Book Title: Vakrokti Jivitam
Author(s): Radhyshyam Mishr
Publisher: Chaukhamba Vidyabhavan

View full book text
Previous | Next

Page 473
________________ वक्रोक्तिजीवितम् अपने हृदय से उद्भावित अद्वितीय अलंकरण वाली होती है । ( ऐसी प्रवृत्ति) किसके विद्यमान रहने पर ( स्फुटित होती है ) मूल से लेकर असम्भावित समुत्थान वाले ( कवि ) मनोरथ के अर्थात् जड़ से लेकर ही असम्भावित अंकुरण वाले (कवि-) मनोरथ के विद्यमान रहने पर ( ऐसी प्रवृत्ति स्फुटित होती है ) तो इसका आशय यह है कि..............। इसके बाद कुन्तक प्रकरणवक्रता का एक उदाहरण 'अभिजातजानकी' नामक रूपक के 'सेतुबन्ध' नामक तृतीय अंक से इस प्रकार उद्धृत करते हैं वहाँ सेनापति नील का ( यह ) कथन कितत्र नीलस्य सेनापतेर्वचनम् शैलाः सन्ति सहस्रशः प्रतिदिशं वल्मीककल्पा इमे दोर्ददण्डाश्च कठोरविक्रमरसक्रीडासमुत्कण्ठकाः । कर्णास्यादितकुम्भसम्भवकथाः किन्नाम कल्लोलिनः • प्रायो गोष्पदपूरणेऽपि कपयः कौतूहलं नास्तिः कः ॥ १ ॥ ____कानों द्वारा (कुम्भज ) अगस्त्य की कथा का आस्वादन कर चुकने वाले ऐ बन्दरो ! प्रत्येक दिशा में वल्मीक के समान हजारों पहाड़ विद्यमान हैं तथा तुम्हारे ये भुजदण्ड कठोर पराक्रम के आनन्द को प्रदान करने वाली क्रीड़ा के प्रति उत्पन्न उत्कण्ठा वाले हैं ( फिर भी ) सागर की क्या चर्चा, गोखुर को भी भर देने में तुम्हारा कौतूहल नहीं दिखाई पड़ रहा है । ( अब तक तुम्हें इसे पाट देना चाहिए था ) ॥ १॥ वानराणामुत्तरवाक्यं नेपथ्ये कलकलानन्तरम् आन्दोल्यन्ते कति न गिरयः कन्दुकानन्दमुद्रां व्यातन्वानां करपरिसरे कौतुकोत्कर्षहर्षे । लोपामुद्रापरिवृढकथाभिज्ञताप्यस्ति किन्तु ब्रीडावेशः पवनतनयोच्छिष्टसंस्पर्शनेन ॥२॥ तथा नेपथ्य में कलकल (ध्वनि) के पश्चात् वानरों का यह उत्तर वाक्य कि ( अरे सेनापति जी !) कुतूहल के बढ़ जाने के कारण उल्लास के उत्पन्न होने पर पदार्थो में औरों की क्या गणना ( जबकि ) हथेली के फैलाव पर बड़े-बड़े पहाड़ भी गेंद की आनन्दमुद्रा को उल्लासित करके रह जाते हैं । साथ ही अगस्त्य की कथा की भी जानकारी है किन्तु हनुमान के द्वारा कुठार दिए गए हए पदार्थ के स्पर्श के कारण बड़ी लज्जा आ जाती है ॥ २ ॥

Loading...

Page Navigation
1 ... 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522