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वक्रोक्तिजीवितम् का सारा चन्द्रिका का जल पी जाओ जिससे यह शशाङ्क ( चन्द्रमा) तेज सें हीन हो जाये ( और विर हियों को परेशान न करें)॥
यहाँ पर केवल अन्त में 'दरिद्रः' में द्र और द् र् की बिना व्यवधान के आवृत्ति हुई है। बहूनां यथा -
___ सरलतरलतालासिका इति ॥ १२ ॥ ( व्यवधान के अभाव में ) बहुत (से वर्णों की पुनः पुनः आवृत्ति का उदाहरण) जैसे-(पूर्वोदाहृत सं० २।२ 'भग्नला....' आदि पद्य का निम्न अश) सरलतरलतालासिका ।। यह पद ॥ १२ ॥
( यहाँ समुदित 'र ल त' तीन व्यञ्जनों की बिना व्यवधान के एक बार आवृत्ति हुई है) 'अपि-शब्दात् क्वचित् व्यवधानेऽपि । द्वयोर्यथा -
स्वस्थाः सन्तु वसन्त ते रतिपतेरग्रेसरा वासराः॥ १३॥ ('क्वचिदव्यवधानेऽपि इत्यादि ( २१३) कारिका में ) 'अपि' (भी) शब्द के (प्रयोग के ) कारण कहीं कहीं व्यवधान होने पर भी यह वर्णविन्यासवक्रता होती है ऐसा अर्थ लिया जा सकता है। और इसीलिए. व्यवधान होने पर भी इस वक्रता के उदाहरण दिये जा रहे हैं। उनमें से व्यवधान युक्त एक वर्ण की पुनः पुनः आवृति का उदाहरण-'वामं कज्जलवद्विलोचनमुरो रोहद्विसारिस्तनम्' को ही लिया जा सकता है। यहाँ 'वद्विलोचन' में व की व्यवधान से युक्त आवृत्ति है । अथवा 'विसारिस्तनम्' में स् की व्यवधान पूर्ण आवृति है। इसका उदाहरण ग्रंथकार ने नहीं दिया। अतः उसे हमने यहाँ उदाहृत किया। अब व्यवधान होने पर) दो (वर्गों की पुनः पुनः आवृत्ति) का ( उदाहरण ) जैसे--
हे मधुमास ! रतिरमण (मदन) के आगे आगे चलने वाले (पुरोगामी) , तुम्हारे दिवस सुखी रहें ।। १३ ।
टिप्पणी-यहां समुदित व र, की 'ते रतिपतेरने' में तथा स् र् की 'अग्रेसरा वासराः' में क्रम से 'तिप' एवं 'वा' के व्यवधान से आवृत्ति हुई है। यद्यपि 'सन्तु वसन्त' में केवल 'न् ।' की व्यवधान पूर्ण आवृति मानकर उसे इसका उदाहरण कहा जा सकता है। पर अधिक समीचीन यही होगा कि यहाँ ‘स् न एवं द' तीनों की समुदित रूप में पुनः आवृत्ति मान कर बहुत से वर्षों की व्यवधानयुक्त पुनरावृत्ति का उदाहरण माना जाय ।