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तृतीयोन्मेषः
इस लिये दीपक के अन्दर रूपक का तदनन्तर अप्रस्तुतप्रशंसा का विवेचन कर पर्यायोक्त का विवेचन किया गया है। अब पर्यायोक्त के अनन्तर 'ग्रन्थपात' इस सङ्केत के बाद जो श्लोक उद्धृत किए गये हैं वे रूपकालङ्कार के उदाहरण न होकर व्याजस्तुति के उदाहरण हैं। इससे स्पष्ट है कि लुप्त प्रन्थभाग में व्याजस्तुति का लक्षण भी सम्मिलित है। उसके उदाहरण इस प्रकार हैं
भूभारोद्वहनाय शेषशिरसां सार्थेन सन्नह्यते
विश्वस्य स्थितये स्वयं स भगवान् जागर्ति देवो हरिः । अद्याप्यत्र च नाभिमानमसमं राजंस्त्वया तन्वता
विश्रान्तिः क्षणमेकमेव न तयोर्जातेति कोऽयं क्रमः ।।६।। पृथ्वी के भार को वहन करने के लिए शेषनाग के फणों के समूह ही सन्नद्ध होते हैं और विश्व के पालन के लिए उन भगवान् विष्णु को ही जागरूक रहना पड़ता है। ऐ महाराज अप्रतिम अभिमान को धारण करते हुए तुम्हारे द्वारा एक क्षण भर के लिए आज भी उन दोनों को विश्राम म दिया जा सका यह बातों का कैसा सिलसिला रहा। ( यथा च)
इन्दोलनमत्रिपुरजयिनः ।। इति ।। ६२ ।। ( यथा वा)
हे हेलाजित। इति ॥ १३॥ ( यथा च)
नामाप्यन्यतरो| इति ॥ ६४ ।। और जैसे ( उदाहरण सं० ३।४९ पर पूर्वोदाहृत )
इन्दोर्लक्ष्म त्रिपुरजयिनः ॥ यह श्लोक । ( या जैसे )-ऊदाहरण सं० १।९० पर पहले उदाहृत )
हे हेलाजित बोधिसत्त्व । इत्यादि श्लोक । तथा जैसे—( उदाहरण सं० ११९१ पर पहले उद्धृत)
नामाप्यन्यतरोनिमीलितमभूत् ॥ इत्यादि श्लोक । इसके अनन्तर उत्प्रेक्षा अलङ्कार का विवेचन प्रारम्भ किया गया है। उत्प्रेक्षा का लक्षण इस प्रकार है
सम्भावनानुमानेन सादृश्येनोभयेन वा। निर्वयोतिशयोद्रेकप्रतिपादनवाञ्छया ॥२४॥