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वक्रोक्तिजीवितम् सं० ३।१२ पर उद्धृत ) अस्याः सर्गविधी। इस श्लोक में ॥१८॥ अथवा जैसे ( उदाहरण सं० १।१२ पर उद्धृत ) किं तारुण्यतरोः "इत्यादि इस श्लोक में ॥ १९॥
तदेवं पृथग्भावेनापि भवतोऽस्य कविकौशलायत्तवृत्तित्वलक्षणवाक्यवक्रतान्तर्भाव एव युक्तियुक्ततामवगाहते । तदिदमुक्तम
वाक्यस्य वक्रभावोऽन्यो भिद्यते यः सहस्रधा।
यत्रालंकारवर्गोऽसौ मोऽप्यन्तर्भविष्यति ।। २० ॥ तो इस प्रकार यद्यपि यह अलंकार अलग से भी सम्भव है फिर भी कविकोशल के वशीभूत रहनेवाली वाक्यवक्रता में ही इसका अन्तर्भाव युक्तिसंगत है । इसीलिए ( कारिका १२२० में ) इस प्रकार कहा गया है कि
वाक्य की वक्रता (पूर्वोक्त पदादि की वक्रताओं से ) भिन्न है जिसके हजारों भेद हो जाते हैं तथा जिसमें यह सारा का सारा अलंकार समूह अन्तर्भूत हो जायगा ॥ २० ॥ स्वभावोदाहरणं यथा
तेषां गोपवधूविलाससुहृदां राधारहःसाक्षिणां क्षेमं भद्र कलिन्दशैलतनयातीरे लतावेश्मनाम् । विच्छिन्ने स्मरतल्पकल्पनमृदुच्छेदोपयोगेऽधुना
ते जाने जरठीभवन्ति विगलन्नीलत्विषः पल्लवाः ।। २१ ॥ ( इस प्रकार अलंकार का उदाहरण तो 'अस्याः सर्गविधी-' एवं , 'कि तारुण्यतरो:-' इत्यादि दे चुके हैं इसलिये अब स्वभाव एवं रस का उदाहरण देना शेष है । उनमें ) स्वभाव का उदाहरण जैसे
हे सौम्य ! गोपियों के विलास के दोस्त, राधा की एकान्त ( क्रीडाओं) के गवाह, कलिन्द पर्वत की सुता ( जमुना ) के किनारे (विद्यमान ) वे लतागृह सकुशल तो हैं ? ( अथवा मैं तो) समझता हूँ कि अब काम की सेज बनाने के लिये मुलायम ( पत्तों के ) तोड़ने की आवश्यकता समाप्त हो जाने के कारण विगलित होती हुई श्यामल कान्तिवाले वे किसलय कठोर होते जा रहे होंगे ) ॥ २१॥ ____अत्र यद्यपि सहृदयसंवेद्यं वस्तुसंभवि स्वभावमात्रमेव वर्णितम्, तथाप्यनुत्तानतया व्यवस्थितस्यास्य विरलविदग्धहृदयैकगोचरं किमपि नूतनोल्लेखमनोहारि पदार्थान्तरलीनवृत्ति सूक्ष्मसुभगं ताहक स्वरूपमुन्मीलितं येन वाक्यवक्रतात्मनः कविकौशलस्य काचिदेव काष्ठाधि
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