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वक्रोक्तिजीवितम्
एवं कारकवत्रतां विचार्य क्रमसमन्वितां सांख्यावक्रतां विचारयति,
तत्परिच्छेदकत्वात् संख्यायाः -
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कुर्वन्ति काव्यवैचित्र्य विवक्षा परतन्त्रिताः ।
यत्र संख्या विपर्यासं तां संख्यावकतां विदुः ॥ २६ ॥
इस प्रकार कारकवक्रता का विवेचन कर, संख्या के उसकी इयत्ता बताने वाली होने के कारण क्रमानुकूल 'संख्यावक्रता' का विवेचन करते हैं
जहाँ पर ( कविजन) काव्य में विचित्रता के प्रतिपादन करने की इच्छा से पराधीन होकर वचनों का परिवर्तन कर लेते हैं उसे संख्यावक्रता ( अथवा वचनवक्रता ) कहते हैं ।। २९ ।।
यत्र यस्यां कवयः काव्यवैचित्र्यविवक्षापरतन्त्रिताः स्वकर्मविचित्रभावाभिधित्सा परवशाः संख्याविपर्यासं वचनविपरिवर्तनं कुर्वन्ति विदधते तां संख्यावक्रतां विदुः तद्वचनवत्वं जानन्ति तद्विदः । तदयमत्रार्थ:- यदेकवचने द्विवचने प्रयोक्तव्ये वैचित्र्यार्थं वचनान्तरं यत्र प्रयुज्यते, भिन्नवचनयोर्वा यत्र सामानाधिकरण्यं विधीयते । यथा
जहाँ अर्थात् जिस ( वक्रता ) में कविजन काव्य के वैचित्र्य को विवक्षा से परतंत्र होकर अर्थात् अपने व्यापार की विचित्रता का प्रतिपादन करने की इच्छा से पराधीन ( अथवा बाध्य ) होकर संख्याओं में विपर्यास अर्थात् वचनों को परिवर्तन कर देते हैं उसको 'संख्यावक्रता' कहते हैं अर्थात् काव्यमर्मज्ञ उसे वचनों की वक्रता समझते हैं । तो यहाँ इसका आशय यह है कि एकवचन अथवा द्विवचन का प्रयोग करने के अवसर पर जहाँ विचित्रता लाने के लिए अन्य वचन का प्रयोग होता है, अथवा जहाँ भिन्नभिन्न वचनों का समान अधिकरण से युक्त रूप में प्रयोग किया जाता है ( वहाँ सङ्ख्यावक्रता होती है ) जैसे—
कपोले पत्राली करतलनिरोधेन मृदिता निपीतो निश्वासंरयममृतहृद्योऽधररसः ।
मुहः कण्ठे लग्नस्तरलयति बाष्पः स्तनतटीं
प्रियो मन्युर्जातस्तव निरनुरोधे न तु वयम् ॥ १०१ ॥
पराङ्मुखख ! ( तुम्हारे ) गण्डस्थल पर बनी हुई (कस्तूरी - चन्दन की )
पत्र - रचना को हथेली के आच्छादन ने मसल डाला है, तथा अमृत के समान मनोहर ( तुम्हारे ) इस अधर रस को निःश्वासों ने पूरी तरह से पी डाला