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वक्रोक्तिजीवितम्
और फिर ऐसे विषय में ( जहाँ रूपकादि अलंकार मुख्य होते हैं ) वहाँ रसवदलंकार के व्यवहार की गुञ्जाइश ही नहीं रहती क्योंकि उसको जानने वालों को वैसी ही प्रतीति होती है तथा अलंकार ही प्रधान रूप मे स्थित रहते हैं ।
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अथवा, चेतन पदार्थगोचरतया रसवदलंकारस्य निश्चेतन वस्तुविषयत्वेन चोपमादीनां विषयविभागो व्यवस्थाप्यते, तदपि न विद्वज्जनावर्जनं विदधाति । यस्मादचेतनानामपि रसोद्दीपन सामर्थ्य समुचितसत्कविसमुल्लिखित सौकुमार्यसरसत्वादुपमादीनां प्रविरलविषयता निर्विषयत्वं वा स्यादिति शृङ्गारादिनिस्यन्दसुन्दरस्य सत्कविप्रवाहस्य च नीरसत्वं प्रसज्यत इति प्रतिपादितमेव पूर्वसूरिभिः । यदि वा वैचित्र्यान्तरमनोहारितया रसवदलंकारः प्रतिपाद्यते, यथाभियुक्कै - स्तैरेवाभ्यधायि
कारण
अथवा ( यदि ) रसवदलंकार के विषय चेतन पदार्थों के होने एवं उपमादि अलंकारों के विषय जड पदार्थोंों के होने के कारण ( दोनों का ) अलग-अलग विषय निर्धारित किया जाता है, तो वह भी विद्वानों के लिये आकर्षक नहीं होता। क्योंकि जड पदार्थों के भी रस को उद्दीप्त करने की सामर्थ्य के अनुरूप श्रेष्ठ कवि द्वारा वर्णन की गई सकुमारता से सरस होने के कारण उपमादि अलङ्कारों का या तो विषय बहुत थोड़ा रह जायगा अथवा उनका कोई विषय ही न रह जायगा और इस प्रकार श्रृंगारादि रसों के प्रवाह से रमणीय श्रेष्ठ कवियों के प्रवाह ( अर्थात् काव्यादि ) नीरस होने लगेंगे, ऐसा पूर्व विद्वानों द्वारा प्रतिपादित ही किया जा चुका है ।
प्रधानेऽन्यत्र वाक्यार्थे यत्राङ्गं तु रसादयः । काव्ये तस्मिन्नलंकारो रसादिर्शित मे मतिः ॥ ४२ ॥
अथवा यदि दूसरी विचित्रता के कारण मनोहर होने से रसवदलंकार का प्रतिपादन किया जाता है जैसा कि उन्हीं विद्वानों ने कहा है कि
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जिस काव्य में ( रसादि से भिन्न ) दूसरे वाक्यार्थ के प्रधान होने पर रस आदि अङ्ग रूप होते हैं उसमें रस आदि अलंकार होते हैं यह मेरा विचार है ॥ ४२ ॥
इति । यत्रान्यो वाक्यार्थः प्राधान्यादलंकार्यतया व्यस्थितस्तस्मिन् तदङ्गतया विनिबध्यमानः शृङ्गारादिरलंकारतां प्रतिपद्यते । यस्माद्