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द्वितोयोन्मेषः
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बहूनां व्यवधानेऽपि यथा
चकितचातकमेचकितवियति वर्षात्यये ॥१४॥ ( वर्णों का) व्यवधान होने पर भी बहुत ( से वर्णों की पुनरावृत्ति ) का ( उदाहरण) जैसे
वर्षा ऋतु के व्यतीत हो जाने पर परेशान पपीहों से श्यामवर्ण आकाश में ( यहाँ 'चकितचातक्मेचक्ति' में 'चवित चकित' दो बार ॥१४॥ समुदित रूप से च क् एवं व की 'चाकत में' के व्यवधान से आवृत्ति
सा स्व राणामसारुप्यात् सेयमनन्तरोक्ता स्वरानामकारादीनामसारप्यादसादृश्यात् क्वचिरकस्मिंश्चिदावर्तमानसमुदायकदेशे परा: मन्यां वक्रतां कामपि पुष्णाति पुष्यतीत्यर्थः । यथा
राजीवजीवितेश्वरे ॥१५॥ वह अभी अभी कही गई (वर्णविन्यासवक्रता) अकारादि स्वरों के असारूप्य अर्थात् असमान होने से कहीं कहीं अर्थात् किसी आवृत्त होने वाले ( वर्णो-
व्यञ्जनों के ) समुदाय के एक भाग में किसी (अपूर्व ) दूसरी वक्रता का पोषण करती है। जैसे
राजीवजीवितेश्वरे ॥ १५ ॥ ( यहाँ पर ज् एवं व वर्ण समुदाय की आवृत्ति हुई है जिनमें कि व का स्वर दोनों में भिन्न है अर्थात् पहले व के साथ स्वर 'अ' तथा दूसरे के साथ 'इ' का प्रयोग हुआ है । जिससे एक अपूर्व चमत्कार की सृष्टि होती है। यथा वा
धूसरसरिति इति ॥ १६॥ अथवा जैसे
धूसरसरिति ॥ यह पद ॥ १६ ॥ ( यहाँ ‘स् र वर्षों का समुदाय आवृत्त हुआ है जिनमें पहले र के साम स्वर 'अ' तथा दूसरे के साथ 'इ' प्रयुक्त है। यथा च
स्वस्थाः सन्तु वसन्त इति ॥ १७॥ और जैसे--
स्वस्थाः सन्तु वसन्त ॥ इति १७ ॥