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द्वितीयोन्मेष:
१९७ वर्षाकालीन रमणीय प्राकृतिक उपादानों के देखने में असमर्थ होने का भाव व्यक्त करने वाला स्वाभाविक सुकुमारता में सरलता से प्राप्त होने वाला एक अनिर्वचनीय भीरुत्व प्रतिपादित होता है । और वही पहले कहे गए हुए ( कविविवक्षित नियत ) विशेष को प्रतिपादित करने वाले 'तु' शब्द का प्राण है।
विद्यमानधर्मातिशयवाच्याध्यारोपगत्वं यथा - ततः प्रहस्याह पुनः पुरन्दरं व्यपेतभीभूमिपुरन्दरात्मजः। गृहाण शस्त्रं यदि सर्ग एष ते न खल्वनिर्जित्य रघु कृती भवान् ॥२८॥
(पदार्थ में ) विद्यमान धर्म के ( लोकोतर ) उत्कर्ष का आरोप करने के अभिप्राय से युक्त होने का ( उदाहरण ) जैसे
( रघुवंश महाकाव्य में अपने पिता दिलीप द्वारा छोड़े गये अश्वमेध यज्ञ के घोड़े का अपहरण कर एवं बिना युद्ध के किसी भी तरह उसे न वापस करने के लिए उद्यत इन्द्र के ) ___ इस (प्रकार के प्रतिवचनों को सुनने ) के अनंतर वसुन्धरा के सुरपति ( राजा दिलीप ) के बेटे ( रघु ) ने भयहीन होकर पुनः अट्टहास करते हुए इन्द्र से कहा कि (हे इन्द्र ) यदि यह तुम्हारा स्वभाव (ही) है ( कि सीधे सीधे कहने पर शेखी बघारते जाते हो) तो हथियार उठाओ, क्योंकि ( हम ) रघु पर विना विजय प्राप्त किए (ही) आप कृतकृत्य नहीं ( हो सकेंगे, अर्थात् बिना मुझे परास्त किए आप अश्व का अपहरण नहीं कर सकते ) ॥२८॥ ___'रघु'-शब्देनात्र सर्वत्राप्रति हतप्रभावस्थापि सुरपतेस्तथाविवाध्यवसायव्याघात सामर्थ्यनिबन्धनः कोऽपि स्वपौरुषातिशयः प्रतीयते। प्रहस्येत्यनेनंतदेवोपबृंहितम् ।।
यहाँ ( इस श्लोक में ) 'रघु' शब्द के द्वारा, समस्त लोकों में अनिरुद्ध प्रभाव वाले भी देवताओं के स्वामी ( इन्द्र ) के उस प्रकार ( अश्व का अपहरण करने ) के उत्साह को भङ्ग करने के सामर्थ्य के कारणभूत अपने ( में विद्यमान ) पराक्रम के किसा ( लोकोतर) उत्कर्ष की प्रतीति होती है। 'प्रहस्य' ( अर्थात् अट्टहास करके ) इस पद के द्वारा इसी ( पराक्रम के अलौकिक उत्कर्ष) को ही परिपुष्ट किया गया है।
टिप्पणी-इस प्रकार 'सिग्ध श्यामल' में राम के अन्दर जिस क्रूरता की सम्भावना नहीं की जा सकती थी उसके आरोप के अभिप्राय को लेकर 'राम' शब्द प्रयुक्त हुआ था। अतः वह रूढिशब्द राम के द्वारा असम्भाव्य