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वक्रोक्तिजीवितम् तन्व्याः प्रथमतरतारुण्येऽवतीर्णे, आकारस्य चेतसश्चेष्टायाश्च वैचित्र्यमत्र वर्णितम् । तत्र सूत्रितस्तनमुरो लावण्यमङ्गैर्वृतमित्याकारस्य, स्मरव्यतिकरैः कन्दलितमिति चेतसः, स्निह्यत्कटाक्षे दशाविति किञ्चित्ताण्डवपण्डिते स्मितसुधासिक्तोक्तिषु भूलते इति चेष्टायाश्च । सूत्रित-सिक्त-ताण्डव-पण्डित-कन्दलितानामुपचारवक्रत्वं लक्ष्यते, स्निह्यदित्येतस्य कालविशेषावेदकः प्रत्ययवक्रभावः, अन्यैव काचिद.. वर्णनीयेति संवृतिवक्रताविच्छित्तिः, अङ्गैर्वृतमिति कारकवक्रत्वम् । विचित्रमार्गविषयो लावण्यगुणातिरेकः । तदेवमेतस्मिन् प्रतिभासंरम्भजनितसकलसामग्रीसमुन्मीलितं सरसहृदयाह्नादकारि किमपि सौभाग्यं समुद्भासते।
यहां पर कृशाङ्गी के पहिले पहल यौवन के अवतीर्ण होने पर (उसकी) आकृति, हृदय एवं चेष्टाओं के वैचित्र्य का वर्णन किया गया है। उनमें 'विस्तृत स्तनों से युक्त वक्षःस्थल' तथा 'अङ्गों ने लावण्य का वरण किया' इस ( विशेषण द्वय ) से आकार के, 'काम की अवस्थायें अङ्कुरित हो गई हैं'-इस (विशेषण ) से हृदय के, 'वात्सल्यपूर्ण कटाक्षों से युक्त आँखें एवं मुस्कुराहट रूपी अमृत से सने हुए भाषण के समय लास्य में विचक्षण सी हो गई भौहों की पंक्तियाँ' इन (दो विशेषणों से ) चेष्टा के वैचित्र्य को कवि ने प्रतिपादित किया है )। ( इस श्लोक में प्रयुक्त ) सूत्रित, सिक्त, ताण्डव, पण्डित एवं कन्दलित ( शब्दों ) की उपचार-वक्रता ( स्पष्ट रूप से ) दिखाई देती है । 'स्निह्यत्', इस ( पद ) की ( वर्तमान रूप) काल विशेष का बोध कराने वाले ( शतृ ) प्रत्यय की वक्रता ( लक्षित होती है)। 'अन्यव काचित्' अर्थात् 'अनिर्वचनीया' इस ( पद ) के द्वारा 'संवृत्तिवक्रता' की शोभा ( का प्रतिपादन किया गया है । ) 'अङ्गर्वृतम्' में ( अङ्गः के ) इस (तृतीया विभक्ति में प्रयोग ) से 'कारक वक्रता' (प्रतिपादित की गई है) विचित्र मार्ग के विषय रूप 'लावण्य' गुण का अतिशय ( इस श्लोक से लक्षित होता है ) इस प्रकार इस ( पद्य ) में ( कवि की ) प्रतिभा ( शक्ति ) के व्यापार से जनित समस्त ( वक्रता की ) सामग्री से स्फुरित हुआ सरस हदय लोगों के आनन्द को उत्पन्न करने वाला कोई (अवर्णनीय ) सौभाग्य ( नापक गुण ) भलीभांति उद्भासित हो रहा है ।
अनन्तरोक्तस्व गुणद्वयस्य विषयं प्रदर्शयतिएतत्रिष्वषि मार्गेषु गुणद्वितयमुज्ज्वलम् । पदवाक्यप्रबन्धानां व्यापकत्वेन वर्तते ॥ ५७॥