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वक्रोक्तिजीवितम् [ इसके बाद जैसा कि डा० डे संकेत करते हैं कुन्तक ने उक्त कथन के समर्थन में दो अन्तरश्लोकों को भी उधृत किया है जो कि पाण्डुलिपि की भ्रष्टता के कारण पढ़े नहीं जा सके ।]
इस प्रकार रसवदलंकार के प्रकरण का उपसंहार कर कुन्तक दीपक अलंकार एवं उसके प्रभेदों का विवेचन प्रारम्भ करते हैं---
एवं नीरसानां पदार्थानां सरसतां समुल्लापयितुं रसवदलङ्कारं सामासादिवान् । इदानीं स्वरूपमात्रेणैवावस्थितानां वस्तूना कमप्यतिशयमुद्दीपयितुं दीपकालङ्कारमुपक्रमते । तच पूर्वाचार्यैरादिदीपकं मध्यदीपकमन्तदीपकमिति दीप्यमानपदापेक्षया वाक्यस्यादौ मध्ये चान्ते च व्यवस्थितमिति क्रियापदमेव दीपकाख्यमलङ्करणमाख्यातम् ।
इस प्रकार नीरस पदार्थों की सरसता को प्रकट करने के लिए रसवदलंकार का विवेचन किया गया। अब केवल स्वरूप से ही स्थित पदार्थों के किसी अपूर्व उत्कर्ष को व्यक्त करने के लिए ( ग्रन्थकार कुन्तक ) दीपकालङ्कार ( का विवेचन ) प्रारम्भ करते हैं। तथा उस दीपकलङ्कार की प्राचीन आचार्यों ने आदि दीपक, मध्य दीपक तथा अन्त दीपक इस प्रकार, प्रकाश्यमान पद की अपेक्षा से वाक्य के आदि, मध्य अथवा अन्त में ( क्रिया पद ही ) व्यवस्थित होता है ऐसा सोचकर क्रियापद को ही दीपक नामक अलङ्कार बताया है । ( इसके बाद कुन्तक भामह के दीपक के तीनों भेदों के उदाहरण रूप तीनों श्लोकों को उद्धृत करते हैं जो इस प्रकार है :---
मदो जनयति प्रीति, सानङ्गं मानभङ्गुरम् । स प्रियासङ्गमोत्कण्ठां, सासह्यां मनसः शुचम् ॥ ६८ ।। मालिनीरंशुकभृतः स्त्रियोऽलङ्कुरुते मधुः । हारीतशुकवाचश्च भूधराणामुपत्यकाः ।। ६६ ।। चीरीमतीररण्यानीः सरितः शुष्यदम्भसः ।
प्रवासिनाञ्च चेतांसि शुचिरन्तं निनीषति ॥ ७० ॥ मद प्रीति को उत्पन्न करता है, वह मान को भंग करने वाले मदन को वह प्रियतमा के मिलन की उत्कण्ठा को, और वह हृदय के अगह्य शोक को ( उत्पन्न करती है ) ॥ ६८ ॥
वसन्त हार पहनने वाली एवं वस्त्रों को धारण करने वाली स्त्रियों को विभूषित करता है तथा हारीत ( मैना ) एवं तोतों की वाणी को और पर्वतों
को ( विभूषित करता है ) ॥ ६९ ॥