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प्रथमोन्मेषः
१४१ हुई कोई अन्य ही ( सम्भोग की इच्छारूप ) वस्तु परिस्फुटित होती हुई दिखाई पड़ती है" इसके द्वारा किसी रमणीय वैचित्र्य की शोभा सम्पादित की गयी है।
इदानीं विचित्रमेवापसंहरति-विचित्रो यत्रेत्यादि । एवंविधो विचित्रो मार्गो यत्र यस्मिन् वक्रोक्तिवैचित्र्यम् अलङ्कारविचित्रभावो जीवितायते जीवितवदाचरति । वैचित्र्यादेव विचित्रे 'विचित्र'-शब्दः प्रवर्तते । तस्मात्तदेव तस्य जीवितम् । किं तद्वैचित्र्यं नानेत्याहपरिस्फुरति यस्यान्तः सा काप्यतिशयाभिधा । . यस्यान्तः स्वरूपानुप्रवेशेन सा काप्यलौकिकातिशयोक्तिः परिस्फुरति भ्राजते । यथा
अब ( ३४ वीं कारिका से ४१ वीं कारिका तक विचित्रमार्ग के अनेक प्रकारों को लक्षण एवम् उदाहरण द्वारा व्याख्या कर आचार्य कुन्तक उसी) विचित्र-मार्ग का उपसंहार करते हैं
विचित्रो यत्र "इत्यादि ( ४२ वीं कारिका के द्वारा ) । इस ढंग का विचित्रमार्ग होता है जहाँ अर्थात् जिस मार्ग में वक्रोक्ति का वैचित्र्य अर्थात अलंकार की विचित्रता (चमत्कार ) जीवितायते अर्थात् जीवन के समान आचरण करती है ( तात्पर्य यह कि वक्रोक्ति का वैचित्र्य ही विचित्रमार्ग का सर्वस्व है) वैचित्र्य के कारण ही विचित्र (मार्ग ) के लिए 'विचित्र' शब्द प्रवृत्त होता है । इसीलिए वह वक्रोक्ति-वैचित्र्य ही उस (विचित्र-मार्ग ) का जीवितभूत है । वह नैचित्र्य है कैसा-इसे बताते हैंजिसके भीतर कोई अतिशयोक्ति परिस्फुटित होती है । जिसके भीतर अर्थात् उसके स्वरूप में प्रविष्ट होने के कारण कोई लोकोत्तर अतिशयपूर्ण कथन परिस्फुटित अर्थात् शोभायमान होता है । जैसे
यत्सेनारजसामुदश्चति चये द्वाभ्यां दवीयोऽन्तरान् पाणिभ्यां युगपद्विलोचनपुटानष्टाक्षमो रक्षितुम् | एकैकं दलमुन्नमय्य गमयन् वासाम्बुजं कोशतां
धाता संवरणाकुलश्चिरमभूत् स्वाध्यायबद्धाननः ॥ १०२ ।। जिसकी सेना के ( प्रयाण से उत्पन्न ) धूलिसमुदाय के ऊपर उठने पर (आकाश की ओर उड़ने पर, स्वाध्याय में लगे हुए ब्रह्मा जी उस धूलि से वचाने के लिए) दूर दूर व्यवधान वाले अपने आठों अक्षिपुटों की दोनों ही हाथों से रक्षा करने में असमर्थ होकर एक-एक दल को उठाकर अपने निवास के कमल को बन्द करते हुए, बन्द करने में व्याकुल होकर चिरकाल तक स्वाध्याय न कर सके ॥ १०२॥