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द्वितीयोन्मेषः
२१७ जहां किसी अतिशयपूर्ण व्यापार ( धर्म ) के भाव को प्रतिपादित करने के लिए अत्यधिक व्यवधानवाली वर्ण्यमान वस्तु में दूसरे पदार्थ से किञ्चिमात्र रूप में भी विद्यमान साधारण धर्म का आरोप किया जाता है वहां उपचारवक्ता होती है ।। १३ ॥
यन्मूला सरसोल्लेखा रूपकादिरलंकृतिः। उपचारप्रधानासौ वक्रता काचिदुच्यते ॥ १४ ॥ ( एवं ) जिसके मूल में होने के कारण रूपकादि अलङ्कार चमत्कारयुक्त हो जाते हैं वह उपचार की प्रधानतावाली कोई अपूर्व ( उपचार ) वक्रता कही जाती है ।। १४ ॥
प्रसौ काचिदपूर्वा वक्रतोच्यते वक्रभावोऽभिधीयते। कीदृशीउपचारप्रधाना। उपचरणमुपचारः स एव प्रवानं यस्याः सा तथोक्ता। . किस्वरूपा च-यत्र यस्यामन्यस्मात्पदार्थान्तरात् प्रस्तुतत्वाद्वर्ण्यमाने वस्तुनि सामान्यमुपचर्यते साधारणो धर्मः कश्चिद्वक्तुमभिप्रेतः समारोप्यते । कस्मिन् वर्ण्यमाने वस्तुनि-दूरान्तरे। दूरमनल्पमन्तरं व्यवधानं यस्य तत्तथोक्तं तस्मिन् ।
यह कोई अपूर्व वक्रता अर्थात् बाँकपन कहा जाता है। कैसी ( वक्रता) उपचार के प्रधान्य वाली। उपचरण को उपचार कहते हैं ( उपचरण से तात्पर्य है साथ-साथ गमन अर्थात् गौण रूप होना-क्योंकि जिसके साथ गमन किया जाता है वह तो हुआ प्रधान एवं उसके साथसाथ चलने वाला हुआ गौण। उसी प्रकार शब्द का संकेतित अर्थ तो हुआ मुख्य अर्थ पर उसके साथ-साथ प्रतीत होने वाला अर्थ हुआ गौण । इसी गौणता को अथवा अमुख्यता को उपचार कहते हैं ) वही रहता है प्रधान रूप से जिसमें उसे उपचारवक्रता कहते हैं। और क्या स्वरूप है ( इस उपचारवक्रता का ) ?--जहाँ अर्थात् जिस वक्रता में (वर्ण्यमान से भिन्न ) दूसरे पदार्थ से, प्रस्तुत होने के कारण वर्ण्यमान वस्तु में सामान्य उपचरित होता है अर्थात् उस वस्तु में विवक्षित ( दूसरे पदार्थ के ) किसी साधारण धर्म का सम्यक् आरोप किया जाता है ( उसे उपचारवक्रता कहते हैं)। किस वर्ण्यमान वस्तु में (आरोप किया जाता है) दूरान्तरवाली ( वस्तु में)। दूर माने अत्यधिक अन्तर अर्थात् व्यवधान होता है जिसमें ( उस वर्ण्यमान वस्तु में आरोप किया जाता है)।