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द्वितीयोन्मेषः इयमपरा च लिङवैचिक्ष्यवक्रतसति लिङ्गान्तरे यत्र स्त्रीलिङ्गं च प्रयुज्यते । शोभानिष्पत्तये यस्मानामैव स्त्रीति पेशलम् ।। २२ ।। यह दूसरी लिङ्ग के वैचित्र्य की वक्रता होती है-जहाँ पर अन्य लिङ्गों के विद्यमान रहने पर भी सौन्दर्य की सृष्टि के लिए स्त्रीलिङ्ग का (ही) प्रयोग किया जाता है ( वहाँ लिङ्गवैचित्र्यवक्रता होती है ) क्योंकि स्त्री जैसा कथन ही सुकुमार होता ॥ २२ ॥
यत्र यस्यां लिङ्गान्तरे सत्यन्यस्मिन् संभवत्यपि लिने स्त्रीलिङगं प्रयुज्यते निबध्यते। अनेकलिङ्गत्वेऽपि पदार्थस्य स्त्रीलिङ्गविषयः प्रयोगः क्रियते। किमर्थम्-शोभानिष्पत्तये । कस्मात कारणातयस्मानामैव स्त्रीति पेशलम् । स्त्रीत्यभिधानमेव हृदयहारि। विच्छित्त्यन्तरेण रसादियोजनयोग्यत्वात । उदाहरणं, यथा
जहाँ जिस ( वक्रता ) दूसरे लिङ्ग के विद्यमान होने पर अर्थात् अन्य लिङ्ग के सम्भव हो सकने पर भी स्त्रीलिङ्ग का प्रयोग किया जाता है, (स्त्रीलिङ्ग को ही) उपनिबद्ध किया जाता है। अर्थात् पदार्थ के अनेक लिङ्ग वाला होने पर भी स्त्रीलिङ्गविषयक प्रयोग किया जाता है। किस लिए-शोभा की निष्पत्ति के लिये ( अर्थात् सौन्दर्य की सृष्टि के लिए) किस कारण से (स्त्रीलिङ्ग का ही प्रयोग किया जाता है) क्योंकि स्त्री यह नाम ही सुकुमार होता है। अर्थात् दूसरे प्रकार की शोभा का जनक होने के कारण रसादि की संयोजना के अनुरूप होने से स्त्री यह कथन ही मनोहर होता है । ( इसका ) उदाहरण जैसे
यथेयं ग्रीष्मोष्मव्यतिकरवती पाण्डुरभिदा मुखोद्भिन्नम्लानानिलतरलवल्लीकिसलया । तटी तारं ताम्यत्यतिशशियशाः कोऽपि जलद
स्तथा मन्ये भावी भुवनवलयाकान्तिसुभगा ॥७६ ॥ जैसे कि यह नीष्म काल की गमी के सम्पर्क वाली, अत्यधिक पाण्ड ( श्वेत पीत ) वर्ण की, मुख से निकले हुए मलिन पवन से चञ्चल लताओं के नव पल्लवों से युक्त तटी अत्यधिक सन्तप्त हो रही है इससे मालूम पढ़ता है कि चन्द्रमा की ( भी शीतलता रूप ) कीर्ति का अतिक्रमण करने वाला सारे भुवनमण्डल की आक्रान्त करने के कारण मनोहर कोई जलधर उपस्थित होने वाला है ॥ ७९ ॥
१६ व. जी.