त्वया दीयते ॥ १७ ॥ हे देवि ( वासवसत्ते)! कानों के बगल में लगी हुई पद्मराग मणि की कली को अनार का बोज समझ कर चोंच से खींचते हुए जिसने तुम्हारी इस कपोलस्थली पर प्रहार किया था, उस अपने नर्म सुहृद् ( अपने वियोग से उत्पन्न ) शोक के कारण बार बार चिहाते हए तोते की बातों का निःशङ्क होकर तुम जवाब भी नहीं देती ॥ १७॥

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