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वक्रोक्तिजीवितम् भी रसिकों के आनन्द विधान करने में समर्थ होने के नाते रमणीय प्रतीत होता है।
प्रवासविप्रलम्भस्य स्वकारणभूतवाक्योपारूढालम्बनविभावादि. समय॑माणत्वं स्वप्नान्तरसमये च तथाविधत्वं युक्त्या सम्भवतस्तस्योभयमुपपन्नमिति प्रथमतरमेव कथममौ समुद्भवतीति चे [त्त ] दपि न समञ्जसप्रायम् । यस्माच्चाटुविषयमहापुरुषप्रतापाक्रान्तिचकितचेतसा. मितस्ततः स्ववैरिणां तत्प्रेयसीनां च प्रवासनैरपि (प्रकाश ?) पृथग. वस्थानं न युक्तिप्रयुक्ततामतिवर्तते".."तमेव तदपि चतुरस्रम् । करुणरसस्य सत्यपि निश्चये, तथाविधपरिपोषदशाधाराधिरूढेरेकाग्रता. स्तिमितमानसस्य तथाभ्यस्तरसवामनाधिवासितचेतसः सुचिरात्समा सादितस्वप्नसमागमः पूर्तानुभूतवृत्तान्तसमुचितसमारब्धकान्तसंलापः कथमपि सम्प्रबुद्धः प्रबोधसमनन्तरसमुल्लसितपूर्वपरानुसन्धानविहितप्रस्तुतवस्तुविसंवादविदारितान्तःकरणो भवद्वैरिविलासिनीसार्थो रोदितीति करुणस्यैव परिपोषपदवीमधिरोहः । ___ अपने कारणस्वरूप वाक्य में साक्षात् कहे गए हुए आलम्बन विभावादि के द्वारा प्रवासविप्रलम्भ की समर्म्यमाणता तथा स्वप्न के बीच के समय बैसा होना युक्तितः सङ्गत है इसलिए उसके दोनों ही ( प्रवासविप्रलम्भ और करुण ) समीचीन हैं. अतएव वह (विप्रलम्भ पक्ष ) उससे पहले कैसे उपभूत होता है ? यदि इस तरह का तर्क प्रस्तुत किया जाय तो वह भी समीचीन नहीं माना जा सकता क्योंकि खुशामद के आश्रयभूत महाराज के प्रताप के आक्रमण के कारण भयभीत हृदय वाले उनके वैरियों के इधर-उधर (चले जाने के कारण ) और उनकी प्रेयसियों के प्रोषित हो जाने के कारण अलग-अलग स्थित होना तर्कसङ्गतता के बाहर नहीं जाता है । ..."वह भी समीचीन है। करुणरस का निश्चय हो जाने पर भी वैसी परिपुष्टि वाली दशाओं की धारा पर आरोहण के कारण एकाग्रता से शान्तचित्तवाले उस तरह अभ्यास की गई हुई रसवासना से सुवासित चित्त वाले के लिए काफी अरसे के बाद स्वप्न में उपलब्ध समागम वाला पहले के अनुभव किए गए हुए वृत्तान्त के उपयुक्त कान्त के साथ आरम्भ किए गए संलाप वाला यथा कथञ्चिद् प्रबुद्ध हुआ, और प्रबुद्ध होने के बाद पोर्वापर्य का विचार उद्भूत होने पर प्रस्तुत वस्तु के अननुरूप होने के कारण विदीर्ण कर दिए गए हुए अन्तःकरण चाला 'आपके शत्रु की विलासिनियों का समुदाय रो रहा है' इस वाक्य से करुण रस का ही परिपोष होता है।
तथाविधव्यभिचार्योंचित्यचारुत्वं तत्स्वरूपानुप्रवेशो वेति कुतः