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तृतीयोन्मेषः
३२१ अथवा इस उदाहरण में आश्वस्त न होकर स्वीकृत लक्षण की सम्यक सङ्गति को चाहते हुए रसवदलङ्कार के दूसरे उदाहरण की व्याख्या की है
( जैसे कोई चाटुकार राजा की प्रशंसा करते हुए कहता है ) 'हे निर्दय ! हंसी ( प्रणय-परिहास ) से क्या ? अब फिर मेरे पास से नहीं जा सकोगे। चिरकाल के बाद तुम्हारा दर्शन हुआ है। यह कौन सी तुम्हारी परदेश में रहने की आदत है ? किसने तुम्हें दूर भेज दिया है' इस प्रकार कहती हुई अपने प्रियतम के गले में लिपटी हुई, शत्रु की स्त्रियां, स्वप्न के समाप्त हो जाने पर जग कर खाली भुजमण्डल वाली होकर बड़े जोरों से विलाप करती हैं ॥ ४४ ॥
अत्र भवद्विनिहतवल्लभो वैरिविलासिनीसमूहः शोकावेशादशरणः करुणरसकाष्ठाधिरूढिविहितमेवंविधवैशसमनुभवतीति तात्पर्यप्राधान्ये वाक्यार्थस्तदङ्गतया विनिबध्यमानः प्रवासविप्रलम्भशृङ्गारः (प्रतिभासन ? परत्वमत्र परमार्थः ?) परस्परान्वितपदार्थसमय॑माणवृत्तिगुणभावनावभासनादलङ्करणमित्युच्यते । तस्य च निविषयत्वाभावाद् रसवदालम्बनविभावादिस्वकारणसामग्रीविरहविहिता लक्षणानुपपत्तिर्न सम्भवति । रसद्वयसमावेशदुष्टत्वमपि दूरमपास्तमेव । द्वयोरपि वास्तव. स्वरूपस्य विद्यमानत्वात्तदनुभवप्रतीतो सत्यां नात्मविरोधः, स्पर्धित्वाभावात् । तेन तदपि तद्विदाह्रादविधानसामर्थ्य सुन्दरम् , करुणरसस्व निश्चायकप्रमाणाभावात् ।
यहाँ पर 'आपके द्वारा निहत पतियों वाली शत्रुओं की अंगनाओं का समूह शोक के आवेश के कारण बेसहारा होकर करुण रस की पराकाष्ठा पर पहंचा देने वाले विधान वाले इस प्रकार के महान् कष्ट का अनुभव करता है' इस तात्पर्य का प्राधान्य होने पर उसके अंग रूप में उपनिबद्ध किया जाता हुआ प्रवास विप्रलम्भ शृङ्गार (?) परस्पर एक दूसरे के साथ अन्वित पदार्थों के समूह के द्वारा समर्पित किए जाते हुए व्यापार वाला होकर गुणभाव के कारण अलङ्कार कहा गया है। उसके निविषय न होने के नाते रसवदलंकार के अनुरूप गुणीभूत होने वाले उस रस के आलम्बन विभावादि निजी कारणों की समयता के अभाव से होने वाली लक्षण की असिद्धता भी सम्भव नहीं। साथ ही दो-दो रसों के समावेश का दोष भी बहुत दूर फेंक दिया जाता है। दोनों के ही वास्तविक स्वरूप के विद्यमान होने के नाते उनके अनुभव का बोध होने पर परस्पर प्रतिमल्लता के अभाव में स्वविरोध भी नहीं आता। इसलिए करुणरस का निश्चय कराने वाले प्रमाणों के अभाव के कारण वह
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