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वक्रोक्तिजीवितम् अत्र लोकोत्तरत्वलक्षणमुभयानुयायि सामान्यं समाश्रित्य प्राधान्येन विवक्षितस्य वस्तुनः प्रतीयमानवृत्तरभेदोपचारनिबन्धन तत्त्वमध्यारोपितम्। यथा चैतयो योरप्यलंकारयोस्तुल्येऽप्युपचारवताजीवितत्वे वाच्यत्वमेकत्र प्रतीयमानत्वमपरस्मिन् स्वरूपभेदस्य निबन्धनम् । एतच्चोभयोरपि स्वलक्षणव्याख्यानावसरे समुन्मील्यते ।
यहाँ ( हरिण तथा अलौकिक प्रभाववाले व्यक्ति ) दोनों में अनुगत अलौकिकतारूप सामान्य ( धर्म ) का आधार ग्रहण कर मुख्य रूप से प्रति पादित करने के लिए अभीष्ट गम्यवृत्तिवाले पदार्थ के अभेदोपचार के कारणभूत उस ( हरिण रूप ) पदार्थ का ही आरोप कर दिया गया है। और इसी लिए इन दोनों अलङ्कारों में उपचारवक्रता के समान रूप से प्राण रूप होने पर भी एक जगह ( रूपकालङ्कार में) वाच्यरूपता एवं दूसरी जगह ( अप्रस्तुत प्रशंसा अलङ्कार में ) प्रतीयमानता दोनों अलङ्कारों के स्वरूप भेद का कारण है । यह ( बात ) दोनों के ही अपने-अपने लक्षणों की व्याख्या करते समय भलीभाँति स्पष्ट किया जायगा।
एवमुपचारवऋतां विवेच्य समनन्तरप्राप्तावकाशां विशेषणवक्रतां विविनक्ति
विशेषणस्य माहात्म्यात् क्रियायाः कारकस्य वा ।
यत्रोल्लसति लावण्यं सा विशेषणेवकता ॥ १५ ॥ इस प्रकार उपचारवक्रता का विवेचन कर तदनन्तर स्थानप्राप्त विशेषणवक्रता का विवेक प्रारम्भ करते हैं
जहाँ विशेषण के माहात्म्य से क्रिया अथवा कारक (रूप वस्तु) की रमणीयता . प्रकाशित होती है उसे 'विशेषणवक्रता' कहते हैं। ( क्योंकि वहाँ लोकोत्तर विशेषण के कारण ही सौन्दर्य व्यक्त होता है ) ।। १५ ।।
सा विशेषणवता विशेषणवक्रत्वविच्छित्तिरभिधीयते । कोदशी यत्र यस्यां लावण्यमुल्लसति रामणीयकमुद्भिद्यते। कस्य-क्रियायाः कारकस्य वा। क्रियालक्षणस्य वस्तुनः कारकलक्षणस्य वा। कस्मात्--विशेषणस्य माहात्म्यात्। एतयोः प्रत्येकं यद्विशेणणं भेदकं ( तस्य माहात्म्यात् ) पदार्थातरस्य सातिशयत्वात् । कि तत्सातिशयत्वम्--भावस्वभावसौकुमार्यसमुल्लासकरवमलंकारच्छायातिशयपरिपोषकत्वं च । यथा