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तृतीयोन्मेषः
३२७ कोई विषय ही नहीं दिखाई पड़ता ( क्योंकि सर्वत्र प्रियतर आख्यान ही वर्णनीय रूप होता है जहां कहीं भी उसका प्रतिपादन किया जाता है।) अतः अन्यत्र दूसरे ढङ्ग से भी प्रेयस् का अलंकारत्व युक्तिसङ्गत नहीं होता है । ( वह अलंकार्य रूप में ही आता है ) रसवदलंकार की भी वही स्थिति है ( वह भी अलंकार नहीं हो सकता क्योंकि प्रेयस् के ) समान ही वह भी लाया जाने वाला व समर्थित किया जाने वाला है।
एवमलकरणतां प्रेयसः प्रत्यादिश्य वर्णनीयशरीरत्वात्तदेकरूपाणामन्येषां प्रत्यादिशति
इस प्रकार प्रेयोऽलंकार की अलंकारता का खण्डन कर कुन्तक उसी के समान स्वरूप वाले अन्य अलंकारों का वर्णन योग्य शरीर होने के कारण खण्डन करते हैं। प्रेयस् के अनन्तर कुन्तक ऊर्जस्वि तथा उदात्त अलंकारों का विवेचन प्रारम्भ करते हैं।
ऊर्जम्ब्युदात्ताभिधयोः पौर्वापर्यप्रणीतयोः ।
अलङ्करणयोस्तद्वद्भूषणत्वं न विद्यते ॥ १२ ॥ - न विद्यते न सम्भवति । कथम्-तद्वत् । तदित्यनन्तरोक्तरसपदादिपरामर्शः । ..... रसवदादिवदेव तयोविभूषणत्वं नास्ति |
उन्हीं ( रसवदादि अलङ्कारों) की तरह (भामह द्वारा) पौर्वापर्य (क्रमशः का० ३।६ तथा ३३१० ) द्वारा प्रतिपादित ऊर्जस्वि तथा उदात्त संज्ञा वाले अलङ्कारों का भी अलङ्कारत्व सम्भव नहीं होता है। __नहीं विद्यमान है अर्थात् 'सम्भव नहीं होता। कैसे-उनकी तरह । यहाँ उन ( तद् ) से अभी प्रतिपादित किए गये रसवदादि अलङ्कारों का परामर्श होता है । ....."आशय यह है कि रसवदादि की तरह उनका भी अलङ्कारत्व सम्भव नहीं है।
[ इसके बाद कुन्तक भामह तथा उद्भट द्वारा दिए गये ऊर्जस्वि अलङ्कार के लक्षणों तथा उदाहरणों का खण्डन करते हैं। खण्डन करते समय के उदट के ऊर्जस्वि अलङ्कार के लक्षण एवं उदाहरण को उधृत करते हैं जो इस प्रकार हैं ]
अनौचित्यप्रवृत्तानां कामक्रोधादिकारणात् । भावानां च रसानाञ्च बन्ध ऊर्जस्वि कथ्यते ॥५०॥ तथा कामोऽस्य ववृधे यथा हिमगिरेः सुताम् । सङ्ग्रहीतुं प्रववृते हठेनापास्य सत्पथम् ॥५१॥