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वक्रोक्तिजीवितम् भस्मीचकार मदनं ननु काष्ठमेव
तन्नूनमीश इति वेत्ति पुरन्ध्रिलोकः ॥ ३८॥ विशेषण के द्वारा जैसे
कामिनी समुदाय ने स्नेहमयी सुन्दर श्वेत और विशाल आँखों वाले तथा सरस मदिरा के कारण उत्पन्न शृङ्गार हावों से परिपूर्ण विदग्ध नायक को देखकर 'शिवजी ने निश्चित रूप से मदन नामक काठ को ही जला दिया था' ऐसा निश्चय किया ।। ३८ ।।
अत्र काष्ठमिति विशेषणपदं वय॑मानपदार्थापेक्षया मन्मथस्य नीरसतां प्रतिपादयद् रम्यच्छायान्तरपशिश्लेषच्छायामनोज्ञविन्यासपरमस्मिन् वस्तुन्यप्रस्तुते मदनाभिधानपादपलक्षणे प्रतीति नु पादयद् रूपकालङ्कारच्छायासंस्पर्शात् कामपि पर्यायवकतानुन्मीलयति ।
यहाँ पर 'काष्ठम्' यह विशेष पद वर्णन के विषपभूत पदार्थ के प्रति अपेक्षा होने के नाते मन्नय की नीरसता को प्रकाशित करते हुए और रमणीप दूसरी कान्ति का स्पर्श करने वाले श्लेष की शोभा के कारग सुन्दर विन्यास से उत्कर्ष को पाने वाला होकर इस अप्रस्तुत मदन नाना वृक्ष रूपी वस्तु के विषय में बोध को उत्पन्न कराते हुए रूपक नाम अलंकार की शोभा के सर्श के कारण एक अद्भुत पर्यायवक्रता को प्रस्तुत करता है।
अयमपरः पर्यायप्रकारः पदपूर्विवक्रतायाः कारणम-यः स्वच्छायोत्कर्षपेशलः । स्वस्यात्मनश्छाया कान्तिर्या सुकुमारता तदुत्कर्षेण तदतिशयेन यः पेशलो हृदयहारी । तदिदमत्र तात्पर्यम् - यद्यपि वर्ण्यमानस्य वस्तुनः प्रकारान्तरोल्लासकत्वेन व्यवस्थितिस्तथापि परिस्पन्दसौन्दर्यसंपदेन सहृदयहृदयहारितां प्रतिपद्यते । यथा
(४) 'पदपूर्वार्धवता' का हेतु यह अन्य पर्याय का भेद है कि जो अपनी कान्ति के उत्कर्ष से मनोहर होता है। स्वच्छाया अर्थात् अपनी जो कान्ति अयवा सुकुनारता है उसके उत्कर्ष अर्थात् आधिक्य से पेशल अर्थात मनोरम (पर्याय )। तो इसका भाव यह है कि- यद्यपि वर्णन की जाती हुई वस्तु की स्थिति दूसरे प्रकार को उत्पादित करने वाली के रूप में होती है फिर भी उसकी स्वाभाविक सौन्दर्य-सम्भत्ति ही सहृदयों के हृदय को आकृष्ट कर लेने वाली हो उठती है । जैसे---